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पयते

191

दरिदिासस॑स्छतवन्थमारासमास्यं--

कारीसंस्कृतसीरिज्ञपुस्तकमाखायाः

१०२

वेदवि भागे पश्चमं पुष्पम्‌

वेदमाष्यभूमिकासङ्हः

(सायणाचायैविरचितानां खवेदभाष्यभूमिकानां सङ्रहः)

फारीवि्विचाख्याध्यापकेन, एम. ए. साहित्याचार्थतिपदवीविभूषितेन पण्डित कख्देव उपाध्यायेन मूमिकारिप्पण्यादिभिः समरट्कृत्य सम्पादितः 4

भ्रकादाकः-- जयकृष्णद्‌गस दरिदासगु्ः- < ` 1 [18 चौखस्वा सखस्करृत सीरिज्ञ आकिस) वनारस सिटी

१६६१ राजकीनियमायुसारेणास्य सव॑ऽधिकाराः प्रकादाकेन स्वायततीक्ताः

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आश्रयद्यतारः ८-९,

8. 6.

आविभावकारः ९१०

चसम्‌ १०-११ भन्थाः ११-१४ वेदमाप्याणां पोवापयैपरक्ष १४-१६ ब्रह्मणानां माप्याणि ` १६१७ वेदभाप्याणानेकक्गैलम्‌ . १७-१८ वेदानामध्ययतप्रकारः १८-१९ वेदानां नव्यार्थ्मामां सापरकारः १९-२० परधात्यायों वेदाथंवुशीठनम्‌ २०-२१ वेदलविचार्‌ः ` .२२ वेदानां प्राचीनमाष्याणि २२-२३ वेदारथष्यानुरीरनपद्धतिः २६ सायणमा्यारणां शहत्वम्‌ २४-२५ कुतताप्रकाशः _ , , २५ सण्‌ वशर 9 06 (मर्श ,' 1-6 86 (फत्‌ ` 1-14

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संकेतितपदानां सुची

अथरववेद्‌ अनुक्रमणिकामाप्य अष्टाध्याधी आपस्तम्ब

आपस्तम्ब धर्मघूत्र आपस्तम्ब मत्रपाट , आपस्तम्ब यन्नपसिमिष। आदवछायन आदवलायन सूत्र उत्तरार्चक

उह गान

चछवेद्‌

देतरेय उपनिषद्‌ देत्तरेय व्राह्मण कात्यायन अनुक्रमणी केदावीयगृह्यपद्धति कैशिक सूत्र

गेय गान

गोपथ ब्राह्मण

गोतम सूत्र

चरण व्यूह

छान्दोग्य उपनिषद्‌ जेमिनिसूत्न

जेमिनि न्यायमालविस्तर

ताण्ड्य महाब्राह्मण

तेचिरीय आरण्यक तेक्तिरीय ब्राह्मण

संकेतितपदानां सूच्री. `

ते० सं तैत्तिरीय रहिता

निण० " निक्त

ने यृसिंह ` तापनी उपनिषद्‌ पू ता० न॒िह पूरव तापिनी

१० परिरिष्ट

पा० शि पाणिनीय रिक्षा

पा० अष्टा ˆ पाणिनि अष्टाध्यायी पू० जा पूवौविक

| बृहदारण्यक उपनिषद्‌ ञ° उप

त्र° सुर म्रह्मसूत्र

म० भा महामारत

मण स्मृ मनुस्मृति

मी° मीमांसा सूत्र

री० भा० विर मीमांसा माप्य विवरण मु मुण्डक उपनिषद्‌

भै० सं मेत्रायणी संहता यार्स्सृ० याज्ञवल्कय स्मृति खदट्या० सू° लाट्यायन सूत्र

वा० स॒० वाजकनेथी सहिता

वि० पु विष्णु पुराण

वि° से° - , विनियोगसमरहं

वे वेदान्तसूत्र

त्रा रातपथ बाह्मण

चा० भार शाव्र्‌ भाष्य , सवेता० ॐ० ` स्वेताख्तर उपनिषद्‌ सत्या° पूण ' ` सत्याषाट सूत्र

सा० स” , सामसंहिता

संहि० ब्रा° संहितात्राह्मण

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श्रीकरण््पुरसण्दधये शासनपश्ेु विरिलिताः श्लोकाः ३९ 1. 11. ४०], 717, 7, 23.

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(2) प्रायश्चित्तघुधानिधि--द]8० १०7 98 10171000/0द0-- १688 111 [नाक्षा688, 0706 = ##6 7008४ 19०87४ †णुभ०5 6 तावप [0न79808{188.

(9) धावुदृत्ति-एणएपाशः] [पछ 88 माधवीया धातुपत्ति-;8 सा दपक्0पा४् 6 686 00 = 8िभशृतप रश०इ. 1 १९०३ 39 छा 6>08्89ए6 71811762 06 एलाः०६ हए 10 न16 [77४ - 8४ पपा. उव 8 088, 23 > {0४९1 द्वर्रपत्‌९, 78६7160 08 हुपकप्फरठछषु कणर कपिलः 8 लवकः एजः 1184108ए8 प्ण्वलाः 11086 08ुभीा.0 16 (गा0ू0086त 7087 108 एष्व कणः 88 फो] 6 शफ ]8लाः ००,

(4) अलदुरुधानिधि--1+ 18 & 1688 ०४. 39086 066०९ धत 18 प्रपाव्ठ 70 दण फथक8, 096 एलापाक््रथण€ (एव्व्या- धि 7116 एताः 00088४8 10 706 © पाक 76 फक्त ४116 [प्ल र6 एलाः868 28 70 {16 988 ध16 प्ण 17718. €) 6 8976 कपक्नाः 18 168ु008}016 {0 ४6

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1 हति पू परटिचम कसुद्ाधी$्वरारिरायनिभारु श्रो कम्पराजमहाप्रघान- मरद्राजयकमौ क्िक~मायणरल्ाकरछधाकर -- माधवकटपतरसदोदर-श्री प्षायणायविरचिते इमापितठधानिधौ 2. तेन मायणपुत्रेण स्षायणेन मनीषिणा) भाख्यया माधवीयेयं धावुवत्तिविरन्यते 8, 6. £. 8] ४6 1|]परणि्रिा8 दकाष्डी विधाधर, प्रतापरदय-

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(8) यक्नवन्त्रुधानिधि-1118 15 > {6६.४56 07 641९ धप ]8. 106 1987 ‡प्र० ०ाऽ एला 00 [0088त्‌ एग उव972 तपप्ण्डु 816 (सद्व 0 तन्ना 1, घा6 80 ६०१ 5८९६88०१ परिपा , 1०86 हच्नाकञक्र ऋत्‌ उशद्‌ गः ४£ एद्व्‌८ ८६88 816 लत्पृप्च्ण्ङ 81560 एङ रद 98. 70 ४16 9817110 1686 075,

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८) तैत्तिरीय संहिता कृष्ण यजुर्वेदं

00) ऋरेद्‌ संहिता

(17) सामवेद संहिता

(1४) कारवसंहिवा शुक्ल चञवद्‌

(ए) अथववेद संहिता

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ए. ्र718708 0 ४06 ०१४ (8 ) एेतरेय ब्राह्मण ( 4 ) रेवयरेय आरण्यक

0. 1081088 0 ४16 82119. 6१९- ( 5 ) ताण्ड ( पच्चर्विश ) व्राह्मण ( 6 ) षड्विश (7 ) सामविधान (8 ) ार्षेय ८9 ) देवताध्याय ( 10 ) उपनिषद्‌ ( 11 ) संहितोपनिषद्‌ ( 12 ) वंश

2. एद्02118. 7076 ४१ 0106 उभ प९४-- ( 18 ) शतपथ ब्राह्मण

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1. स्वरवर्णाद्यपराघपर्हिराय रि्ाग्रन्योऽपेद्धितः [. 50

2. कल्पसुत्रं मन्त्रविनियोगेन ऋत्वनुष्टानुपदिश्य उपकरोति 7. 51.

8. रक्षायै वेदानासध्येयं व्याकरणम्‌ 1 खोपागमवर्णदिकार्तो हि सम्यग वेदन पाटयिप्यति वेदार्थं चाघ्यदस्यत्नि-मदानाप्य [2 51

[531 1

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1 तदिदं विद्यास्थानं व्याकरणल्य कार्हन्यं स्वारसाघकं तस्माद्‌ वेदार्थ चवोधाय उपयुक्त निरक्तम्‌ 1, 50

2. इतिहांसपुराणाभ्यां वेदं ससुपष्हयेत्‌ | - - म० भा० १।१।२६१

8. यो वा अविदितार्पयच्छन्दोदेवतवराह्यणेन मन्त्रेण याजयति वाध्यापयति वा स्थाणुं वच्टेति गतत वा पात्यते प्रमीयते बा पापीयान्‌ भवति --का० अनु

4. पूवोत्तरमीमांसगरोवदारथोपयोगोऽसिस्पषट एव ]. ६१,

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प्रस्तावना

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उपक्रमः

पितरदरेवमउष्याणां वेदश्चक्षुः सनातनम्‌ अद्ाक्यं चध्रमेयं वेदशाख्मिति स्थितिः चातुर्वर्य चयो खोकाञ्चत्व्रार्ाश्चमःः प्रथक्‌ भूतं भ्यं सतिष्यं सर्वं वेदात्‌ पसिध्यति --मनुः सथाभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिदेतुक्य घर्मस्य परमार्थमूतसिद्धान्तनिचग्रावगतेः साधन भूता जगतार्मदिकामुष्मिच्परममङ्लसम्पःदनाय सगवता कणावरुणालयेनाविभीवं प्रापिता मगवन्तो चेदा एवाऽऽस्माकं घर्मसर्वस्वमिति केषां दान्ञानजुषां विदुषां नावगतम्‌ नेवास्माद्ं मानवानाम्‌, अपितु देवानां पितृणामपि वेद एव सनातनं चक्षुरिति चतुर्ण वर्णानां, त्रयाणां लोचनां, चतुर्ण आश्रमाणां, भूतस्य भभ्यस्य भविष्यत सकलस्य वस्तुजातस्य प्रचिद्धिस्थानं भगवती श्ुतिरेवेति मनुवचने कः खलं सचेताः सन्दिग्धे वेददाघ्ठं वरिदाय नैवान्यत्‌ क्रिमि परं साधनं यत्‌ ख़ जन्तून्‌ परमा्थमूतां मोक्षपद्वीमुणदिशति 1 मचुरपि अमुमेवार्थं साधु षमथयति-- विभवति सर्वभूतानि वेदशाखं सनातनम्‌ तस्मदेतत्‌ परं मन्ये यज्जन्तोरस्य साधनम्‌ यत्त एव वेदा्थेतत्वक्तस्य भूयसी भरद्ंसा शाच्रपुपलभ्यते वेदार्ज्ञानं नाम मानवानां परमं कव्यम्‌, प्राधान्यतो व्राह्मणानाम्‌ अत एवोक्तमाचायैः-- निष्टारणं ब्राह्मणेन षडङ्गो वेदोऽष्येयो जेय स्मर्यते मानवे वमेचाच्रे-- वेद्दाखा्थ॑तच्वन्लो यत्र तयाश्चमे वसन्‌ दृटैव लोके तिष्ठन बह्मभूयाय कल्पते सैनाप्यं सज्यं दृरुडनेतृत्वमेव स्व॑ खोकाधिपत्यं वेदृशाख्विदृर्हति

प्र्ताचना

[का

अथ विदितमेव विमरधिषणाना बिद्द्धोरेयाण चठुत्रैदभाध्यरचयितुस्तन्न मतः ध्रंसायणाचायंस्याभिधानम्‌ आद्धलेऽस्मिन्‌ भासते वव नास्येव ता्‌ कर्चन वेदसा." त्ञानसम्पशनो विपत्‌ येन नाघुनापि श्रुतिगोचरहृतं परीमं सायणाचार्य नाम ्रीमता सायणाचार्येण विरचितानि निखिलमपि सरदस्यं शुल्यवजातं प्रदीपा इव प्रकास- यन्ति अज्ञानतमस्काण्डमुन्मुलयाम्त चदुणामपि वेदानां माष्याणि सततं रञ्जयन्ति विपित .. दतोमि साम्प्रतं मगव्रह्याः श्युभया यः कष्दयः प्रीयते, यत्‌ किमपि रहस्यमघ्मार बुदधिपथमवटरति, निखिलमपि तत्‌. श्रो्तायणाचाधरस्यातुगरददिकपितमेवेतिः पुषं मन्या. सर्वेपां वेदमाष्याणामारम्मे तत्रमवता प्रन्यशृता उपेोद्धातक्षपेण वेदस्यफेस. पेयलरपोक्तेयत्व-घथेकरत्वानर्थकवादिनिवन्धनं वहवो वेदज्ञानासवश्यं श्ञातव्मा ्िषरया निवद्धा विलपन्ति तत्र ऋषेदभाध्योपद्धात एव यत्र कपि सुद्वितचरः यजु वेदमामूेदाय्रवेदानां भष्येषद्धाता कुत्रापि चहुमूल्यसम्पनने भाष्यपुस्तकं विहाय एयर्‌ मुद्रिता इति तेपां सर्वेषामेकत्र पुस्तकरूपेण प्राशनं वेदाभ्याषिनापुपक्ाराय

141

अस्षाधनानाच विार्थिनामुषयोगाय शष मनिष्यतीति मदीयो नूनं विद्ासः। महान्तो

के

महार्थाश्च माष्यप्रन्था सर्वरपां जिह्ासूनां सुलभा दति देतो; श्रुतिविषयक्निखिः

रदस्यप्रतिपादकन) सर्वेषामेव भःष्योपद्धातानमेकनन प्राथमिके प्रकाशने नः परम एषं भद्रः)

भ्रीसायणाचारस्य जीवनषटतप्‌

+; (वि

साम्प्रतं वेदमाष्यप्रणितुः श्रौसायणाचार्यंस्य जीवन डत्तान्तमधिकप्य किमपि रसंकषिपेण

न.

विचारयामः दिया भाग्यभाजेो वयं यदावश्यकं सकलमपि प्रीसायणीयं इत्ते ज्ञं विन्तेऽप्माकमुपयोगाय प्रमाणभूतानि वहूनि साधनजातानि अ्रन्थङ्द्िरेष स्वानिर्मि- तानी प्रन्थानामाद स्वररशपरि चयः स्वयमेव प्रदर्शित हति नितरामस्माकं प्रमोदस्थानम्‌ वरिजगयरनगरमद्ाराजाधिराजाणौ बहूनामपि िलल्विभ्यः श्षासतपत्रेभ्यङ्व वहध्य- वेक्षिते उत्तजातसुषलम्यते श्रीमदाचायैवय्रौणामित्यपरमपि इवनिदानमेतिदापिद्ानाम्‌ तत्र सायणस्य जनको मायणो नाम जननी श्रीमतीनाम्नी गेप्रेण भार. दाजे वभूव कृष्णयनुप्रदघ्य तैत्तिरयशःख। गोष्यायनसुत्रं तस्य स्वीये जाताम्‌ ! तस्य रौ भ्रातरौ वेदशःल्रघम्पक्नौ ब्रदस्पतिद्यकतदशावभूताम्‌ तयोज्यांयान्‌ माधवाचार्य

परिजयनगरात्राज्यतस्यावकानां मदराजाधिराज श्रहिरिदिरसण(मा्षात्‌ मन्तिमूषन्यो

चरता वना हि विधधिद्धदिवमद्‌व कनीयान्‌ श्चीमोगनाथश्वासवत्‌ सममनेपतेः न्घचिवः कम. नीयकान्यकलकुशालः कवयिता एतत्‌ सरवं॑व्रततारतजातं सावभीग्सिनापोः लिखितानामलेचनया स्फुटं भविष्यति। अल््करघुवनित्री-- =. ` मदेन््रवन्माननीयो मन्वी मायण्तायसुः | मण्डलेषु कृतचार्मरडदछः सायणो जयति भायसात्मज्ञः मन्नी मायणसरायणलिजगती प्रान्यापद्‌ानोद्‌यः दति श्वौमत्‌ पूर्व-पधिम-दक्षिणोत्तर-समुद्राधिपतिचुक्छ सयप्रथमदेशिकमाधवा. सायौद्ुजन्मनः श्रीमरस्षंगमराजपक्ररज्यधुरन्धरस्य सक्रविद्यानि धानभूतस्य मोगनाथाग्रजन्मनः श्रीमस्प्ावगाचार्वस्य कृतावलद्भरुधानिधौ उभायितयघ्रानिव-- - ; भरद्वनन्वयभुज तेन सायणमन्निणी व्यर्च्यत विशिष्ार्थः श्ुभापिवघुधानिधि; इति पूथपश्िमसमुद्रा्धद्वरारिरायविभाल ध्ीकम्पराजमदाप्रपान-मरद्वार्ज- वं्मैक्तिक-प्रायणप्तनाकरषधक्स्-माधचक्सतदवदोदर-श्रीसायणा्ुत्िरविते नवुभाषितष्ठवानिधौ प्रायधित्तघुधानिवो-- तस्य. ( दड्मस्य ) मन्विक्चियेरत्नमस्ति मधणसार्णणः तेन मायणपुकरेण साथरेन मनीषिणा 1 ग्रन्थः कर्मविपाकाख्यः क्रियते करुणावत ्रीमाघवभोगनायतहोदरस्य नायणनन्द्नस्य सायणाचार्य छत प्रायधित्त- एधानिधौ यन्ञतन्व्ष्ठवानिधो-- तस्या ( संगमश्या ) भूर्दन्वयशुरुरतस्यसिद्धान्तदशव॑कंः सर्वषः खायणाचार्यो मायणा्तनूद्धवः उपेन्द्रस्यव यस्यासीदिन्द्रः सुमनसां प्रियः | पहाक्रतूनायाहर्ता माधवाय; सद्योद्‌रः

प्रस्तावना

, अधीताः सकला वेदास्ते द्रएर्थगौरवाः। तत्प्रणीतेन तद्धाष्यप्रदीपेन प्रथीयसा माधवीयधदुतौ- असित श्रीसंगमदमापः पृथ्वीतलपुरन्दरः तस्य मन्तिशियोरत्नमस्ति मायणसायणः तेन मायणयुत्रेण साथसेन मनीषिणि आस्यया भाधवीयेयं धातुचत्तिविरच्यते

पाधवाचायैः

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अभूवं माधर्ानोर्यः सायणाचार्य ज्यायान्‌ भराता | निदु पारमाधिशु ध्विदारक विषयेषु भस्य केसुषौ नितान्तं सप्रसराऽऽपीदिति प्राचनितिहासज्ञषां केष विदुषां नावगतम्‌ अये खु चतुदशक्चतकरे दक्षिणभारते विजयनगरषन्नज्यश्तिश्चतुः श्रीमन्महाराज इरिंहरस्य लाध्यात्मिकयुरनी तित्वव्याख्याता निषुमो मन्दरिवरोऽप्य. भवद्‌ माधवाचा्स्योषदेश्ानमिवद परिणतं फं यत्‌ विनासुेयुषि वारङगलमदहपितिङते, प्रलयवनाकमयैः विलोकते निखिले दक्षिणभारतीयप्रजावगं, सहाराअदरिहरेण मोत्ाद्मयानां दिय; भायंसभ्यताथाः समुदयाय, स्वातन्त्प्रक्षम्या भभ्युदयाय च, नवानमेव विजय. नगेरेति नाम्ना भासतेतिदति परह्य सामान्यं प्रतिष्ठापितम्‌ पूर्वोत्तरमीम) पयोः विसता राय धरमदक्षप्य प्रचुर्चाराय वुन्‌ अ्नथेन्‌ परथिनाय श्रीमन्माधवाचायैः तेषु स॒स्यतमा. विलपन्ति अधोनिदिश भ्रन्था-(१)पराश्चरस्पतिव्याख्य। ( पराश्ञर. माधवः )(२) ग्यवहारमाधतः (३)कारमाधवः, (४)जीवन्मुकति विवेकः, (५)जमिनीयान्यायमााविस्तरः, (द)शङ्करदिभ्िजवः विनयनगरााश्चस्य सभामन्य एव कश्चन माधवावायति्‌ भिन्नः अात्यसाघषं भासरादिति श्रूयते यः खड्‌ चाबुण्डभ्टस्य पूनः काशीविलाल क्षियाश्चाक्तेनाम्नः दोषाचायंस्य शिष्यः महाराजपरथसं घुकस्स्य द्वितविदरिदिरस्य व्यवह ररवाणो मन््ी परसवाशीगोवा्रेयोः वुदष्कात्‌ समुद्धता युदतरयावरषटः शापक वभूत ! प्वयमेव शिलालकषेषु केषुचित्‌ स्वविजयपरश्ञस्तुद्धोषयति आशान्तविश्वान्त्य॑शाः सन्ती दिश्नो जिगीपु्महता घक्तेन। गोचाभिधां कोद्णराजध्रानीमन्येन सन्येऽरुणएदवेन

ग्रस्तायां)

श्रतिष्धिर्तास्नच तनच्ष्क्सद्रचत्यायुय दोष्णा शवचेक्चाीरः | उन्मृलतितानामक्नत्‌ पतिष्ठं श्रीखत्तनायादिखध्वामुजां यः ¶॥

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1

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नाच याःद्विर्ां यचनडतपसश् चद्धुगडवृथ्वीसन्द- धरष्राद्वमेत्य नीतिख्ता दा चिवं परैषनतीम्‌

चरिः खन्चपि स्दानवमनःग्रद्दद्‌ानाचितां

ट्र भयः क्विवां व्यनि तयुते ना क्य वनाद तन्‌.

सनन उनिषन्मायग्रवतच्वरिय नद्ानन्वीद्वरेय श्रमठा मवेन स्छन्दयुयाथान्वरद+

सानन्दाधरम्् ्रन्यावरस्यां प्रद्रद्धिदद्य ठदुव्न्यस्य पुश्यद्राठो (भीष्ुष पर्वयद्े। चथ चटु भुक्‌

यव चछंह्ितायाः ठाटपयदर्पिकाामेवाना च्यद्यापि व्वर

4 मनजन्दी +, मर्त ~ ~ „~~. [+ याम्यं मजन्दां जिष्टाववामी विदरद्ररन्यःवियिं पिदान्दः।

गल्न्यशरय विदा दि + 6)

गद्याश विदय सन्यादवमदाद्ुट माववकदे एव्‌ विद्यारध्दति सामादर्भद् 1 अन्‌ः मववाचररय वियःरण्यच्ःमि करि्रदि धरान पडता यन्थ्दाय देवि = अन्‌ः मःयवाचःय विद्यःरण्ययःनिद्टवेवदि श्रःर्कचदा पणद्तायां खन्थदाथः | कविदे- +. (~ + 0 ~ र्न्नु माव 9 यःनाहु वियद्रहरेनन्‌ यन्ददाठःविस्टा एवं ददन) परन्तु प्रनयामवःतच देर

5, गृ्दयर +> } £ ग्प्त <-> ~~~ -न्दठ्थग्रद्शिद्ध 4

वेचि बहुदरगहुदवमाद््धय | विव्ाद्णयन वदुन्ताक्दन्दतत्वग्रच्ाद्यद्र पदरथ (+ न्वितं = (> ~ नद्यः व्रति ब्रःचायष्य ~< परिगनितुदि प्रधिद्रुमद ! कायच्न अच्द्भरयरुवानिवा निवा माघ्रवाचादस्य प्र्सदिधियं

प्रस्तावनां }. ` , भोगनाधः

श्री सायणाचार्यस्यानुजे भेगन{थोऽभवत्‌ खट वित्रयुण्टज्चासनपत्रश्यप्ररस्तेः रचथिताऽऽखीत्‌ तस्मिन्‌ मोगनाथः आत्मानं सक्मनरपतेन्मखनचिवत्वेन व्यपदिशति सायणाचायेविरषितालक्षारखुधानिषेः परिशीलनं मोगनाथस्य सङ्गम ( द्वितीय ) भूपते नितान्तं स्निग्धं परिचयं प्रमाणीकरोति तथा तत्रस्य इलोकाविमो नदशनम्‌ - अन्योन्यध्रणयापसधनिभतम्यापास्दीनारमनोः देवीसङ्गमयो. पराङ्मुखतयाष्येकासने तस्थुषोः ~ मध्ये सयशमन्िणा न.सणितं श्रीभोगनाथेन वा. नोक्तं नर्मसणखीजनेन तदप्यन्योन्यमुद्धश्चितम्‌ - भृष्तः सङ्गमेन्द्रस्य भोगनाथस्य वा कवेः - , चारणां चारणो वाथ दारि भविरातां हिये परश्स्तिलेखरत्य भागनोधप्यसीदलेक्रिको परतिमा अप्ताधारणं नैपुण्यं कवि वर्मणि इति दु निपुणं - वकुं शक्नुमः परन्धु तदिरवितघरषकाव्यानामलामे स्मः मितरौ परिखेद्‌स्थानमासत्‌ अघुन। सायणीयालङ्करधानिधौ यटूनाम्‌ तेत्काव्यप्रन्थाना मुष खात्‌ देष्य्या वधतेञ्य मर्दकत्मागनयः। पुषानिधा मोगनाथीयप्रतिभोषछठाधिनः

सनधयेतेऽषोनिर्दिशा भ्न्थाः समुदिशः ते पु यथा-(१)रमाह्ठासः,(रचरिपुर विजयम्‌ , (३)उदादरणमाला, (*) प्रह्मगणपत्तिस्तवः, (प)शङ्ञारमञ्जरी, (६)गोरनाथाष्टकम्‌ उदाहतपयानामालोचनया धरर प्रतीयते यत्‌ मोगनायः प्रतिभा सम्पत्ः कवयिता वभू तथा वभूव माधवाचा्यसायणावार्ययोः सर्वथेनुकूपो घ्राता कतिपये तस्य सरसाः इरोकाः षहदयहदयोलसाय अव्र घमुदिधरन्ते-- ` ईषन्युण्ङुरङ्गनाभितिलके रिद्धामस्युधर्मोदये- व्यक्तीभूतरद ्ततव्यतिकरेऽयांकीण॑नचू एं लकैः हाम्यस्छुरडलताण्डवेः रारिमुखीवक्नैरतद्‌ व्रीडित - रम्मोविश्चमदर्परेर्मिजगदे लमस्भोगलीटश्चमः - ~ शत्ारमक्ज्याम्‌, ईपर्थधोरचितमयश्च राजतं तयो्धेयोः कनकमय मध्यतः | पुरजयं दहनविधेः पुसोऽप्यगात्‌ सधूमतां सददनतां सभस्मताम्‌ --चिधुरिजये।

प्ररताचना 9

कष्टाय प्रसवाय दास्रपदवीक्षि्ठाय काङ्ानल- `

प्लु्ाय प्रथमानमल्तस्गुणाविष्टाय दुात्मने

सराय प्रतिविद्धकार्यघदनातुश्मय खृष्ठागसे

गोरीनाथ } सुसाधिनाथ ] जनक ! प्रीणातु म्यं मवान्‌

-- गोरीनाथाश्के `, उपलभ्यते छन्यदावद्यकं कौटुभ्विकं सागरणायं दृततं तदचिताष्टारघुषानिधिप्योदा- हतात्‌. पयजातात्‌ ब्नायतेऽोनिर्दि्टात्‌ पयात्‌ यत्‌ सायगाचार्यघ्य चयः सुनवोऽभवन्‌ कस्पणो मायणः सिक्गणश्च। तेषु थक्खयत्‌ कम्पणः सक्रातकगाद्च कामपि कमनीयां कुशचलताम्‌ अभवत्‌ मायणः कान्यकलावाधीपायेकरे गयप्रद्यर चना चणश्चदुरः ऋवयिता | अछ्भमत सिद्भणः क्रमजटाचरयाचर्चितवेदाभ्यापेषु कामपि विस्मयनीयं चतुराम्‌ + त्रयोऽप्येते स्षायणाचार्यस्य घनाः वभूवुः स्वस्वशालरेषु प्ृषटपाण्डियमण्डिता वरिपशिदपश्चिमाः तथा इलोकः--

तत्‌ संब्यश्नय कम्पण | व्यसनिनः सङ्गीतशास्त्रे तव प्रों मायर्‌] गद्यप्रयस्चनापारिडव्यमुन्मुद्रय लिक्तां दश्लैय हिङ्गण | करमजराचर्चास वेदेष्विति स्वान्‌ पुत्राठपलालयन्‌ गृहगतः सम्मरोदते सायणः -- भलद्धारघुधानिषो सायशस्य गुखः साय्रणाचर्येण तेदूधातृभ्णं विरचितानां ग्रन्थानां परिक्लीखनतेो ज्ञायते यत्‌ तेषां त्रयो गुरवोऽभूत्रन्‌ प्रथमो चिद्यात्तीधः, द्वितीयो भार्तीतीयः, तृतीयः श्रीकण्डः | एतेषु विद्यातीर्था महान्‌ तपःसम्पत्तप्रम्परतो यतिराजः सद्र १९नमाष्थस्य प्रणेता परमास्मती्थानां रिप्यरव वभूव) विद्यवेभतप्रभातेण वरिदयातीर्थं सदेर्वरस्यावतारलेन वणयि सायृणाचाय॑ः सर्वेषां पेदमाप्याणामुपक्रमे-- * यस्य निःश्वसितं वेदा यो बेदेभ्योऽखिलं जगत्‌ निम॑मे तमहं वन्दे वियाती्थमहेश्वरम्‌ यियातीयेष्यैव श्ररपीटे मू विदशद्करेति नाप्न। माधवाचार्यो निरमापयत्‌ धनुभुरतिप्रका शस्थोऽयं देकः पुटे प्रकाशयति यत्‌ वियातीर्यो माधवाचायश्य मुष्यो गुरासीदिति ,

[- प्रस्तावना)

श्नन्तः प्रविष्टः शास्तेति योऽन्तर्यामिश्चुतीरितः 1 सोऽस्मान्‌ मुख्यगुखः पातु विद्यातोर्थमहेश्वरः भारतीतीर्थः शशङ्गरीपीरस्थो युरुराखीत। एतस्य नाम साधवाचायैण पर।शरस्छति- भ्या्यायां जेमिनीयन्यायमालाविस्तरे बहुशः सादरमुटिखितं दरयते काथीस्य- शासनपत्रे सायणः श्री कण्डाचार्यमात्मने गुरं निर्दिराति माधवाचायंस्य भोगनाथस्य नयेषु श्रीकण्ठनाथः युशहपतामादधाना बहुषु स्थरषु नाम्ना समुिो विल्तितरामिति परोक्ष तदूपन्थवेव चनशीलानां विवेचकानाम्‌ भोगनाधः श्रीकण्ठ स्वमदागणपतिस्तवे

(1

सम्यग्‌ स्तौति--

मन्दरश्च तङः परेऽपिं तरवो मेरुश्च शेलः परोऽ

व्याः न्लेखाः कमलागरहस्थशयनं चाच्धिः परेऽप्यन्धयः श्रीकर्डश्च गुरुः परेऽपि गुरवो रोकवयेऽप्यदूभुतं भक्ताघीनभ्वोँश्च दैवतमदयो सव॑ऽप्यमी दैवताः

अआआन्रयदातारः

खायणोऽभजत चतुण्ण विंजयनगराधीलानां सम्राज्येऽतिगोरवसम्पन्नं महामान्नि. पदम्‌ 1 तेषु प्रथमः बुक्क मदीपतिरासीत्‌ खट विजयनगरस्य प्रथमाधिपतेः महा- राजाधिराजघ्रौदरिदरस्य आाताऽभवत्‌ अयमेव वेदाथप्रकाशनाय मन्तिष्ररं माधवा, चार्यमदिशत्‌ 1 अस्येैवदेशे जयेष्ट्रातृमुखेनाऽऽदाय वेदभाष्याणां भणयने प्रदृतोऽभवत्‌ श्रीमत्सायणाचार्यैः वेदभाष्ये सायणः आत्मानं वुक्कभूप्रालसाम्राज्यधुरन्धर इति हुषा वणयति सायणेन बुक्कभूपततेरनुजस्य कम्पराजस्य ( कम्पणप्य ) महाप्रधान. पदमधिह्ृतमासीदिति सुभाषित्तसुधानिष्यादिप्रन्थान।माणोचनया प्रतीयते कम्पणभूपति- रेष जीवत्येव ज्यायदि वबुक्कणनरपतो अतिमनो बाहुबलेन नेत्लोर-कुड़प्पादिष्यले सतनं राज्यमेक स्वीयमस्यापयदिति आमनन्ति भारतीयेतिदासविदः। दिवं गतेऽप्मिन्‌ प्पतां तत्सुतस्य सद्मनरेन्दस्य प्रधानामात्यपदं स्वीचार सायणः सक्नम द्वितीय) नरेनद्रोऽयं वास्यकालादेव सायणाचायस्य विष्यो वभूव सायणेन बहुषु विसर कलास पाठितो्य सद्धमभुपतिरगच्छव श्मिपि पाटवं शाघनकर्मणि। अधोलिखित इलो रेतिदाधेकं तथ्यमिदं स्फुरमदुमादु शक्यत विवेचकबुद्धिमिरविदद्धिः--

ग्रद्लाचचा 1

पे

-9ॐ- - ; > खस्थदटु धिश्च खचित्रममितः गैशत्रे खायणायै | प्राह नाद्रा च्रक्टयातत सखङ्धमनच्छरः धयान मे अन्यच्च चराचणः सनुपायते सवायि वार्यच्य दरिद्र ( द्वितीय ) मदाराजाविराज्य

घाप्राज्यघरुरमवदत्‌ इति तदुप्रन्यभ्यः स्फुटमवमाघते अथवददिताभाष्ये छावर यध्नानं श्रौमद्राजाविराजराजपरमेदवर-श्वरवारदरिदरमद्रारायघ्य खाप्राञयधुरन्वरत्वेन वर्णयति यर्ग्ष्प द्रि दर-गद्राराजा वुक्छमदयतेः पुचुः दरिदरनरपतिरस्यं परा छरमयी वर्मृपथपयिधः प्रजारद्धनततसे वेदार्थरविकदचामवत्‌ चायण एुनभयर्व. दितामाप्योपादति श्रदास्तं स्ताति-

विजिचासतित्राते वीगध्रीहरिहरश्रुमाध्ीराः। |

ध्मेत्रह्माघ्यन्यः कटि स्वचरितेन कतयुमं कुवते 1 ५॥

घ्रयित्या मर्दी खर्व श्रीमान्‌. हरिहरेर्वरः 1

शङ्कते घहुविष्यान्‌ श्रागानसक्ते सामचच्‌ दु्ीः 2॥

विजयी हस्दिरभृपः सघरुद्हन्‌. खकलभूभारम्‌

प्राडय महान्ति दाचान्यनिशं सर्वस्य तुये कुर्वन.॥७॥

एतेषामेव चक्कर (्रयम)-कम्पराज-सङ्गमराज (द्िर्ताय)-द्‌सिदिर (द्वितीय)

मृषतीनां विजयनगरार्वासराणां खाप्रास्यधुः श्रौमरता चायभार्यन

निपुणमूढेति ग्रां गदितं परायतेऽस्मामिः।

£ द्राविभवकालः एतेषु निर्दिष्टे मृपतिषु वुक्कराजः (प्रवमः) विर ८ं०१८०१ वर्पादारभ्य १४ वं ( १३४४ ईयार्वायवर्पादारभ्य १३५९ वर्य ) यवत्‌ वरिजयनगरावैदादनमटवकनार तत्छनु्रिदर

यशिषच् १८३६ व० (१३५७९६०) वथादारम्य १८५६ तरि०(१३९९६०) वर्धप्यन्दं्॑िशचति वपाथि य्त्‌ १३९२ व्रि ( १३६५ ३०) वर्थ विजग्रनयरस्व स्थायना साथवाचि-

स्यदेशमचखःय श्रीमता दद्र ( प्रथम ) मदराजेन व्िदवितेति षदन्ति दतिदा्रविदः

१० प्रस्तादना

अतः बुक्कदरिहरयोः प्रधानामात्यस्य श्रौमत्सायणघ्य आविभविकालः पश्वदशशतकध्य प्रथमद्धे घमभवदिति नास्त्यत्र नि्विवदि विषये सन्देदस्य कणिकापि काडपि १४४४

[कप

= 3 [क = [4 [१ वकमे सवस्सरे (१३८७ ईशवीये) सायणार्यो दिवं जगामेति कापि जनश्चुतिरपि शरूयते चरम्‌

सायणाचा्य॑स्य चरित्रमुष्टय स्तोकमपि वर्ने चभ््रतं सम्परतं भाति तच्चरति पयार चनं कल्य नास्ति विस्मयकरम्‌ सा सततशाल्नाभ्या घजनिता श्ानपरिपाकसहजा वैदिकतत्वमीमांसा, सा ोकिकभ्यवदारनिरीक्षणससुत्पन्ना राञ्यकार्यमःरक्षमा राजनीतिनिपुणता उभयेर्मिन्‌ विद्वजने सापानायिक्ररण्यं साक्षक्छव्य क्ष्य मानसं विष्मयोल्लसवहुल इत्तिमातयुते ! व्यवदारपरमा्थयोरेकाश्रयलाभो नाम नूं दुभ इव दयेत जगति परन्तु सायणार्ये यादशी परमा्विषये जागरूकता नेन्न गोचरौ. कियति, तादृश्येव लो किकव्यवदरिऽपि चेतश्वमत्कारिणी चतुरता चश्ुर्विषयीक्रियते वेद. भाष्यप्रेतुः सायगणाचार्यघ्य ज्ञानगरिम। नूनं सहनः, परन्तु विपुलतराजेगजसङ्कले समरक्गणेऽपि अरातिवरातविजयस्तस्य कस्य वित्मयावहे नास्ति यमं सायणो विजयनगरपाप्राज्यस्य पूवोविमागस्ये साम्भरतं नछेरितिना्ना ष्यति श्रे . शासने कुवेतो मदहाराजदरिदेरालजस्य कम्पमदीपतरमाव्यपदमलमकारपात्‌ दिर॑ गते तरिमन्‌ रजनि तत्सृनुः सङ्गमभूपालो वालतयाऽनधिगतशचाल्नतया राञ्पकार्यो. ददने नितरामक्षमो वभूव अतः सायणाचार्य एव सञ्गमभुषालस्य फते निखिलं राज्य. भारं वेट स्वीचकार अध्यापयामास पितृविरीनं सक्षमनरेन राजनलादयप- योगिनीः सकला विद्याः वितत्तमपि राज्यं सायणः सम्यक्तया अशाव समरकगगेऽपि स्ववाहुवलपराकमं वैरिणं शिरदेदेन प्रकरीचकार प्रान्तस्थान्‌ दकाथ हुन्‌ जिगाय चम्पनामानं चोरराजं विजिलय दिश्चु स्वीयां भ्रां कीति विस्तारयामाघ “गर्‌ड. नगराभिधानें नगरं सङ्गमनरेन्दरेण साकमाक्रम्य तन्नगराधिपं जिता स्वपादानतपमूधानिं . ग्यदधात्‌ घायणाचा्यं इत्यपि शिललेखस्यम्रशस्तेरवगम्यते स्थ तत्‌ कततान्तजातं "अलषटारसुधानिधिग्निरीक्ष राणां विदुपां सथ एव स्फुरिष्यतीति मवा केचनाऽस्वर्यद. ^ स्तन्नत्याः शोक; प्रमाणत्तयाऽतन उमुदिधयन्ते--

प्रस्तावता ` ११

जगद्धीरस्य जागति पाणः सायणप्रभोः 1 किमिस्येते चथारोपा गजैन्ति परिपन्थिनः >€ < अमुं शमितशा्रवर्थिरमुजावलेपोदयं खमीदय युधि खायणं समधिको भवेद्िस्मयः नखाग्रहतयेरिणो नरदरेदैरस्याथवा नवास्बजदलोल्लसन्नयनमाजद्ग्धद्धिषः १९ २८ 4 खमरे सपत्नसखेन्यं सपय } तव विंस्वितं वहन्‌. खंज्ञः क्रीडति कैटभस्पुरिव विरत्‌ क्रोडे जगत्रयं जरधो 9९ 4 दिश्या दैशिकभावसंभूतमरहासस्पटूविशेषोद्यं जित्वा चम्पनरेन्द्रमु्ितयशाः प्रत्यागतः सायणः] -सायभावचायैविदितसुशासनसम्भूतस्य सारव॑तरिकस्य वैभवश्य निदर्शको्यं रैव विस्मरणायो विदजनेः-- सत्यं मीं भवति दाएसति सायण सम्प्राप्तमोगसुखिनः सकरूश्च लोकाः 1 अथ राज्यभारवहनक्षमे सङ्गमभूमिपतो राज्यधुरं निषुमपारोप्य सौयणो उयायस प्राना माघवाचार्येण सह बुकेकनरेन्रस्य मन्तरिपदमधितचान्‌ अनन्तरं तत्मोःपा. हनः घमुर्ादितो वेदानां भाष्याण्यरीर चत्‌ बुकरस्य निधनानन्तरं तत्सूनोः . दरिदर- महाराजस्यापि कतिचित्‌ समा अमाध्यपदवीमभजत हरिदरनिदेश्ं प्रप्य अथभैवेद~+ सतपथत्राहाणादीनाच्च व्य॒ार्यानानि निबन्धं ! तद्राज्यक्राङे एव १४४४ वै° (१३८७ हैशवीये) केष सायणयेः संस्मरणीयससाः संजातः मन्थाः स्रायणाचाया बहन्‌ प्रन्थान्‌ रचयामात्त तेषां शीपषेण्यत्थानं वेदमाष्याभि भजन्ते ! अन्येऽपि म्रन्थास्तत्तच्छ।खविषये ऽतयुपकारकाः सन्दीति धुवं तदालोचनया प्रतीयते

५:

से स्वै षिरचनकरमेणाधो निर्दिदियन्ते--~

१२ धस्तावनां ( १) सुभाषितसुधानि्िः--नीतिवाक्यातानां सरसः सन्यः 1 कम्प. मदीपते राञ्यकाके खायणेन विरचितोऽयं मन्धस्तद्रन्येषु विरचनक्रमेण प्राथम्यं सजते (२) प्रायश्चिचचदुधानिविः--उमविपाकापरनामयेयोऽयं भायधित्तप्रतिपादन- परे ग्रन्थो धर्मशाल्राभ्यासतिनां खशसुपकारमविहतात्यस्माङं विददाघः

(३) अलङ्क(रखुधानिधिः--तिचित्र एव काव्यालङ्कारपरतिपादनपरोऽयं सायणनिर्मितो म्रन्थः दुमौग्यतया क्नपलो अन्यो नाचापि कुघ्रचित्‌ सषुपलभ्थते अप्तिन्‌ उन्मेषा विलघन्तीति श्रूयते आर नरसिहाचाय॑महोद्यस्य सविधे उन्मेषत्रया. तक एवाप शरम्धो वतते 1 अन्रप्यानि सर्वाण्युदादरणान्यलष्काराणां सायणाचार्य जीवनद्रत्तमवलम्बन्ते इति इतिहासन्ञानां परमं भ्रमोदाप्पदम्‌ वहलद्कारभन्धेषु कवेर. भ्रशरदातुरेव लीवनद्ृताचवन्धीनि -छोकजातानि दशन्तत्वेन सञुपन्यह्तान्युपरभ्यन्ते अत्र तु कवेरेवेति भूयान्‌ विरोषः

(४) धातुच्ुच्धः--पाणिन।यसतमञुत्रल सचते घादुविपेय रोऽतिप्र माभि कोऽयं प्रस्थः सर्व॑ विद्रत्पमाजे जामतिं 1 खोके इयं (माधवीय धादुदत्तिः" इति नाप्ना वियाता वहते, परन्ु सायणाचायं एवास्मा रचयिता माधवावायं इति प्न्धस्यो. पक्रते स्फुरमेक(१)1 त्रयोऽप्यते भरन्थाः कम्पराजसुनोः सङ्क पनरे नर्य राउयकाले व्रि चिता वभूचुरिति तततद्वन्थपुध्पिकाभ्यो धुबमदगम्यत्ते

(५) पुरषायेखुधानिधिः--पु्षायौपयोगिनां पुराणल्यानां व्यासतवाक्यानां धंटकितोऽयं सङ्कदो वुककमदीपतेनिर्देशमनुखस्य सायगार्येण निर्मितः

( ) वेद्‌भाष्याणि-रतेषां विस्तरेण वभेनमत्रे भविष्यति 1

(७ ) आयुर्वद्‌ खु घानिधिः- माधुवदसिद्धान्तनिदशनपये भ्रन्थ एषोऽलष्टार- छधनिघावपि नाम्ना निर्दिश वतैते

( ) यक्ञतन्त्रछुष्ानिधिः--यागानुष्टानविधिरस्य अन्यस्य विषयः ! एष सायणाचयस्य रउनाइ चरमो न्थ हति सगमीयते अप्य रचन। हरिहर (दवितीय) समहारानाधि एजस्य श्ासनसमये सक्लतिति ततयुणि्तो दिदद्धिरनेयम्‌(२) !

(९) तैन मायणपुत्रेण स्ायणेन मनीपिणा

जाल्यया मधवीयेयं ातुढृत्तिर्विरव्यते (२) इति ध्रीमद्रानाभिरानपरमेशवप्दरिदरमदाराज रल तात्राव्यधुर

धरस्य वैदिकमागं स्वापनः चपस्य पस्ायणाचायस्य रेतो वद्नन्नयुपानिधी

भर्तावना १३

सायणनिर्मितानां बद्रूनां पन्थानं पुष्पिकाषु अन्थामिधानेभ्यः प्राक्‌ भमाधर्वायेश्ति पदं समुपन्यस्तं समुपलभ्यते तथा सायणरचिता घातुदत्तिः माधवीयेत्याद्यया

तसपुस्तेऽपि व्याहता लो ऽपि सर्वर व्रिख्याता दद्यते वेदाथेप्रकाामिधानग्रतेद-

[, ^

द्‌ संहिताभाष्यमपि माधवीयेति नात्ना व्यपदिष्टसुपलम्यते प्रत्यध्यायं पुषििक्रायाम्‌(१) } कें खषु हेवुरस्य स्यात्‌? सायमेन पिरचितानां प्रस्थानां साघवीयेति समाख्यया सवत्र प्रचारे रि प्रन्थकाराभिर्मतं समुचितं कारणं भवेत्‌ माधवरेनेष विरचिता इमे भ्रन्थाः इति ऊेचित्‌ माधवस्नायणास्यामुभभ्यामपि पिरचिता इत्यन्ये परन्तु अदुपपत्तिहेतोनाौस्ति ककि. शपि मते बद्धमूलाऽऽस्थाऽर्माकम्‌ तदा किमत्र उपपन्न कारणं भविष्यत्ति वस्तुत. स्तु सायमाचायं एवैषां कतौ इत्यत्र नास्ति केऽपि सन्देदलेशञस्ततद्भन्धस्यारम्भावसान, परीक्षकाणां विदुषाम्‌ माधवेन परोत्वाहित एव सायणो बरन्थ निमान्‌ अरीरचत्‌ वक. महीपतिना माधवाचायं एव वेदभाष्याणासन्येषां अरन्थानां निर्मितो भर्थित भीत्‌ प्रम्तु माधवो नेव तलस्राथेनासुररीचकार वेदभाप्यरचनय प्रार्थितो माधवः राजां भत्यभाषत-ङृतिनामायो समाचुजः सायाणाचायो निखिलं लाला वेत्ति, सव जानाति अतस्तमेव वेदानां व्याद्ातृत्वे नियोजयतु सवान्‌ ! साधवेने्वं प्रप्युक्तो महीपतिः सायणाचार्य वेदानां व्याल्याने नियुक्तवान्‌ अतो भरन्यानममीषां रचनायां माधव एव परमो हेतुः, त्य प्रोत्साहनेव आं कारणम्‌ अतस्तदु पकार भाराकरन्तहदयो यदीमान्‌ प्रन्थान्‌ माधवीयेति नान्न भ्यपदिदेश सायणाचायेः, तर्द नितान्तमौचेत्यमेव साक्षाल्कुर्मः ! काचन ओौचित्यदानिरा्मिन्‌ विषये ऽस्माकं मतेन परिपतति अतः सायणेन विरचितानामपि पुस्तकानां माधवीयेति व्यपदेशो नितरां समुचित एवेति प्रर्यामः तद्र प्रमाणतया केचन प्रन्थस्था एव टोका समुपन्यस्यन्ते पुस्षधथेषधानिधौ --

तं सवेवियानिख्यं तस्वविट्‌ बुदकभूपतिः।

सत्कथाको तुकी हर्षादप्च्छत्‌ सजशेखरम्‌

श्रुतानि स्वन्ुखादेव शाखारि विविघानि

एुखणेपदुखणनि भारतं महासते

#।॥

(१) इति श्रीमद्राजाधिराजपरे र-ैदिकमागम्वतद्-श्रीवीरयुकप्ताघ्राञ्यधुरन्परेण सायणा. ध्ायण विरचिते माधवीये वेदाथप्रकाये ऋकसंदितामाष्ये प्रथमाष्टके प्रथमोऽध्यायः

१४ प्रस्तावनां |

सर्वारयेतानि विग्र गहनान्यतल्पमेधसाम्‌ तस्सादाख्यानरूपाणि सखुखोपायानि सखुवत पुशषरार्थोपयोगीनि व्यास्वाक्यानि मे वद्‌ तस्य तद्धचनं श्रुत्वा युक्तार्थं घुक्कभूपतेः प्रशस्य तं मुद्‌ युक्तो माधवः प्रत्यभाषत अयं हि रतिनासा्यः सायणाचायो भमायुजः पुखणेपपुररेषु पुरषार्थोपयोगिनीः उपदिश बया राजन्‌ कथास्ते कथयिष्यति इति धसाय राजानं सायणार्यमुदैश्चत सायणार्योऽ्रजेनोक्तः प्राह वुक्कमदही पतिम्‌ साधु साधु महाप्राज्ञ ! बुद्धिस्ते धर्मदरिनी घद्‌ामि व्यासवाक्यानि ल्लोकानां हितकाम्यया तेत्तिरीयसेदितामाष्ये-- तत्कशाक्षेणं तद्र पं दधत्‌ बुकमही धतिः छ्मादिश्न्माधवाचार्यं वेदार्थस्य प्रकाशने प्राह चरपति राजन्‌ सायणार्थो ममायुजः सवं वेच्येष वेदानां व्याख्यातृत्वे नियुज्यताम्‌ वयुक्तो माधवायंण वीरघुकमही पतिः , भन्वशात्‌ सायणाचाये' वेदार्थस्य परकाराने ये पूर्वात्तरमीमांसे ते व्याख्यायातिसंग्रदांत्‌ छृ पादुः सायणाचायोंँ वेद्‌ थ' वक्षवुसुयतः वेदभाप्याणां पोवापर्यपरीक्तणम्‌ घायणनि्भितानां खदितापङभाप्याणां पौवापर्यं॑साम्प्रतं परीक्षयाभः | सायणः फधयुजदीयतैत्ितीयसंदिताघ्यायी ब्राहमणो वभूव अतः स्वीयलादतिपरिनितलास्च तेत्तिरीयसंहितायाः मथपे व्याद्यानं चुज्यत एव भन्योऽपि देवरत्र विरसति। अम्य. ितव्येऽपि छगरेदस्य चयक्षप्य मात्रां विमिमीत त्वः" इति मन्त्रेण, शयजुर नतेः" इति याकृतनिवेचनेन भध्वयुवेदस्य यागनिष्पादकःवं योत्यते “एवे सति भव्व्यु.

प्रस्तादना 1 १५

संबन्धिनि युद निष्पन्न यज्ञदरीरसुपजीय्य तदपेक्षिती स्तोत्रशघ्लहपौ अवयवो इतरेण वेददययेन पूते इ्युपजीष्यस्य यजुेदस्य थमत व्याख्यानं युक्तम्‌(१) 1 यज्ञदोऽपि कुष्णञयुङ्धमेदेन द्विविधम्‌ तत्र इृष्णयलुतरेद्य वहष्वपि चाखाघु तैत्तिरीयैव शाखा स्वीय प्रन्थकतुंरभूत्‌ अतः स्वकीयसवेन त्याः प्रथमतो विरचितं सायणेन व््राहुय्रान- मित्ति हेतोस्तैत्तिरीयसंदिताभाष्यस्येव भूमिशा प्रथमतोऽस्मामिप्रम्थेऽप्मिन्‌ निवद्धा 1 अप्या भनन्तरं ऋग्वेदस्य व्याद्यानं विदितं धन्धक्रत्रौ यज्ञवैदभाष्यात्‌ ्ररभाष्यस्याऽऽनन्तयं स्वयमेव सायणो निगदत्ि-- आध्वयवस्य यज्ञेषु प्रोघरान्याहू ऽ्याकृतः पुर यज्ञुवंदोऽथ दहोत्रार्थ्रभ्वेदो व्याकरिष्यते)॥ यलुवेदेन निष्पन्नं यज्ञशरीरमुपरजीव्य तदपक्षितौ स्तोत्रश्ान्रषपौ अवयवौ इतरेण ऋर्‌-साम-बेदद्रयन पूते इति पूषमेषोक्तम्‌ त्र सामानि ऋगधितानि भर्वान्ति अतः साम्नाग्गा्नितत्वात्‌ उभयेमेष्ये प्रथमतः ऋण्ब्याख्यानं युक्तामेति तैत्तिसय- व्याख्यानानन्तरमृर्न्याख्यानं सायगाऽरौरचत्‌ ऋरव्याद्यानातरं तदाश्रितं सामे व्याकरोत्‌ सायणः तथा साममाष्यावतरणिक्रायां(२)-- यज्ञं यज्ञभिरध्वयुनिमिमौते ततो यजुः व्याख्यातं प्रथमं पश्चादूचां व्याख्यानमीरितम्‌ १० साम्नाम्‌ गाध्रिततव्वेन सामभव्याख्याऽथ वरयते अयुतिष्टास्ुजिक्ञासावशादू भ्याख्याक्रमो दायम्‌ ११॥ सामवेदभाध्यादनन्तरं फाण्वस हि ताऽचुकरमेण व्याख्याता 1 कृष्णयज्र्ेदः प्रागिव भयास्यातः अवशिष्टस्य छछयजुष॑दस्य समायातो व्याद्यानसमयः ! तस्य रहितादयी

वेकघति~एक्ना माध्यन्दिनी संहिता, भपरा कण्वघहिता माध्यन्दिनं संहितां तु

सायणात्‌ वषैशतच्रयं प्रगेव भोजे राञयं प्राप्ति आनन्दपुरवास्तव्ये। वेदानिति. .

[59

विचक्षण भाच उव्वटो निं व्यकार्ात(३) अतः, परिशेषात्‌ का्वसंदितायाः

{ १) टृदयतां अन्थस्यास्य १४ पृष्ठम्‌ (२) अन्धस्यास्य ६३ पृष्टे . ` (३) भनन्दपुट-वास्तम्य-~वज्ररख्यस्य चुना गन्व॒साप्यमिदं कपतं भोज शृ प्रशासति

धश्तावना |

व्यार्यानं यज््वेदादिसंदिताग्याख्यानात्‌ परं सायणो निर्मितवान्‌ (१) 1 अथववेदाष्यस्य तु सर्वेषां सदिताभाष्याणां समप्रसाने निर्मितिर्वििता भ्न्ध कत्रैतिं सायणस्य वचनमिदं(२) प्रमाणतेन समुपन्यस्य परीक्षणादश्मात्‌ विरामः व्याख्याय वेदतितयमासुष्मिकफटप्रदम्‌ टेहिकाभुष्सिकप्तङं चतुथं ग्याचिकीषेति १०

ब्राह्मणानां माष्याशि

, खछ संदिताभाष्याण्येव केवलानि विरचितानि वेदराथप्रतिपादनपरेण श्रीमता सायणायेंग, यावत्‌ ब्राह्मणानामपि केषाचित्‌ परपिद्धानां व्यार्यानान्यपि निबद्धानि तन्र प्रथम्‌ सप्यकरस्तेत्तिरयसंदितएया व्याख्यानावसाने सच्छम्बदं तेन्िरीयन्रद्णं तेत्तिसीयमारण्यकं व्याख्यातवान्‌ ऋग्ेदव्याए्यानाव्‌ पू्दमेवानयोन्यष्यानमरो" रचदित्यरमाकं विदवासः स्वयमेव सायगक्तौत्तिरायषंहिताग्याट्यान!ऽऽनन्व्यमनयोः. प्द्यति--

व्याख्याता खुखवोधाय वेत्तिरीयकसं हिता तदूबा्चसं व्याकरिप्ये खुखेनाथविदुद्धे : व्याख्याता सुखवोध्ार्थ तेत्तिरीयकसंहिता 1 तदुव्राह्मणं व्याख्यातं शिष्टमारए्यकं ततः - >€ छगमाष्यानन्तरमेव तदीयं ब्राह्मणे तरेयं भन्थङ्ृत्‌ विद़ृतवान्‌ 1 तथा सामभाष्यात्‌ परं क्रमौचित्यात्‌ तदीयानां सर्वेषामेव ब्रह्मणानां प्राप्तवसरतया व्याद्य्नं निरमि. मीत माघवन्चुजः सायणः अषौ ब्राह्मणाः सामवेदस्येति विदितचरमेव वैदिकान्‌ तेष्व्टमध्य ब्राह्मणस्य वंशा ्यस्य व्याख्यानेपकमे वेदत्नयभाध्याऽऽनन्तर्म तेषां थन्यङदेव स्वीयैरक्षरेः प्रतिपादयति(३) 1 सामत्राह्मगेष्वपि व्याख्याकमः प्रकारमेतमनुखरति प्रथमं

{ १) अन्यस्य १०३ शृं द्रष्टन्यम्‌

(२) भस्य अन्धस्य ११९ पृष्ठे

(२) व्यारयाग्दृग्यजुर्दौ साम्वेदोऽपि संदिता व्याख्याता बरा्मणस्याय व्याख्यानं म््रवतते

प्रस्तावना . १७

(र्)पर्ित्ेस्यपरनामयेयस्य ताङ्यव्राद्यणस्य व्याद्यानं, ततः (र)पद्विश्चस्य, (ड)सामविधानस्य, (४) थार्वैयस्य, (प)दरेवताध्यायस्य) (६) उपनिषद्‌? ख्यस्य, (७) क्षदितोपनिषदिति ख्यातघ्य व्राह्मणस्य स्वत्पक्षराणि भध्यराणि सनेनैव क्रमेण निभितानि चायणाचर्यिः। अन्ते (८) ब्ान्राद्यणस्यापि विरचितं व्याष्ारनं जगतामुपकाराय(१) 1 सरवापयेवैतानि, बुक्कमदीपतौ शासति मर्दी, सःयथाचार्थेण निर्भितिविधययं॑नीतानीति त्ततपुष्पिकाभ्यः स्फुटमेव प्रतीयते ,

समवस्रतिे सर्वेधां प्राह्मणन्याट्यानानां य॒क्रयसुवंदीयस्य श्तपश्चव्राह्मणघ्य ध्याख्याममि दुक्कमद्दपत्तिमूनेदिकमागंप्रवतंकस्य श्रीमदहाराजदरिदिरस्यायुक्नामघ. स्य सायणार्म ग्यरीस्वदिति चतपथमाष्यस्योपोद्धातात्‌ निपुणमवगन्तुं दाक्यते श्य . मिमानि वेदानां रदस्यप्रतिपादक्ठानि प्रन्थरललानि जगतां कल्याणा्थं वेदिकधर्म स्याभ्युदयाय श्रीमता सायणार्येण प्रणीतानीद्यदयो त्य छोक्ोपकारपरं चतः | गम्भी. तरथप्रकटनपरं श्ट पाण्डिध्यम्‌

वेदभाष्याशामेककर्तैलम्‌

सं° १४४३ (ई० १३८६) वैक्रमा्दे विरचिते एक्मिन्‌ शिललेदे दृद्यते यत्‌ श्रीमता वेदिकमाप्रतिष्ठापकेन धर्मव्ह्माष्वन्येन म्रहाराजाधिराज-ध्रीहरिदहेरेण विद्यारण्य. श्रीपादस्नामिनां समक्षमेवाप्रहारदानादिना पुरस्छताः केऽपि वाजपेययाजी नाय. यणः, सोमयाजी नस्टरिः, द्वितः पण्डरिश्येति चये ब्राह्मणाः चदुरवेदमष्य, परवता द्यभिदिताः सन्ति 1 प्रवतकल्वं हि खद कलिभश्चन कायैविशेषे सादाप्यप्रदानं नाम घते माप्यप्रवत्तका एते च्रयोऽपि विद्धद्वराः सायणाचार्यस्य वेदमाष्यप्रणयने सदायक्रा एवामवन्निति शिखखेखप्रामाण्यात्‌ वदवीतिदाप्षपरिश्ीटनपटुः धार नर्सिदाचायमदह्‌ा. धायः(२) ] अन्यच्च ऋग्बेदभाष्ये एकस्यैव शब्दस्य विभिना्टकमन्येषु समुपलभ्यमानध्य द्द्यते मिथो विरुदः केऽपि भिन्नेऽथैः। अमिन्नघ्वेनामिमतस्यापि मन्त्रस्य गोचरीक्रियते विभिन विपर्ययव्रहुलं सयुषनिर्दि्ं॑तात्पय्म्‌ नदि तत्‌ माप्यकदु. रेते चत्ति कदापि छम्भवनामेति ! कः खट सचेतास्तस्येव राब्दस्य एकसिमिन्ेव ्रम्थे भित्र तास समुष्िखत्ि भिन्नक्ठे्वं दि तत्र समुचितं कारणं भविदुमई.

( १) भ्रीटानि बाष्मणान्यादी सप्त व्याख्याय चान्तिमम्‌

वंदाख्यं ब्राघ्यणं विद्वान्‌ सायणो व्याचिकीर्पति

(२) टियन पेन्ध्किरी ( व० १९१६ ) १९ पृष्ठ =

१८ ध्रस्तावना तीति -कतिपयोदाहरणप्रदशेनपुरःखरं साधयितुं सिद्धान्तमिमं प्रयतते डाक्टर गुणे महोदयः(१) श्रीखायणाचायीः विजयनगराधिपमन्तिभ्रवराः बभूवुरिति पूरैमेगोक्तम -

[+

स्माभिः अतः विपुकमाध्यविरचनकमैणि यदि .केचित्‌ पण्डिताः सदायकत्नेन नियुक्ता अभूवन्‌ तर्हिं कामप्यसम्भावनाऽस्माभिः परत्यक्षौक्रियते भवतु नाम केषाचचिद न्येषामपि तच मह र्वपू्े कर्मणि प्रवक्तना, तेनाऽस्माकं कापि सिद्धान्तदानिर्भविदुम- दति निखिलन्यपि भाष्याण्यभिन्नेकतत्प्ेण समुचितैकार्येन चायुस्युतानि वियन्ते इति विमर्ष का्णां नो परोक्षमिति निभयं निगदितुं पारथामो वयम्‌ अत्त एतेषां सवेषां

पु

संदितामाध्याणां ब्राह्मणध्याद्यानानां कतृत्वमेकस्मित्रैव निखिलन्ञाघ्ठषिद्धान्तपारगमे

तत्रभवति श्रीषठायमाचायें निपुणं पैवस्यतौति वदन्तो वयं कामपि विप्रपत्तिप्नि साक्षातङ्मैः ~^ ~> + --------- =

वेदानामध्ययनमकारः!

भय श्रीघठायणाचायाणां जोवनदृततं प्रन्थविरचनं च, सप्रमाणं विस्तरशो निरूप्य तदूविरचितानां व्याल्यानानां सम्प्रतं मादास्यपयौलेकनं वयं घुसाम्परतं प्रतीमः

4 0

तदधुना भारते वव नविधक्पण वेदानां परटनं पाठनं प्रवर्तते भयम वेदनामध्य्‌.

तीरस्ते सन्त्‌, खद प्राचीनपरम्परानिवाहका वैदिका शहइत्यधुना लेकेरभि्धीयन्ते एते खदु विपुलायासेन समप्रौ स्वीयां संहित स्वकण्डस्थितां विधाय, वेदिकमन्त्राणां यद्ोशवारणं कात्वा, वेदानां ्रजुरपरचाराय खदा प्रयतन्ते इति ते सवेषां वेदानुशीलनजुषं षाणां धन्यवादानदैन्ति तेषामेव सुखे सगवन्तो वेदासितष्टन्ति, इति कथने विधते सोचन विभ्रतिपततिः | विहाय सवोणि कार्याणि, उररीकृत्य नपुं स्वाधर्य॑करं परिपरम, स्वील निष्किवनां काचन माधुकरीं कृत्ति, उमधिक्ेन मनोयोगेन, अआद्रणयेन चानुरागेण एते सततं वेदानधौयते अप्यायपयन्ति निजान्‌ विधा्थिन इति कः खट अमीपषमुपक्रारभारं निपुणं निगदितुं शक्नुधात्‌ अहो किमिदमार्थकरं यत्‌ यथा

दाः पूरेः ऋषिभिः सारस्वतततीरमुपा्रर्यद्धरुदातत यदाक्तादेखरपरिदुद्धिपूवकं निष्काम. भाभनाधीयन्ते स्म, त्वे साम्प्रतमपि अकालदावानरवत्‌ पाचानदाल्नाव्ययनपदति दहति वेदेशिके पा्ा्यरिक्षणोघ्प्े, निजं परिचितं धम॑च त्यनत्ति मद्ग्लशिक्षा-

( ) भशुतोष जुविली कमेमोरेशन वाटूम ( भन्तिम माग ) १० ४६७-४७६

प्रस्तावना १९, मण्डिते भारतीये जने, स्वीयोदरपूरणाय सकरमपि सदाचारं निखिलमपि नतिसुज्छ्तय(+ चरणविरहिते प्रजावगै, एते एव विपुलं परिश्रमं स्वीकृत्य शद्धो चारणविधिना वेदान. धायते 1 एतेषामेव सुखेभ्यः शब्दप्रधानानां वेदानां वास्तविकं परिशुद्धु्वारणं श्रोत पार्यते 1 अत एते एव वेदानां रक्षकाः, अमी एव श्रुतीनां धारकाः साम्प्रतं जगति, हति वदतो नितरां भ्रसादति ममान्तरात्मा परग्तु इमे पेदिक। मन्त्रोच।रणमात्रपरा. यणा वेदानां सन्ति अगा इति नितरां - परितापस्यानम्‌ ` तेरच्चायैमाणा मन्त्राः कमथेमभिदधति कैं रदस्य वा प्रतिपादयन्ति इति बहुधा जनन्त्यनेके ग्याकारः णादिशाल्नविसुखा वेदिका इति सपरिसेदमवेदयामः ।`

पेदानां नव्याथमीमातापरकारः

कैरपि समाजविकेषाचरागमेद्धानैषेदानां विधौयतेऽव्ययनं सह परिश्रमेण, साक- मायसिन बहुलेन साम्प्रतं मारतेऽस्मिन्‌ वर्ष घमुचिते मन््राणामष्ययने सि धिलादरा अप्यमी वेदाथैपरिौलने कमपि प्रयज्नमादघानाः सततं द्यन्ते ! परन्तु नितान्तं तान्तमस्माकं चेतो यदिमेऽन्यमतावलम्बिभिः साद घार्मिकवरिवादेष्वेवोपयोगाय कति. पयानां मन्प्राणानेवाथेविचारणपरा बहुघाः सरा्षाद क्रियन्ते तानपि प्रायशो. ऽविचारितोारण्िधेना मन्त्रोच्चारणे कुर्वन्तः सततं कदथयन्ति अतो तक्घिलमपि तःसमजक्ाय जातं वेदायत्तमेवेत्ि वदन्तोऽप्येते खद वेदानां सपुचितरक्षणाय मन्त्राणं पारम्पयविघया परिञचुद्धोच्चारेण बद्धपरिकरा अवलोकय, न्ते एभिरवद्रजनेरमर्थनिषये विदयते भ्वर्तिता एका रतिरपि या तदुक्तेः

५,

सादरं स्वता समुवलभ्यते "आध्यल्मिकपक्षसुररीछ्त्यैव वेदानामथविचारः

+ [७

समुचितः” दति तदीयं मतम्‌ मतमिदं नाऽपूरवम्‌ पूरवैरपि निरुक्तकारादिभिः स्वस्व. ्रन्येषु मतस्यास्य प्रतिपादनात्‌ 1 यस्किन स्फुटमेव वेदा्थपरिशीलनविधौ प्रतिपादिते मतत्रे अध्याद्मिक्पक्षोऽन्यतरः ! अरण्यकोपनिषदादिषु जाष्यासिकं॑पक्षसुररछृ्य मन्त्राणां केषांचित्‌ ग्यारुप्रानं समुपलभ्यते एव, परन्तु ब्राह्मणघ्रन्थानां सेदितावदू प्रामाण्यमनज्गीकुवैन्तस्ते खलु परिशलयन्ति तदुत्रह्मणप्रन्येषूपलभ्यमानामाष्या-

[3

स्मि! सरणिं गृूढायैसम्पजानौ वेदानां समुचिते व्याख्यनि ।-रदस्यचयमण्डिता भग.

२० परस्तावनी |

-षती श्चुतिरनयैव सरण्या-स्वरार्थं प्रकाशयति शाघ्तसिदान्तज्ञषां विदुषां नान्यया कयाच* नेति कथनमपि. नैव समीचीने, विविधार्धपरातिपाद्कत्वात्‌ तस्याः 1 सपरं चामी वेदेषु नवीनानामपि आधुनिकैः पाधात्यविज्ञानवेदिभिः प्राकाद्यं नातानामाविष्ा- राणां धूम्रयान~बायुयान-तडिच्छकटस्वनम्राहादीना नैक कल्पितां सम्भावना, अपि वु वास्तमिक्ठ सत्तां वेदे मन्यन्ते सवेषामादिष्ृताना आविष्डरिष्यमाणातां विज्ञानतस्वानामाकरे बेद एवेति तेषामभिमतं मतमिदावलक्यते एतासिदधान्तमलु " रद्धिस्तैस्तथेव वेद स्याष्याता यथा वै्ानिकानामाविष्काराणां तन्न स्थितिः कयापि रीत्या भरतिपाञेत प्र॒ एषोऽपि सिद्धान्तो नेव ॒विद्रजनमनोरमः रतिरष्येषा नैव इया वेदन्चाल्लरहस्येवेदिनां मनषिणोम्‌ इत्थमेतत्मदक्ितदिशा नेव ` छतीना खारभूतो निगूढतस्वभ्रतिषाद्रोऽथा क्षोदं पथते कात्स्थैन केनापि 1 एभिः प्रति- पादिता मन्त्राय साप्यास्मिकाभासपद्वामेष भजन्ते भतो बेदाथेतत्वजिकषामुन।सपकारा भावादुपे्षयेव वेदायप्रातिपादनविधो रीतिरेषामिति विदुषां विर्वासः

पाथोत्यानां वेदाथांरेशीलनम्‌

साम्भरतं मारतवषाद्‌ वदिरेपि पाषघ्य् देशेषु भमेरिकावूरोपादिष्च देववाणी- शिक्षणपराणां विदुषां मध्ये श्रुयते वेदानां भूयसा अचार शति प्राचीनधर्मतप्वजित्ताघया. ऽप्पूयैमाणान्तःकरणास्ते स्प्हयालवो इयन्त वेदानां सिदान्तपरित्तानाय 1 दरतुकान्तान्त- चेगसे\ऽपि केचन विपशितो वेदानघयते अध्यापयन्ति स्वदेशीयान्‌ वेदेकिरछशच छात्रान्‌ शमेण्यदेशे वेदानामित्थं गोचरोक्तियते भूयान्‌ संस्यथनक्रमः, लक्ष्यीक्रियते प्राकारं सैतो विपुलो बेदश्म्वदो भ्न्थनिचयः! एतेषां देदेक्षिकानामवलोक्य भारतीयानो भाषारिषये घमेविष्षये नितान्तं प्रगाटमनुरागमाखये चकितैरेव भूयतेरस्माभिः। सन्तीमे दूरतरदेशवासिनोऽपि बेदचिन्तनपराः, वयमायोवर्तीयाः स्वधर्मश्हवा. स्वोऽपि सर्तभाषाभिमानवन्तोऽपि वेदायाच॒शौलनदिसुखाः ! देदासुश्छीलनं हि चास भारतीयानां प्रथम कततन्यम्‌ 1 परन्तु तदुपक्लषद्धिः स्वरममन्धसेरकणविषो सििलाद्र. रस्माभिः क्यं स्वदेशस्य, स्वभाषायाः, स्वेघमस्य बास्तविको सभ्युनतिः करणीया स्यादेति चिन्तनं नितरां दुनोति सचेतखां चिन्तान्लन्तानि चेतांसि सस्तु

प्रस्ताचना | २१

एते पाधाल्याः भन्त्रो दनः स्वरतो वर्णतो वा मिथ्याप्रयुक्तो तमर्थमाह इति स्वरमादालम्यवगच्छन्तोऽपि वेदमन्त्राणां कव्दश्रावान्यमवजानन्तः स्वीयेन निकृतोतारभेन तानदो कदुर्थवन्ति अन्यैव च्चन रीतिः वेदानाम्ैविचारणविधवे पैर्ररीकरियते यां द्िष्टारिकल मेयड' 180४९81 2191104 देतिदचकरपद्धतीति नात्रा तद्या" धिनो निपुणं व्यपदिदान्ति पारखीश्चमिचचादिदेदानां पर्मपर्यालेचनथा, भाषाविकनानख पारद्परिकतारतम्यपरीक्षया वेदानाम; समुद्टसति इति पाथाव्यानां विद्वासः एना. मेवावलग्ड्य रपति ते सततं वेदानामर्थप्रतिपादनपरा वियेकयन्ते जनिं केन देवुना श्रीमतां खायणाचायगां भाष्यालीलनवदात्‌ वेदाय कथमपि रन्धभरवेशा धपीतमे गद््यन्ति तच्मवतो भाध्यकारन्‌ , भवगणयन्ति तदूमध्यप्रतिपादितानथजातान्‌ वेदमन्त्राणाम्‌ भषरं तेपामीषि पायालानां वेदारथानुध्याननिरतानां सैव वैदिक. कष्दानामर्थविपमर पेक्यमतमुषगच्छयः। यदि शमण्यदेकीयो छदिर्‌ मदेोद्यो मन्व कस्यचित्‌ कमप्यर्थं वदति, तर्दिं तद्लीय एव प्रा्तमानः अन्यमेवाऽ्पूवैमर्यं प्रतिषाद्‌. यति | दर्थं मोक्षमूकरमध्युग्वानलाचायेतिनात्रं तेशीयानां पण्डितानां वेदस्याथपरी क्षणं नैव जातुचिदेकष्पतां धते एकयैव शब्दस्य विभिन्र्यप्रतिषादन. परा थप्येते द्थानमादालम्यात सन्दमीदुरोधास्च भिन्नमर्थं प्रतिषादयदः श्रीमतो भाध्यक्रारान्‌ कथं दूषयन्तीति निपुणं निभालयन्तोऽपि वथ नेव तत्र वाचोयुक्तौ कि. मष्यीचिघ्यं दें वा स्पुटतरं साश्रल्छुमः। वैदिकपरन्यानां प्रकाशने तेपायुत्ादं परि रम चप्रश्ंघन्तोऽपि, वेदसिद्धन्ततरिपये तेपामना्याकरीं व्याछ्यपृद्धतिं चावलेक्वयन्तो, व्य दयमानेन चकत्तसा, ्यथमनिन हृदयने, स्विपाद्मविदयामो यदेभिः भारतीयर्दद्छतेः परप्रषठहद्धर्वेदानामभ्युदयस्थाने महानेव केऽपि वेदविष्ठवः घम्भ्रतं प्रवर्वितो दयक. ऽरन्वरुदेो भारतीयानां वेदाभिमानिनां पण्डितानाम्‌ प्रायः सवऽपि पाथल्यभिक्षामण्डिता भारतीया एतेषामेव स्वयुष्टणां पथा्यानां सरणिमनुखरन्तोऽवकेोवयन्ते इति नितरां परिविदस्थानम्‌ यदो जत्माकं मानिकं दैन्यम्‌ दो अस्माकीना मनसो दाघ्यव्रक्तिः उथचयं गच्छति पर्यरिके वेदरदस्ययेचिन्तनेऽनैकमले, मगवत्याः तेः भूता- भैपरिक्ञानाय निगृढतस्वाववानाय्र कं ्रापणं प्रनेष, कः त्वस्माकं परमः यध. यो भवेत्‌ को दयुपायः स्यत्‌, किमारम्बनघ्र भवेत्‌ यत समाधरि्यं वयं धनागद्िन जदुनोपयेन वेदाथमबुनिरपि एवेन चन्तरेम च्वतरोपार्थ निपुनं निभा. खयतामस्माकं पुरतः केवटो ह्युपायो तरिलघ्रति ] तु तवरभव्ता धरीघायणाचार्यानां मेदुभाप्यनेव विदराय तत्रैव इथिदन्यः समाधरयोऽप्ताकं दथिपथमवतरति

२२ प्रस्तींवनां |

- पैदखविारः अथ स्वतःभामाण्येन विलघन्तो मगवन्तो वेदाः सन्ति भारतीयानाम्मार धर्वत्य स्ैष्वभूता इति केषां नातपरो्चं॑विदुषाम्‌ तत्न वेदत्वं नाम शम्द्तदुपजीवि-

[8

प्रमाणातिसिकिप्रमाणजन्यश्रजित्यावेषयार्यंक्ते रसा दाव्दजन्यवाकयायक्तानजन्य प्रमागक्ञच्द्स्वमिति तत्वाचिन्तामण्यादिषु न्यायविदो वदन्ति श्शप्राघ्यनिशटपदिदिर योरदीष्कियुपायं यो अन्थो वेदयति वेदः" इति तैत्तिरीयघंदितामाष्यभूमिकायां चायणाचायीः घमामननित वेदत्वं खदु भौकषिकोपायवोधङलं नाम्‌ ज्योतिशेमादिरि" परतिदेपुः कललञभक्षणवयनादिरनि्टपरिदारदेवरियरथः ` ्िमनुमानसदन्ेणापि तारः करिरोमणिन।प्यवगन्दुं पार्यते वेदा एवैषां लेकेत्तरोषायानां केवरं बोधकाः अत एवोक्तसाचा्थः-- भरत्यक्षेणाुमिर्यां चा थस्तूपयो नं बुध्यते | पतं विदन्ति वेदेन तस्मात्‌ वेदस्य वेदता

वेदानां भाचीनभाप्याणि

इथं जगतां कट प्राणपरम्परारिद्धये भाविभूता(नामलेोकिकोपायप्रतिपादकानां वेदानां सवत्र प्र्यातान्य।सन्‌ ्रौढानि व्याख्यानानि प्र चीनकलेऽस्मिन्‌ मासते वव 1 निगूढा" यनां वैदिकानां शब्दानामेव कते कैरम्यचर्यैः निवद्धा भरन्या। निषण्डवो नाम तेपा व्यार्याभू साम्प्रतं पाश्चादेशेपु सविशेषमधीयमनस्य सकृरुष्य भाषावि्ञानस्य मूलभूतं प्रन्थरतरं महर्षिणा वास्काचार्येण प्रगीतं निरुक्तार्यं वेदस्या्थ॑तिचारणायां प्राधान्यं भरायम्यं दथदिवाघुनापि षमुपलभ्यमानं विरानतेतराम्‌ तन्न॒ प्रदार्षता वेदथ तत्वपरिशीरनपद्धतिरेव ज्यायसीति विषये कों नाम विपश्चित्‌ सखन्देहदोलायमानचेत। भवति 1 णस्कनिर्दि्ं ैखीमनुखत्यैव भूयसा स्कन्द्‌ स्वास्यादिभिरनेराचयिः ऋग दस्य, उञ्वटाचायारेभेः डछयजु्ेदस्य, मवष्वामि-गुददेवा दि मिसतैत्तिरीय. सदितायाः, माधव-भरतस्वाम्यादिभिः सापवेदस्य प्रामायिकानि व्याख्यानानि प्ायणात्‌ प्रागेव वपिरचितान्यासन्‌ एतेषां मध्येऽनेक्णां व्याह्यतृणां स्रायणमध्येषु नामान्येवोपलभ्यन्ते तद्रवितानि समग्राणि व्याख्यानानि ! स्कन्द स्वासिरवितं ऋषे दभ्यं गुणविप्णुना निबद्धं कतिपयघामवेदीयमेन्धाणां व्याद्यानमन्यानि कानि. चित्‌ व्याख्यानानि दखाम्भरतं सुव्रितानि सुद्थमाणानि सन्ति, परन्तु विरल्प्रचाराणि बटन नामशतं गता्नाति निकवितरादप्‌ ।.

. श्रस्तादना ! ९३

श्रौनठा चायमाचर्विन विरावितं यव. वेदमस्य तदेव खाम्प्रतमेड ऋय नोपलभ्यते वेदायपस्वियाय जिहानम्‌ इत्यं वेदमन्त्र का उठ अशसौद्‌ पारम्य्यैणेवगचा व्वाख्यानपद्टतिः, ठ्या रोघ्या रिर्य अर्थी वेदभाष्ये एव जाग्रति 1 वेदानामयनिद्वारणे सायणो यास्दाच्िनेव बहुशोऽनु घरति 1 निदे निर्दिष्टानि भायः चर्वग्येव व्याद्यानानि स्वमाध्यम्रन्थे नामर्निदेदयधूंछं खपु दरति

^~ ¢. एय

एवं नाममात्रठामूुपगते निचिटे देदन्याख्यानवाङ्मये, खायणीयवेदमाष्यदेव

# 1

ठयं वेदमन्द्राप्नं दाद प्राचैनाचा्यांभिमतं व्याल्पानमवगन्तु पारयामः इत्ति

तत्त्व श्रीघायगमाष्या्नं चिमपरि गौरवाघ्यदं मादाल्यम्‌ विपे एव वेदायु्चीठन-

तेषां प्धा्मं खादाव्यक्रम्‌ 1

वदार्थस्याचुशीलनपदतिः

[4 = बेदादुीलमं हि नाम मारतीयानां विद्वचनानां प्रथमं कव्यम्‌ वेदानामर्थह्ता- नाय खततमेव मनषिभियहितव्यम्‌ वेदानां दे एव अ्थीः खमु ये एनीवा्हठां

परम्परामदुखरम्ति निद्क्ते परम्परायास्तत्याः स्थिपिं ववभवलेचयानः। तत्रत्या

[>~ अक

व्याद्वानानि भ्रमागःल्यता मजन्दे श्वि निर्विवादम्‌ 1 तानि उडु व्वाद्यानःनि खदु

[3

स्वप्रमाण्याय इति तत्तद्न्येषु बहुदब्दाचामयपररक्तणात स्छुड भविष्यति परम्परा

विरद वेदाय खट कदापि विद्जनेरनुदन्वेवः 1 ““नद्यत्माकं वेदः श्ाङ्न्तलं न्य (3

नान नारदं, येन तस्य॒ मडहबुद्धिमता वठ्वत््रगरतनयालिनापि दिव्यत्नानं विनेव छ्िप्रमाणं व्याख्यानं विद्वाग्राई स्यात्‌ , प्रवतंयेद्‌ निवतयेद्ध व्रन्नादवः ! घमांवमयर्तान्धरियेष वस्तुषु चरवठ्मार्दै विद्धानमेव व्याचक्षाप्स्य प्रामाण्ये उपयुज्यते, पुनदुदधिवासिममात्रम्‌"° इतति

खघ प्रतिपादयन्ति श्रदेवाः श्रःवाङशाच चरणाः अन्यच्च वेदुर्योपद्हय.

भितिदापुराणादीनां घाडय्येनेवौवितेन ऋरतन्यमित्याचा्वागासुयदेच्ः 1 ठया स्मर्यठे-- - इतिदपखपुराार्यां वेदं समुपद्ं येत्‌ 1

वियेत्यव्पश्चुताव्‌ चेदं मामयं प्रतरिष्यति

२७ प्रस्तावना |

सायणमभाष्याणां पाहारम्यम्‌

भारतीयानामितिद्ासं दूषयन्तः पुराणं चान्थजल्पिताभिति वदन्तः पुरषाः वेदानां र्थं तात्तिकमर्थं निश्चयेनावगन्तु समौ भवन्तीति जानीमो वय॒म्‌ सायणाचार्य. विरचितेषु भाष्येषु भ्राचीनायाः परम्परायाः एव साधु संरक्षणं केवरं समुपलभामहे, अपि ठु पृरणेतिहााजुयावि प्रा्चानावयसम्मतं व्या्यानं मन्त्राणां निरीक्षामहे

यथा-

यातव इन्द्र जूज्वुर्नो बन्दनाः शविष्ठ वेद्याभिः

सर दयर्धदर्यो विषुणस्य जन्तोर्मा शिश्नदेवा अपिगु्तं नः

{ ऋग्वेद ५७२१।५ )

इति मन्त्रे खमुपरुभ्यमानं 'शिरेनदेवाः' इति पदं यत्‌ तुलनात्मकमापाविन्तान- वेदिभिः पाशवादयस्तद्धक्तश्च भारतीयैः लिङ्गापूजापरकतवेन व्याख्यायते तत्त॒ भारतीय. चब्दाथीनुशीरनपरम्पराया अज्ञानावेज्ञम्मितमिति विमशषेका तिपुणमवगच्छन्तु ह्यत्र देवशब्दः इष्टदेवतामभिपत्ते, अपि तु यथा “शिश्नोदरपरायणः “शिङनोदरतृपः' ह्त्यादयः शब्दा भत्मम्मरिपुरुषवाचकतया प्रयुज्यन्ते लेके तथैव राब्दश्याघ्यापि व्यवहारः प्रयोगश्च तसिमज्नेवा्थ इत इति परम्परानुक्षालनात्‌ घुष ज्ञातु पारयामः! या्छस्ायणर्भ्यां तयैव अव्रह्मच्या्थकोऽयं व्याष्यातः |

अन्यच दिरण्यगभेसुक्ते कस्ते देवाय हविषा विघेमश्यत्र किं शब्दस्य सायगेन परदश्षितः प्रजापतिष्ूपोऽर्थो त्राह्मणपुराणादिसम्मत एव श्तपथत्राह्मणे किंशब्दः प्रजापतिरूपमर्थममिधत्ते पेतरेयव्रह्मणस्य वृतीयपल्िकायां एतदविषयमार्यान, मपि सशुपलभ्यते लेके पुराणादिषु सर्वस्य करि शब्दः प्रजापतौ वर्तते इति सायणा- भिमतमर्थं परम्पराखम्मतमपि सुधेव दूषयन्तः पाश्वात्यपण्डिता उपेक्ष्या एव येषां खदु सधिभैतिकपक्षावलम्बनमूलक्मेव सायणीयमाष्यविरचनमिध्यक्षेपः ईते जानन्ति यत्‌ स्थलेषु केषुचिद्‌ खायणाचायौ आधिदेविकाध्यासिकपक्षानुषारिणोऽप्यथौन्‌ स्वथं प्रकटीचक्रुः आध्यात्मिकाययविचारपरायणा आरण्यकानि निपुणे परिशीलयन्तु

विचारयन्तु तघ्रार्थान्‌ प्रदर्षितान्‌ वेद्मन्त्राणाम्‌ 1 दृत्यं आचीनपरम्पराषम्मतत्वात्‌ पुरगितिदासालुयापित्वाच श्रीसायणमाष्याणामनुक्षीटने विधय विद्वजनैः

_ _ _

प्रस्तावना) थद

उपरस्य चार्वत्रिके वेदार्थविल्यवे, उपचीयमाने पायात्यवेदक्चाना वेदार्थविपय़ पररस्सरिकेऽनेक्रमत्ये, अनुरति निर्विचारं पाश्या पद्धठिं भारतीये यद्ल्मायामण्डिते विद्वज्जने, श्रीघायणाचार्या एवास्माकं वेदतप्छजिक्चायायां परमः समराश्रयः। एकस्मा परमा गतिरिति निचिन्वन्तो वयं प्रघ्तावनापिमां समप्निं सयामः।

रै,

तै भाष्यमिदं चवदा सर्वया निखिर्वेदमिमानिभिरच्ित्तरेदसिद्ध" न्तपरिष्छरणाय आले चनाविधयं नेयमि्यष्माकमाभदः वेद।यविचारणचगा विद्वज्जना निपुणमि्दं निभाठयन्दु इतति तेषु कपि मदौयाऽभ्रथन। तुष्य मप्यत्नेनानेन ध्री मगवागू

~ 9

कमलापतिः, खफलयत्रु मदीयं स्वान्तस्तोषाय विदितं परि्रमामिमं, उन्मीलग्रु

(न ~

वेदार्थतह्वोन्मेयगाय मभ्रान्तरं प्रातिर्म चश्चुरिति ध्रुवम।याप्महे वयम्‌

कृतत्रताप्रकाणः

अन्ते, येषां सन्मन्त्रणया प्रन्यस्यास्य चश्रोधने प्रदततोऽदममवम्‌ , येषां वेद्‌. शान्नाथानु्ीकनपद्ध्या वहुशोऽदमुपशतो जात्तः, तेषामेव विमख्यिषपानां प्रगल्मप्रतिमा- वतां यततं शाल्नायचिन्तनद्ुवामग्रजकरत्यानां श्रोवदुकनाथश्चमेणां मदयेपन्रार- भारं कैः समुचितः कन्देः प्रकटयामि दति नलं नैव जाने यत्र“हृदवं हृदयेन खद सवदति त्र नास्त्येव कोऽप्यकाश भायाया इति निवेदयति

ग्र शुदा प्रतिपद १९९९१ १६-१२-३९ वेदविदां व्यवदः श्री वख्देव उपाध्यायः का

न्थस्थविषयानुक्रमणिकां (१)

तेततिरीयसंदितामाप्यभूभिकाया विषयानुकरमणी विषय

वेदलक्तणविष्वारः

वेदाधिकारिणः

बेद्भरामारयम्‌

चतुर्विधानि कमणि

नित्यकर्मणो लक्षणम्‌

नेमित्तिकं कमं

काम्यं कमं

निविद्धं कमं

युक्तिदैविभ्यम्‌

सथोमुक्तिः

क्रममुक्तिः

पूव॑कारुडस्यादौ दशंपूण॑मासेटिभतिपादनस्यौचिध्यम्‌ ४८

्रृतेसैविध्यम्‌

दशंपूंमासेष्टिमन्त्राणं च्ेविध्यम्‌

सक्तेपेण त्रयोदशायुबाकगतविषयाणं निदशः

वत्सापाकरणस्य लक्तणम्‌ |

तस्प्राथम्यस्य कारणनिदेशः

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१)

(२) त्रसण्वेदसंहितामाष्यमूमिकाया विषयानुक्रमाणिका

श्भ्यर्हितसवादगेदस्यैवादौ व्यार्यानञुचितमिति पूर्पक्तः १२--१४ यज्ञानुष्ानाथत्वात्‌ यजुवेदस्यादी ग्याल्यानमिद्युततरपक्तः २२--१४

षेदलक्षणचिचारः १४ प्रमाणएलन्तणम्‌ १५ वेदसद्धवे प्रमाणाभावः इति पूरवपन्तम॑धिकध्य

वेदमन्त्राणामथौनववोधकत्वम्‌ १६

वेदमन्त्राणां सन्द्श्धा्थंबोधकलवम्‌ १६

[

विषय वेदमन्त्राणां विपरीतांथंबोधकत्वम्‌ वेदमन्त्राणां व्याघाताय॑स्वम्‌ वेद्ैनतराणासधि्ताधेत्ोधकलम्‌ वेदस्य लक्तणप्रमाणएनिणय ~मन््रभागस्य प्रामाख्ये जमिनिसून्राणि विधिभागस्य परामार्ये जेमिनिम्तम्‌ ्थैवाद्भागस्य प्रामाश्ये जेमिनिमतम्‌ वेदेस्यापौरुषेयत्वसिद्धिः मन्त्रस्य लक्तणम्‌ ब्राह्यणस्य लक्तणम्‌ मन्त्राणां तेविध्यम्‌ वेदाध्ययनाधिकारः वेदाध्ययनस्य फलम्‌ वेदाथ॑ज्ञस्य प्रशं वेद्शब्दनिवचंनम्‌ दस्य वेदत्वम्‌ वेदस्य विषयभ्रयोजनाचनुबन्धचतुष्टयस्य निरूपणम्‌ वेदस्य विषय वेद्स्यः प्रयोजनम्‌ वेद्सम्बन्धविचारः अपरविद्यौरूपाणां वेदस्य षडद्वानां ससुदेश शित्ताया लक्तणएप्रयोजनपुरःसरं सम्यङ्निरूपणभ्‌ करपस्योपयोगादिप्रदशनपूवकं निरूपणम्‌

व्याकरणस्य लच्षणनिद्‌ शयुखेन प्रयोजतविटषाणां विस्तरशः

प्रतिपादनम्‌ निरुक्तस्य प्रयोजनम्‌ .निरुकतस्थविपयाणां कास्स्येन विवेचनम्‌ .छन्द्सः प्रयोजनोपन््राख ^ ऽयोत्तिषस्य प्रयोजननिद्राः पुराणान्यायादिचतुदंशविद्यास्थानानां वेदाथंन्नानोपयोगित्वमं वेदचिदाग्रहणेऽधिकारिविशेप

[व

४९ ४९ ४९--५० (१०--~ ८५

५१--५५ ५५ ५५५६ ५६--9 ८५9 4. ५८--५4९

(३) सामवेदसदहितामाल्यवतरागकायाः विषयान्‌कमणीं

वषय पठ, मङ्लानचर्यप , - ६३ च्रध्व््वादिकतन्वप्रदिपादकमन्तरस्यार्थयोजनम्‌ ६४ मन्त्रस्य लचेस॒मर्‌ ६४--&५ ब्राह्मण्य लक्षणम्‌ ६५--६६ मन्तरविरेषाणां लक्तणानि ६६--&७ रथन्तरशब्दचिषपरम्‌ &७ ` खामशब्दत्य गानमात्रवाचित्वग्रविपादनम्‌ ६७--&८ श्क्षरविकारादीनां सामनिष्याद्‌कल्ववंणनम्‌ ६८ स्वोमस््.लक्नणनिरदेशः ६८--६९ गान वण्दधोपादीनां विषयाणं व्रिचारः ६८ ` दरराशब्दत्य गाचविघानम्‌ ६९--७० ` -ख्ान्नां देवतास्ुतिदतुस्ववर्णनम्‌ ७० साम्ना्चः प्रवि संस्कारकत्वव्यवस्था ८--७१ उद्प्नन्थस्य द्पेवत्वापौरेपेवत्वविचारः ७१--७र्‌ एकं साम चे क्रियते स्वोत्रियमिति विधानमूलक्ो चिचारः, चे करणप्रकारच्च ७य शरलेश्चत्रिषयको विचारः ७२ छन्दःस्ययोरत्तरास्ययोवा छचोरुद्भनमिति विचारः ७२--७ त्र॑शोखामोदनविचारः ७३ विमच्छन्दस्कयोख्तरयोगानग्रकारः ७्-५\ वहतीविष्टारपङ्क््योः प्रप्रयनविनेवेण द्वयोद्रहत्योः सम्पादनम्‌ ५५--७६ पड़भिगायत्रीभिस्िखणं जगवीचां सम्पादनादिक्म्‌ ५७--७८ पादृग्रत्रथने विचार ७८ यद्योन्यां वदुतच्स्योगोयतीति विंधानमूलक्ो विचारस्तथाकर्ण- ग्रकरन्र ७९ उत्तरयोः स्तोभातिदेशकथनम्‌ ७९ सामवेदिनां साम्नवानुष्ठानकतन्यतानिरूयणम्‌ ८० प्रादिषु घमंसाद्यं चिन्तनम्‌ चहद्‌-स्यन्वस्योवम ससुचयकथनम्‌ ८०--८१ प्रशब्दस्य वदिकनामथेयत्वकथनम्‌ ८१ त्िघ्रत्‌ः इति शाब्द्विषयको विचारः ८१ चित्राशब्द्म्य नानधेयत्वनिणंयः ८१--८र

वदिष्पवमानश्दादीनां नामयेयच्वनिणंयः ८२

विषय , तिवरदादिस्तोत्राणां खरूपनिरूपणम्‌ ८२-८

ृष्ठादिस्वोत्राणं प्रधानकमंतवनिणयः रेवतीषु ऋषु वारन्तीयसामगानप्रकारवोधनम्‌ निधनविशेषाणां छाम्यल्वकथनम्‌ सोभरसामसवरूपम्‌ निधनलक्षणम्‌ सामगाने उच्चैसस्वनीयैस्वधमंविचारः ८६--८ श्राधाने वामदेन्थादीनसुपां्चगेयत्वनिणंयः एकविंशादिस्तोत्रविचार ८७-८ वहिष्पवमानानां वेविध्यम्‌ . + श्रावापोद्रापविचार श्राचापलहणम्‌ ८‹ उद्रापलक्तणएम्‌ ८‹ अन्यशब्दस्य सब विष्यतक्थनम्‌ ` सवेपृष्ठातिदेशनिणंय ८९--९। स्रसाभविकारचिन्तनम्‌ ९। श्लोकादिसाम्ना आब्यपृछठदिस्तोत्रस्य सु्चथनिणयः ९। कोौत्सादिसाम्तः प्राकृतवाधकत्वनिणय तच्रव विशेषव्यवृस्था स्तोत्रबद्धयब्द्धयोः प्राकरतवाधकत्वनिणय छ्दोनिशेषत आवापकथनम्‌ ९३ कण्वरथन्तरं स्वयोनाविवेति निधौरणम्‌ ५२--९३ पृश्वविशे तु विशेषन्यवस्था ९३ तिद्धष्विति अरिमचचन्यवस्था ९३--९९ एकन्निकक्रतोवंणेनम्‌ ९३ धूगौनस्य एकस्याचि कतन्यत्वमिति निणय ९९४ श्रागमात्‌ स्तोमवधनप्रकारनिदेश ९४ वहिष्पबमानच्रद्धौ ऋच आगम ९५ एकस्य साम्तस्वरचे गेयल्रनिणयः ९५ स्वदृकशब्द्स्य मीलनाचधित्वकथनम्‌ ९५--९६ बरहदूरथन्तसयोविमेदेन प्रयोगनिणय ९६ सनरस्य यथोक्तदेशे विहितत्वनिणय ९६--९७ हेरूपवैराजग्रोरक्थ्यपोडशिप्रष्ठगतखनि्णय ९७ रिब्दग्नषटूति चरिदरतूशब्दस्य स्तोत्रत्वनिधास्णम्‌ ९७

ससवादः प्र्रव्वाचणय ९५--९८

५2

विषय धर घृददूयवखादिसाणां नियत्तव्वकथनम्‌ ९८ मरहसान्नो विकर्पितद्वकथनम्‌ ९८ पयग्निकरणे व्रह्मसाम्न उक्तपविधानम्‌ _ ९९ साम्नामृगाश्रयलात्‌, व्याद्यानयोग्य्वप्रतिपादनम्‌ ९९--१०० मन्वस्थानुस्मरणत्वनिर्णयः . १०० अरन्त्रप्थौनुस्मरणत्वविषये गुरुमतचिवेचनम्‌ १००

(४) काण्वसंहितामाप्यभूमिकाया विषयानुक्रमणी

मङ्गलाचरणम्‌ १०३ वर॑शघ्राद्मोपक्रमः १०४ ्युक्लयनुर्वेदस्य शाखाविषयको विषारः १०४ काण्वसंहितेत्यमिधानस्यार्थनिहपणम्‌ १०५ शछाध्यायोऽभ्येतन्यः इत्यस्याथैविचारणायां प्रभाकरमपो-

पन्यासः १०५--१०६ पूवक्तिस्य प्रभाकरमतस्य समीत्ता १०६--१०० साध्यायाघ्ययनस्य ष्ठा्थीदष्ठाथले शाङ्करदशानानु सारि मतम्‌ १०७--१०८ एतद्विषये भद्टगुरुमतयोरुपन्यासः १०८--१०९ वेदस्य विपयविभागनिरखूपसम्‌ १०९-- ११० कर्मकारडस्य व्याख्यानप्राथम्ये योग्यत्वविचारः ११० यचुरवेदस्याध्यायृगतू वरपयाः ११० संहिवारम्भे दुर्शपूणंमासेष्टिनिरूपणस्य जचित्यविचारः १११ मन्त्रस्य सामान्यलक्तएनिरूपणम्‌ १११--११२ ऋगादीनां त्रिविधानां मन्बाणां विशतिष्टलन्तणनिर्देशः ११२

मन्तराणामलु्टेयाथंस्मारकत्वप्रतिपादनम्‌ ११३ मन्त्रा्थक्ञाने ऋपिच्छन्दोदेवतान्नानस्याऽऽवश्यकल्वम्‌ ११३--११४ दशंयागात्‌ पूर्वं नियमेन विधेया अनु्टानविधयः ११४--११६

© 2 [> [१

अथवर्वद्नाध्यसरूर्यकावाः वचयानुक्रमणा

म्भः णम्‌ ¢ ऋछग्यज्ुःसामवेदैरेव सिद्धखात्‌ श्रथरव॑वेदस्य नास्त्येव त्रकांेति पवः पत्तः ११९--१२०

त्द्यक्तभ्यप्रतिपादनतासर्यतया भवत्येव ्राकाङ्न्ता ल्याष्यानयोभ्यता चाधववेद्स्यद्युचरः पक्त १२०--१२२

विष्य यदेवेदस्यापत्रैदनिशू्पणय्‌ [य्‌ [ब्‌ (1 प्युयदर्वदेस्य पुराणखाद््मु प्रङसाक्दचचप शल्वाघ्यायोऽभ्येवन्यः' इत्यत्र च्च्य वागन्धवा अथेमादनायाच्च स्वस्प्म्‌ भावनायाः चामान्यलत्तएनिद्पणम्‌

'सछाव्यायोऽव्येवन्यः इयत विश्वज्निरन्यायेन स्वग एवाव्य यनदिेर्माञ है है यनविवेमा्यः इति पुवः पत्तः को = 4 = इष्टभ्रयोजनोऽ्याीववोव ए्रुव्राघ्यवनविवेभोव्यः इयुत्तर पत्तः १२ स्वन्वाचव्ययनवियी . प्ामकिरमतद्योपन्याद्ुरःस खरडनम्‌ ` १२्‌ दस्य खतः प्रामाण्यमिति चि द्रान्वविषयेऽमियुक्तनां तरितिवाः तिग्रविपत्तयः ऊ." अः 3} [1 [] श्रामारयसम्रामास्यं चोभयं खतः, इति सांद्यानां सतोपन्यासः

पुत्राख्त्य साद्यसत्रस्य चमा श्मप्रामाण्यं सरतः म्रामास्यं परतः, इति सांगतसततिर्पणम्‌ १३८ खांगतमतस्य निरासः १३

च्रप्रासारवं प्रामार्वं चोमयं परतः, इति तारखिकमतम्‌

श्रामा्यं खतोऽग्रामारयं परतः इति .मीमांसक्रानां {सद्धान्त १३

वेदानामपोखपेयतम्ररिपादनम्‌ | विर्द्मवखरडनपृ कतं शब्दस्य नित्यत्वसिद्धिभ्रकारः ^त्फोद एव नित्यः शव्दः इति ग्राद्दिकराना मवोपन्यास्ः १३६. श्नाच्दिकमवनिरास्ः - १३५. श्रयवंवेदन्याख्यानस्य तरयीव्याख्यानानन्वयापपादनम्‌ श्नयवेषेदस्य शाखात्रिषयक्तो विचारः १२८ कोशिक्पुत्रादिवानां चयववेदपरतिपराथानां :-कमयां करमेण

नामाल्संखः १३९- वंतानवुत्रविदिवानि तह्यादाना क्मोणि

लक्तत्रकत्पो्ानि कमाणि आआ्विस्तक्लसे यदिवानां कमणां मायाम्‌ शान्विकल्योदिवानि कमणि राञ्चामिपेकोपु् चतुष्ठानतिधच निर्यनेमिचिक्ान्यभेद्रेन कमणां बेविभ्यम्‌ प्ायत्रसक्नमसामाज्यतन्त्रपाकवन्वेति मेदान्‌ दविव्यप्रतिपादनम्‌

ल-त

--- --

दन

छरः्णयज््वदान्त्मतायाः १५. कस [4 (> ४९ तेन्िरीयसीदितायाः मायणाचा्यच्रता माप्यश्रमिका

'कृष्णयजुवेदान्तगतायाः | {~ # त्तिरीयसंहितायाः

सायणाचार्यछता भाष्यभूमिका

-- "श

वागीशादयाः सुमनसः सवाथानामुपक्रमे

यं नत्वा तशृत्याः स्युस्तं नमामि गजाननम्‌ १॥ यस्य निःऽ्वसितं वेदा यो बेदेभ्योऽखिलं जगत्‌ नि्म्ममे तमहं वन्दे विद्याती्थैमहेश्वरम्‌ २॥ यत्कटाक्तेए तद्रपं दध्‌ वुकमही पतिः \

श्रीमङ्गलमूतेये नमः

( १) सम्प्रदायमेदात्‌ लाखाबाहुस्यं वेदस्य यथाह महामाप्यकारः पस्पशाहिके-“एक- कतमध्वयुशाखाः, सहखवत्मा सामवेदः, एकविशतिधा वाहच्यम्‌ नवधाऽथवेणो वेदः” इति, ष्णह्चत्वभेदेन यञुवदान्तरगन्तशाखाशतस्य द्वैविध्यम्‌ तत्

आध्वथैवं कचित्‌ ह्रं कचिदित्यन्यवस्थया ! बुद्धिमारिन्यदेत॒त्वाद्‌ यजः कृष्णमितीेते

टृष्णयज्दूसंहिताया भाग्यं सैप्रथमं निबवन्ध तव्रमवाचू सायणाचायैः यथोक्तं तेनेव ऋण्येदभाष्योपक्रमणिकायाम्‌-

'ञआध्वर्मवस्यं यज्ञेषु प्राधान्याद्‌ व्याङृतः पुरा 1 यजुैदोऽथ हौत्रा्द्गवेदो व्याकरिष्यते, इति तैत्तिरीयदाखाध्यायित्वात्‌ तस्य तस्या व्यातौ प्रथमा प्रवृत्तिरिति वोध्यम्‌

( ) इतः पूर्व॑ केषुचित्‌ पुरुतकेषु रत्ोकपच्चकमधिकं दर्ये तदू यथा-- गजवदनमचिन्त्यं तीष्णद्न्तं च्रिने्ं बरहदुद्रविशोषं मूतराजं पुराणम्‌ अमरवरसुपूज्यं रक्तवर्ण सुरेशं पट्पतिसुतमीं विघ्नराजं नमामि

मूखाधारे चतुष्पत्रे पद्‌ मकिंजल्करोभिते

दाडिमीउखुमप्रष्ये तरुणादित्यसत्निभे

भगाख्ये कुण्डरीचक्रे पूजयेत्‌ परमेश्वरीम्‌

अंङ्ुशं चाक्षसू्रं पारायुल्तकधारिणीम्‌

स॒क्ताहारसमायुक्ता देवीं ध्यायेच्चतुभुजाम्‌ कपिरुसय्सुद्चतकणेमभरीन्दिनाक्षं विवरतनदनविदुजिहसुतफुररनासम्‌ अरिद्रकरयुग्मं योगपदाङ्जातुस्थितकरमर्णाडभ्रि श्रीमुसिहं नतोऽस्मि नमामि विष्णुं विधियदरूणं सरस्वती चापि तदीयज्िह्ठाम्‌ ्रेविब्रदधान्‌ विदुषो ग॒र्च बोधायनाचार्यपदद्रयं

श्षायणाचार्य्ता

आदिशन्माधवाचा्य्यं वेदार्थस्य प्रकाशने २॥

१स प्राह सुपति राजन्‌ } सखायसार्यो ममायुजः सर्वं वेच्येष वेदानां व्याख्यातृत्वे नियुज्यताम्‌ ॥-४ इट्युक्तो माधवार्येस वीरवुक्रमही पतिः।

अन्वशात्‌ सायणचायं वेदार्थस्य ग्रकाशने ये पूर्वोत्तिरमीमांसे ते व्याख्यायातिसखदु्रहात्‌ कृपालुर्माधवाचा्यां वेदार्थं वक्तुमुद्यतः बराह्मणं कस्पसूे ढे मीमांसां ज्याङूति तथा 1 उदाहत्याथ तैः स्ेरमन्ा्थैः स्पष्टमी््यते

. नय कोऽयं वेयौ नाम, किं तल्लत्तणम्‌ के वास्य विषयभ्रयोजनरः म्बन्धाधिकारिणिः, कथं वा तस्य परामार्यम्‌ ? खस्वेतस्मिन्‌ स्वस्मि खति, वेदो व्याख्यानयोग्यो भवति अनोच्यते } दष्प्राप्त्यनिष्टपरिहारयो रलौकिकमुपशयं यो ग्रन्थो वेदयति वेदः अलोकिकपदेन भत्यक्तानुमा ने व्यावत्येते ! अयुभूयमानस्य खक्चन्दनवनितादेरिष्टभरासिहेतुत्वं, ओषध सेवादेरनिष्टपरिहारदेतत्वश्च भत्यक्ततः सिद्धम्‌ स्वेनाद्धभविष्यमाणस्य पुरुषान्तरगतस्य तथात्वमनुमानगम्यम्‌ 1 एवं तहिं भाविजन्मगतसुखा दिकमपि अनुमांनगम्यमिति चेत्‌, 1 तद्धिश्ेषस्यानवगमात्‌ 1 खल ज्यो. तिष्रोमादिरिष्टरासिहेतुः कलस्मत्तणवजनादिरनिष्टपरिहार्देतसित्यसुम्थ चेदग्यतिरेकेणायुमानसहखेणापि ताकिकशिसोमरिरप्यवगन्तुं शक्तोति तस्मादलोकिको पायवोधको वेद इति लक्षणस्य नातिव्याप्तिः

अत एवोक्तम्‌-- '्रत्यत्तेणायुमित्या वा यस्तूपायो बुध्यते एतं चिदन्ति वेदेन तस्मराद्ेदस्य वेदता ॥? इति एवोपायो वेदस्य विषयः) तद्दोध एव प्रयोजनम्‌ तद्धोधार्थी अधिकारी तेन सह उपकार्योपकारकभावः सम्वन्धः नन्वेवं सति शी- द्रसदहिताः सवे वेदाधिकारिणः स्युः, इटं मे स्यादनिष्टं मा भूदिति आशिषः सार्वजनीनत्वात्‌ मैवं, सखरीशद्रयोः सत्युपये वोधाधित्वे हेत्वन्तरेण वेद्धिकारस्य ्रतिवद्धत्वात्‌ 1 उपनीतस्यैवाध्ययनाधिकारं ब्रुवच्छाखमनु- पनीतयोः खीश्द्धयोकेदाध्ययनमनिष्टप्रातिदेदुरिति बोधयति कथं तर्हि तयोस्तदुपायावगमः, पुराणादिभिरिति ब्रूमः अत पवोक्तम्‌- स्रीशदधदधिजवन्ध्रूनां चयी श्चुतिगोचया इति भारतमाख्यानं मुनिना छृपया रतम्‌ ( भागवत १।४।२५ ) इति

( ९) रतव. दटोक्टटयं चित पुस्तकेषु ददयते

तेत्तिरीयसंहिताभाप्यभूमिका 1

तस्मादु पनीततैरेव चेचरिकैरवे दस्य सम्बन्धः 1 तस्परामत्यं त॒ बोधकत्वात्‌ स्वत एव सिद्धम्‌ 1 पाँरूपेयवाक्यं तु बोधक- मपि सत्‌ युख्यगतच्रान्तिप्रलत्वसस्भावनया तत्परिहाराय म्रूलभ्रमाणमपेत्त- ते, तं वेद्‌: तस्य नित्यत्वेन वक्वरदाषशङ्धाचुदयात्‌ एतदेव जंमिनिना सृथितम्‌-““तस्माणं वाद्ययणस्यानपेक्तितत्वात्‌? ( मी० १।१।५ ) उति 1 ननु वेदोऽपि कालिदासादिव््यवत्‌ पोँरुपेय एव ब्रह्मका्स्यत्वश्रचणात्‌- “च्चः सामानि जक्निरे 1 छन्दांसि ज्लिरे तस्माद्‌ यद्यु; तस्मादजायततः ( १०।६०1& ) इति श्तेः अत एव वाद्रायणः “शाखयोनित्वात्‌” ( ये० १।१।३ ) इति सत्स ब्रह्मणो वेदकारणएत्यमवोचत्‌ मेवं, श्चुतिस्पृतिभ्यां नित्यत्वावगमात्‌ वाचा विरूप नित्यया” इति श्रुतेः ( ०८।७५।६ ) “अनादिनिधना नित्या वागुत्खृष्रा स्वयम्भुवा” इति स्तेश्च 1 वादरयणोऽपि देवताधिकरणे सूत्रयामास ! “अतत एव नित्यत्वम्‌?! ( बे० १।२।२& ) इति तदि परस्परविरोध इति चेत्‌ , नित्यत्वस्य व्यावह्यरिक्त्वात्‌ 1 खण्ररूटुष्वं संहारात्‌ पूवं व्यवहारकालः, तस्मिन्युर्प- त्िचिनाशादरश्नात्‌ ! कालाकाशादयो यथा नित्या एवं वेदोऽपि व्यवहार

( ¡ "ऊौत्यत्तिक्रस्तु गव्दस्यार्थ॑न सम्बन्धस्तस्य कानोपदैवोऽन्यतिरकश्चा्थऽनुपलक्ये, तत्प्रमाणं वादरायणस्यानपक्षितत्वात इति सम्पण" सुत्रम्‌ तत्रेदमित्थं व्याख्यातं रावर्‌- स्वामिया स्वभाप्ये-“आंत्पत्तिक इति नित्यं व्रूमः 1 उत्पर्तिहि भाव उच्यते ठक्षणया 1 अ- नियुक्तः श्दार्थेयोभावः सम्बन्धो, नोत्पन्नयोः पश्चात्‌ सम्बन्धः _ अीत्यत्तिकंः रष्ठस्याथनं सम्बन्धः, तस्य अधिदहोच्ादिर्श्चणल्य धर्मस्य निमित्तं प्रत्यक्चादिभिरनवगतस्य कथम्‌

उपदे हि भवति उपदे इति विरिष्टस्य दल्टस्योच्चारणम्‌ अव्यतिरेक्छ क्तानस्य नहि तदत्पन्नं जानं विपर्चति, तच्छ््यते वक्तुम्‌; एतदेवमिति यथा भवति-यथा विक्नायत, तथा भव्रति-तथेतत्न विक्तायते, तथरेतदित्ति अन्यट्स्य ह्ये, अन्यद्‌ वाचि स्यात्‌] पच वदतो विरुद्ध मिदं गम्यत अस्ति नास्ति वेति, तस्मात्‌ तत्य्रमाणमनपश्चत्वात्‌। नहि पं सति प्रत्ययो ह्यसौ ! वादरायणग्रहणं वादरायणस्तरेदं मतं कीर्त्यते वाद्रायणं पूजयितुम्‌ , ना- त्मीयं मतं पयुदासितुमर ।*

( २, ) तदिदमेव व्याख्यातवन्तः श्रीय्करभगवत्यादाः--महत चग्वदाद्‌ः शाखस्यानेक- विधास्थानोपत्रंहितस्य प्रदीपवत्‌ सर्बाथवयोतिनः स्वेजकल्पल्य योनिः कारणं ब्रह्य नदीददा-

गाखास्यर्चदादिलश्चणस्य सवदगुणान्वितस्य सवेकादन्यतः सम्भवोऽस्ति

( ) तस्मे नूनमभिद्यवे वाचा विरूप नित्यया व्रप्णे चोदस्व सूद्टुतिम्‌

^“ विरूप नानास्पे तन्नामक महपं त्वं तस्मं सिद्धायामिदवेऽभिगतवक्तये वृष्णे वपकाया- भ्ये नित्यया उत्पत्तिरहितया चाचा मन््ररूपया सुषि नूनसिदानीं चीदस्त स्तहीत्यवसरपि आत्मानं रवीति यजमानो होतारं वा विरूपम्‌? इति तत्रत्यं सायणभाप्यम्‌ 1

( ) अत एूव नियतताकरतेर्देवादेजगतो वेदरशन्दप्रभवत्वाच्‌ वेदद्राव्दं नित्यत्वमपि प्रत्येत- च्यमिति श्ञाद्भरमाघ्यात्‌

. . {खायणाचा्यङृता .

काले कालिद्‌ासादिवाक्यवत्‌ पुरुषविरचितत्वाभावान्नित्यः आदिष्ट तु कलाकाश्दिवदेव ब्रह्मणः सकाशद्ेच्योत्पन्तिखख्रायते ! अतो विषय- भेदान्न परस्परविरोधः ह्मणो निर्दोषत्वेन वेदस्य वक्तदोषाभावात्‌ स्वतस्सिद्धं प्रामाण्यं तद्‌ वस्थम्‌ तस्माल्लत्तणपरमाणखद्धावाद्िषयप्रयोजन- खम्बन्धाधिकारिखच्वात्‌ भ्रामाख्यस्य .सुस्थत्वाच्च वेदो व्याख्यातम्य एव -यथोक्तविपयादिसद्धावमभिप्रेत्य- “स्वाध्यायोऽध्येतज्यः' ( तै० आ० २।१५ ) इत्यध्ययनं विधीयते 1 पाठमाचस्याभ्ययनशब्द्‌ बाच्यत्वेनार्थांववोधस्या- विदितत्वादधेदव्याख्यानमयुक्तमिति चेत्‌ , विधेर्बोधपर्यवसायिस्वात्‌ पतव्च भट्गुखुमतायुखारिमिवेडध प्रपञ्चितम्‌ आस्लायते च--

"यद्धीतमविज्ञातं निगदेनेव शच्यते |

नभ्नाचिच शुष्कैधो तज्ञ्वलति कर्दिचित्‌"'

"स्थाणुरयं मारहारः किलामूत्‌

अधीत्य वेद्‌ विजएनाति योऽ्थैम्‌

-योऽर्थ्न इत्सकलं भद्रमश्येते

नाकमेति ज्ञानविध्रूतपाप्मा ( नि० १।६ )

धब्राह्यसेन निष्कारणो धर्मों षडङ्ने वेदोऽध्येयो ज्ञेयश्च इति एवं तिं ज्ञानस्य परथग्विघानाद्भ्ययनं पारमाच्रसिति चेत्‌, अस्तु नाम, वणेयन्त्येच शाङ्करदशेनालुसारिणः

तविधिभिरेवायचुष्ठानान्यथादपपत्या वेदाथज्ञानस्य पापितत्वान्नेतद्धि- श्रेयमिति चेत्‌ , तरिं तद्विधिवलद्धेदनमाजरेण स्वतन्वं किञ्चिदपून्व॑मस्त श्रुयते द्यनुष्ठानक्षानयोः स्वतन्त्रं पथक्‌ फलम्‌--

“सवं पाप्मानं तरति तरति न्महर््यां योऽश्वमेधेन यजते चेनमेवं येद" इति

अदपप्रयासखाध्येन वेदनेन तत्सिद्धौ बहायाससाध्यसयुष्टानं व्यर्थं स्या- दिति चेत्‌ ; तरणीयाया ब्रह्महत्याया मानकिककायिकस्वादिभेदेन तार- तम्योपपर्तेः मनसा सद्धल्पिता वाचभ्यञुज्ञाता चा परहस्तेन कारिता स्वयं कृता पुनः पुनः कृता चेत्येवं तारतस्येनावस्थिता बरह्महत्या अनेकविधा अतस्तरणमप्यनेकविधं यथा स्वर्गो वहुविधस्तद्धत्‌ 1 “भ्चिदयोजं जयात्‌ स्वर्गकामः, "दूर्धपौरमासाभ्यां स्वर्गकामा यज्ञेत"“उयोतिष्ोमेन स्वर्गकामो यजेत? इत्याद्युचावचकम्म॑णामेकचिधपफलासम्भवात्‌ स्वर्गो बहुविधः यत्त॒ करम्माचष्ानकालीनं वेदनं तत्कमफल एवातिशयं दर्भयति “उभौ करतो यश्चेतदेवं वेद्‌ यश्च नं वेदं” इति विद्धदविद्धतूपमयोगो पस्तुत्य, “यदेव चिद्या करोति तदेव वीर्यवत्तरं भवतिः” दत्याश्नानात्‌ अज्गोपारसितिविषयरेतद्धा- क्यमिति चेतत्‌ , स्यायस्य समानत्वात्‌ असिति दस्यार्थस्योपोद्टलकं लिङ्गम्‌ धजापत्तिः किल सोमयागेभ्योऽव्वांचीनानघिद्धोचपोरमास्यामावा-

तैत्तिरीयसंहिवाभाप्यभूमिका

स्यनमक्ान्‌ परस्पर्मुचावचान्‌ यक्ञान्‌ ससज ! सोमयागांश्चाञ्चिदेत्रादि भ्यः भरानचिष्टोमोच्ध्यातिरा्नामकाच्‌ परस्परमुचावचाय्‌ खरा प्रथम- यखष्प्बञचिहोत्रादिप्वभिमानविकशेषेण्‌ वर्गदवयं तलयोदमिमीत एतद्‌ चत्तान्तं विजञानतोऽ्रिदोजादिभिरयिष्ठोमादिफलं भवति 1 तथा ब्राह्मण॒मास्नायते-

“्रजापतियंजानखजत अचिदोचश्चाधि्रोमञ्च ! पौर्लमासीश्चोक्थ्य- जमावास्याञ्चातिराच्रश्च ! तादमिमीत यावदयिदोचमासीन्ता- वान्वण्रमः यावती पारुमासी ताबालक्थ्यः 1 याबत्यमावास्या तावा- नतिरा्रः प्यं विद्धानचचिद्योत्रं जोति, ` यबदधिष्टोमेनोपाप्नो- तावदुपामरोति 1 एवं चिद्धाच. पणौमासीं यज्ते, यावडक्थ्येनोपा-

, मराति तावढपासोति य॒ एवं विद्वानमावास्यां यजते, यावदृतिराभ-

शपल्नाति तावदुपाप्नोति? इति ! तदेतद्वेदनस्य स्वं स्वतन्बफलकत्वं लङ्नम्‌। किंञ्च तत्तद्धिधिसमीपे एवं बेदेति वचनानि बेदनादेव फलं ब्रवते तन्यवद्रूपाणीति चत्‌ , अस्तु नाम सहामहे बरेतमपराधं तेषां वचनानां विध्याथव्र्चंसापसत्वात्‌ 1 तहि ध्यत्परः शब्द्‌; शब्दैः, इति न्यायेन स्वाथ प्रामार्यं नास्तीति चेत्‌ ; महातात्पस्यस्य विधेयविपयत्वेऽप्य-

` , चान्तरतात्पस्यैस्य स्वाथविपयतानिवार्णात्‌ 1 ध्राचारः प्लघन्तेः इत्यर्थ-

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बरदस्यापि स्वाथम्रामखयं ्रसञ्येतेति चेत्‌ , 1 परमाणान्तरवाधितत्वात्‌ (छः सम्वत्सर स्य सस्यं पच्यतेः इत्याद्यथवाद्स्य त॒ वाधासावेऽप्यठवाद्‌- त्वान्न स्वाथ प्रा्ाख्यम्‌ वेदनफलबचनानि तु नायवादकानि नापि वन्यानि } तस्मराद्थवदेत्वेऽप्यस्त्येषां स्वाथ प्रामाख्यम्‌ अन्यथा मन्बा- थवादरादभ्यो देवादोनां विग्रहादिभच्चे सिध्येत्‌ 1 अत्त एचोकच्छम्‌-- “नियेषे युखवादः स्याद नुबादोऽवध्रारिते ! भूतायंवदृस्तद्धानद्थवाद्खिघ्रा सतः इति कर चहड्ना 1 विचत प्प्वावश्यं वेदनमाचद्पूचैम्‌ अतो वेद्नाय वेदो व्य्यायतें योऽयं विपयरूप द्राप्त्यनिष्परिहारोपायः सामान्यतो निदिष्ठः विशेषेण स्पण्रीक्रियते |

यद्‌ स्तावत्‌ ऋारडद्धयात्पकः तच पृव्च॑स्मिन्‌ कारडे नित्यनेमित्तिक-

` काम्यनिपिद्धरपं चतुविधं कम्भ भतिपा्म्‌ भयाचज्जीवमचनिदयोनं जो ति" इत्यादिकं नित्यं, तस्य नियतनिमित्तत्वात्‌ प्यस्य ग्रहान्‌ दहत्यञ्चये सामवते पुरोडाशमणए्ाकपालं निर्वपेत्‌ इत्यादिकं नंमिचिकं, तस्यानियतनिः

भित्तप्वात्‌ ५चित्रया यजेत पशुकामः" इत्यादिकं काम्यम्‌। “तस्मान्मलव-

लसा सेवदेत सहासीतः इत्यादिकं निषिद्धम्‌ तेषु नित्यनेमित्तिका-

उ्टानात्तद्कसणे भ्रत्यव्रायरूपमनिष्टं परिष्ियते ! प्रत्यवायो

ष. सायणाचा्यकूता

याज्ञवल्क्येन स्मस्य॑ते-

"विहितस्यानचएानानिन्दितस्य सेवनात्‌ अनिग्रहाच्चेन्द्रियाणां नरः पतनस्पच्छति ॥* ( या० स्प्र०३६।२९१६ ) इरि यावज्ञीवादिचाक्येष्वनुक्तोऽप्यवजंनीयतया स्वाभीष्ठः स्वर्गः प्राप्यते तथा चापस्तम्बः-“्तद्यथा आश्र फलाथे निम्मिते च्छायागन्धावित्यनूत्पयेते पवं धम्पऽपि च््यमाशेऽथां अनूत्पयन्ते, इति काम्यस्ये्टपरासिहेतुतः तंद्धिधिवाक्य एव॒ स्पष्टम्‌ इश्विघातमनिष्ार्थात्‌ परिहियते ` निषिद्धवजैनेन' रागपाप्तनिषिद्धाचछ्ानजन्यो नरकपातः परिहियते > केवलं निव्यनेमित्तिकाभ्यामायुषङ्गिकस्वगेप्रािः, किन्तु धीशध्यादिंविवि दिपोत्पादनद्ास च्हयज्ञानरेतुत्वमपि तयोरस्ति तथा वाजसनेयिन समामनन्ति-“ तमेतं वेद्‌ाजवचनेन बाद्यणएः विविदंषन्ति यज्ञेन दानेन तपसा ऽनाशकेन"” इति एवं तहिं पूठ्वकारड प्वाशेषपुरुषार्थसिट्धेः छतमुत्त रकारडेनेति चेत्‌, अपुनयच्र्तिलत्तणस्यात्यन्तिकपुरुषाथस्य तता सिद्धः अत पवाथवशिकाः कम्मिणो दक्तिएमागेण चनद्रभापति पुनरावृत्ति चा मनन्ति-"“स सोमलोके विभूतिमनुभूय .पुनरायत्तैते इति अत उत्तरकाण्ड आरब्धन्यः आत्यन्तिकपुरषार्थसिद्धिश्च द्विविधा सदयोसुक्तिः कमसुक्ति भरचेति } वत्तंमानदेरपतानन्तरमेव सिध्यति सद्योमुक्तिः 1 उत्तरमागेख्‌ गत्व बह्मलोके चिरं सोगानञुभूय तोत्पननज्ञानस्य बरह्मलोकावसाने सिभ्यति कम मुक्तिः तस्मादडुत्तरकारडे ब्रह्मोपदेशो ब्रह्मो पास्तिश्चेत्युभयं प्रतिपाष्यते जह्मोपारस्तिभसङ्गाट्‌ जयद्र टया भतीकखुपास्यत्वेन सखारिकलकामिनसु दिश्य प्रतिपायते बह्योपासकप्रतीकोपासकयोः समानेऽप्युत्तरमागं प्रती कोपासकस्य विदुल्लोकादृध्वं ब्रह्मलोकगमनाभावेन क्रमसुक्तेरप्यमावाद स्ति पुनरादरत्तिः 1 पत्च “अभ्रतीकालम्बनान्‌ नयति? इत्यधिकरणे ( वे° ४। २।१५-१६ ) दर्व्यम्‌ नन्वस्त्वेवं पूर्वोत्तिर्काण्डयोस्तच ततोचितप्रयोजनं फलविशेषश्च, तथापि पू्व॑कारडस्यादो कर्मान्तरं परित्यज्य दशीपूर्ेमासेष्टिरेव कुत प्रतिपायत उति चेत्‌, भकृतित्वान्निरपेत्तत्वाचेति द्रमः प्रकषण अङ्कोप देशो यत्र क्रियते सा भृतिः ङत्स्नाङ्गविषयत्वमूपदेशस्य प्रकषैः 1 विरू तिषु विशेषाड्माचस्योपदेशः क्रियते अद्भान्तरयारि तु प्ररुतेरत्तिदि्य ते1 भतो ऽतिदेशस्य श्रकषांभावः प्ररूतिखिविधा--अथिहोचरमिष्टि सोमश्चेति तिष्वप्येतेषु अन्यनैरपेच्येण स्वाद्गजातं सर्वमु पदिष्टम्‌ तत्न सोमयागस्य स्वरूपेणएन्यनेरपेच्येऽप्यद्घेषु दीत्तणीयाघायशीयादिषु दशं पुणामासेष्टिसापेत्तत्वान्न पव्यंभावित्वं युक्तम्‌ इष्रस्त सोमयागनैरपे त्यात्‌ सोमात्‌ प्रा्चीनत्वं युक्तम्‌ \ यद्यप्यञ्चिद्ोचरस्य स्वरूपेऽङ्गेषु चा

तैत्तिरीयसंरितामाप्यभूमिका

नास्त्यन्यापेक्ता तथाप्यिसिद्पेक्तव्वाद्‌ाहवनीयायस्नीनाश्च पावमानेरिसा- ध्यघ्ात्‌, पावमनेश्ठीनां दर्शपूर्ण॑मासविकृतित्वात्‌ ` पर्परयाऽभि- होतरस्य दशपूरमासयवेक्तास्तीति भ्रथमभाविं युक्तम्‌ \- दोपूरीमास- योरथिसाध्यत्वाद्चिखाधकमाधानं प्रथमतो वक्तव्यमिति चेत्‌. , मैवम्‌ नाधरानमातरेणाञ्चयः सिध्यन्ति किन्तु पवमनेष्टिभिर्पि ताग्च..्- यो द॑पूणीमासविषतित्वात्‌ साक्तादेव दशपृणंमांसावपेच्तन्ते , दुर्शपूरमा- सो त॒ अच्िद्वास पावमनेष्िसपेत्तावपि साक्ञाद्‌ पवमनिष्ठीरपे्तेते अतो निस्ेक्तत्वादर्शपृणमासेष्टिरे प्रथमं वक्तव्या ्ण्वेदसामवेदयोसादो दृशपूरौमासेटिनस्नातेति चेत्‌ , वाढम्‌ यज्चवंदमपेच्य दरथंपूरौमासयोः- रादित्वयुक्तं कभैकाए्डविषये यजुवंदस्येव प्राधान्यात्‌ आनुपूर्यात्‌ कर्मणा स्वरूपं यजुकेदे सामाघ्नातम्‌ तन्न विशेपप्तायामपेक्षितायां याज्या

¦ पुरोऽठुवाक्याद्य ऋण्वेदे सामाप्नायन्ते, स्तोतादीनि त॒ सामब्रदे 4 तथा

सति भित्तिस्थानीयो यज्ञ्वेदः, चित्रस्थानीयावितसो तस्मात्‌ कर्म॑सु लुवेदस्थ पराध्रान्यं, तस्मिश्च दपूर्णमासेष्टिणदो समान्नाता यद्यपि मन््- ब्राह्मणत्मको वेदः, तथापि ब्राह्मस्य मन््ज्यास्यानरूपत्वान्मन््ा एवादौ स- माप्नाताः 1 भन्त्र्च विधाः चः सामानि यजंपि चेति तत्र यज्ञुषा- मध्वर््ुवेदेऽतिवहुल्वात्‌ कचित्‌ कचिट्रचां सद्धावेऽपि यज्चवंद्‌ इव्येवा- स्यायते अध्वर्थुवेद्वश्चास्यानादिसिद्धयाक्ञिकसमाख्यावलादवगन्तन्यम्‌ अस्मिय्‌ येदे समाख्याता दभंपृणेमासेषिमन्त्राचिविधाः, आध्वर्य्यवा या- जमाना हौच्रकाश्चेति षेः इत्यादौ प्रपाठके पठिता आध्वर्यवाः | "से त्वासिश्चामि' इत्यादौ पठिता याजमानाः सत्यं प्पे द्यादौ पिता होराः) पते मध्ये यजमानानां दोघ्राणाश्च चिघस्थानीयत्वाद्‌ भित्तिस्था- नीयानामाध्वय्यवाणामेवादौ पाठो युज्यत इति ! तेऽपि आध्वय्यंचाः श्रे त्वा, इत्यादिष् जयो्शस्वदवाकेषु आश्नाताः तत प्रथमेऽुवके वत्सा- पाकरणा्था भन्बाः। द्वितीये वर्हिःसस्पादना्थां 1 दृतीये दोहनाथौः चतुथ हनिर्िवापार्थाः ! पञ्चमे बी्वघाताथोः षष्टे तरडुलयेषणाथाः सप्तमे कपालोपधानाथौः अष्टमे पुरोडाशनिष्पादनार्थाः नवमे वेदीकरणा- थः दमे प्राधान्येना्यग्रहणा्थाः धरसङ्गात्‌ पललीसंनहनार्थाः एकादश पराघान्येनेध्वसनहनाथं वर्हियस्तरणादयर्थाश्च इाद्‌शे आघारार्थाः अन्न सामिघेनीधयाजाज्यमागभ्रघ्ानयागादिमन््राणं प्रात्ताचसरत्वेऽपि तेषां 'हौ.- चत्वात्‌ तातुपेच्योपसितनप्रयोगाङ्मूता आध्वर्यवाः खुष््यूहनादिमन्धाख- योद्े खमराघ्नाताः ) तदेतत्‌ सऽं विनियोगसंग्रहकारेरेत्थं सग्रहीतम्‌-- ,

“ये दशपूर्ीमासाङ्गमन्बा पते समासतः

इये स्वाऽऽयदुवाकेषु चयोदशसु वरिता:

चत्सापाकरणं वर्दिदोंदो निवांपकर्डने

+ . ,., सायणाचार्य

पेषणश्च कपालानि पुरोडाश वेदिका आन्यग्रहेध्मसंनाहावाघारोपरितन्नके | इत्युक्ता अजुवाकाथाः भतिमन्नं क्रियोच्यते" दाते किमिदं दल्छापाकरणं, कथं घा तस्य पराथम्यमिति चेत्‌, उच्यते। सन्ति दश्षयागे चीरि प्रधानानि हवीषि, एरेमासयागे चीणि 1 असेयोऽ- एाकपाल पेन्द्र दध्येन्द्रं पय इति दुशीयागे 1 आग्नेयोऽष्यकपाल .आज्येन प्राज्ञापत्य उपा्यागोऽ्ीषोमीय एकादशकपाल इति पूरण॑सासे तत्र भरतिपदिने दधिहोमे दधिखम्पादनायामावस्यायां रान गावो दोग्धन्याः -तदोहनार्थं पातःकाले लोकिकदोहनादूरध्वं स्वमातृभिः खह सञ्चरन्तो वत्सा मात्भ्योऽपाकरणीयाः तदिदं वत्सापाकरणं यथोक्तरीत्या, तस्य प्राथस्यञ्च] तघ वत्सापाकरणं सयश्द्धनिया पला्तशाखया कन्तव्यभिति तच्छैद- नार्थोऽयभिषे वेति मन्न आदौ समान्नायते तस्य भन्चस्य तच्छेदनाज्ग- त्वं जाद्ये द्रव्यम्‌ अत पव सब्राह्यणो सन्नो ज्ञातभ्यं इति छन्दोगा अ- धीयते-- “यो वा अविदितापंयच्छन्दो दैवतव्राह्यरोन मन्वे यजति याजयति चाभ्यापयति वा स्थानं वच्छति गत्ते वां पात्यते भमीयते पापीयान भवति तस्मादेतानि मन्ये मन्ते विद्यात्‌» इति 1 आर्षेय ्छूषिस- भ्बन्धः। भवतीन्द्रिया्थदष्राये हि ऋषयः तेषां वेद्‌द्टत्वं स्मय्येते-- “युगान्त ऽन्तहितान्‌ वेदान्‌ सेतिहासान्‌ महषयः लेभिरे तपसा पृञ्वंमलुक्ञाताः स्वयम्थुचा? इति ! इषे त्वादीनाञ्च मन्यां प्रजापतिच्छैषिः दथा कार्डाचुक्रमणि- कायासुक्त-- “शएखादि याजमानञ्च होतन्‌ दोच् दरशिकक॑म्‌ तद्धिधीन्‌ पिचमेधञ्च नवाहूः कस्य तद्धिदः इति शाखादिरिपे त्वादिप्रपाठकः याजमानं सं त्वा सि्चाभीत्यादि दोता- रः चिन्तिः ख॒भित्यादयो मन्वाः | सत्यं परपद्य इत्यादिकं द्‌ारिकं रोचम्‌ तद्धिधयः पोक्तानाश्चतुविधमन्लाणां चप्वारि बाह्यणानि पितृमेधः परे युबा ~ समित्यादिः तान्येतानि नवकार्डानि प्रजापनिना दर्ानि छन्दो- विशेषाश्च वेद्‌ाङ्गभूते छन्दोनामके अन्थे द्रव्याः मन् पद्‌न्याख्यानादेव तत्‌ प्रतिपादययाथरूपदेवता विज्ञायते ब्ाह्यणविशेपस्तु तच्तन्मन्वव्याख्या- नावसर प्चोद्‌ाहियते यद्यपि मन्वविनियोगा बाह्ये सन्केऽपि नान्नाताः तथापि कलट्पसू्कारै््राह्यणान्तरपर््यालोचनया सवेंऽभिदहिताः ! अतो वो- धायनदिसू्रोदादर्णादिपृव्कंकं बाह्यणालुसारेण मन्बार्थं योजयामः इति तैत्तिरीयसंहिता अप्यभूमिका

ऋ्वेदसंहितायाः सायणाचा्यैकुता

भाष्यभूमिका

सायणाचायैक्रता

ऋण्वेदभाष्योपएक्रमणिका

वागीशायाः सुमनसः सर्वा्थानामुपक्रमे

यं नत्वा कृतकृत्याः स्युस्तं नमामि गजाननम्‌ यस्य निःश्वसितं वेद्‌ यो वेदेस्योऽखिलं जगत्‌ निमे तमहं बन्दे विद्यातीर्थमेश्वरम्‌ तत्कटाक्तेण तद पं दधद्‌ बुकमरीपतिः 1 आदिशन्‌ माधवाचार्य वेदार्थस्य प्रकाशने ये पूर्वोत्तरमीमांे ते व्याख्यायातिसंग्रहात्‌ फपालुमाधवाचा््यो वेद्‌ाथं चक्तुुद्यतः आध्वर्यवस्य यज्ञेषु प्राधान्याहू व्याकृतः पुरा यजुकंदोऽथ होचा्थ॑ुम्बेदो व्याकरिष्यत एतस्मिन्‌ प्रथमोऽध्यायः श्रोतव्यः सम्प्रद्‌यतः | सयुतपननस्तावता सवं वोधुं शक्नोति वुद्धिमान्‌

भभ्यदितत्वाद्गेद्य केचिदा स्येव अर केलिद्‌ाहुः-- ऋग्वेदस्य प्राथम्येन स्व॑ व्यास्यानमादाहुचित- आन्नातत्वाद्‌ अभ्यहितत्वाह्‌ तद्वथाख्यानमादौ मिति पूर्वपक्षः युक्तम्‌; प्राथम्यं पुरुपसुक्ते विस्पष्म्‌--

तस्माद यज्ञात्‌ सवंहुत ऋचः" सामानि? जक्गिरे। लुन्दासि जक्गिरे तस्मात्‌ यज्ञ रस्तस्मादज्ञायत (क्र० १०. ६०. ३) स्टखशीषां पुरप श्युक्तात्‌ परमेश्वरात्‌, यक्चाह्‌ यजनीयात्‌ पूजनीयात्‌ , सव्व॑हुतः सरवयमानात्तः यपि इन्दरादयस्तत्रः हवयन्ते तथापि परमे- ए्वर्स्यैष इन्द्रादिरूपेण भवस्थानादविरोधः 1

) जहरक्षणं यथाह लेमिनि- 204४१०५८ भये ` ^" तेपामूर्यत्राथैवरोन पादन्यवस्था! ( मी० २।१।३९ ) "यत्र पाद्क्ेता व्यवस्था मन्त्र बढनामाः शवर्वामी ।“पदिनार्थ चोषेता त्वदा मन्त्रा कचः इति नैमिनीयन्याय-; मारायां माधवाचार्यः, णु दवम ने (>) सामलक्षणम्‌ माल्याः ( मी० २।१।३६ ) विरि काचिदरःगीतिः सामेत्युच्यते प्रगीते हि मूता सामदाच्दुमभिुक्त उपदिशन्ति इति-शवरस्वामी ८, (३) यजर्दक्षण् रप वेदिः ( मी २।१।३७) श्या गतिम पादवदधं तत्‌ शिप यजु इतति बावरस्गमी ्तिमोरिवभिततवेन गर्विता मन्ध यरूपिः इति नमिनीयन्यायविसरे माधवाय

९२ सखायणाचायंरृता

तथा सन्वणंः-- इन्द्रं सिञं वरुणएमसिमाहु- रथो दिव्यः खपशों गरुत्मान्‌ एकं सह्‌ विभ्रा बड्ुधा चदन्त्य- सि यसे मातरिश्वानमाहुः (० १. १६४. ४६) वाजखनेयिनश्धामनन्ति--

तढ्‌ यह्‌ श्दमाहुरसुं यजासुं यजेत्येकैकं देवम्‌ एतस्यैव सा विषखष्टिरेष दयेव सव्वं देव! रति } ( च° १.४. ६)

तस्मात्‌ स्वरपि परमेश्वर एवं ह्यते छ) तिन केवलग्चां पारप्राथस्येन अस्यरितत्वं किन्तु यज्ञाङ्ञ्दष्येदेतुत्वा- दपि 1 तथा तेततिरीया;.आसनन्ति 1) (त° सं० ६।५।९०1३ ) .. , -<

` यत्‌-वै यज्ञस्य खादना यजु क्रियते शिथिलं तठ, यह ऋचा तट इसिति) तथा सब्वैवेद्गतानि बाह्यणानि स्वाभिहितेऽथे विश्वासद्‌ाढ्यांय सदेः तद्‌ ऋचा अभ्युक्तसिति ऋःचमेव उदाहरन्ति मन््रकारडेप्वपि यक्खक॑द्ग- तेषु तञ तच अध्व्यर प्रयोज्या चछचो वहव आन्नाताः 1 सान्नां ठु सव्वें- षाम्‌ ऋगाश्चितत्वं धसिद्धम्‌ आथव शिकैरपि स्वकीयसंहितायाम्‌ चच एव वाहुस्येन अधीयन्ते 1 अतोऽन्यैः स्ेदेदैःराहुतत्वादभ्यर्दितत्वम्‌ ! छान्दोगास्तं प्राथस्येल सनल््धयारं प्रति नारषवाक््यमेवमामनन्ति-- चण्वेदं भगवोऽध्येमि यजं द्‌ सामवेदसाएथर्वंर्‌ चेति ( द° १।२ ) सुणडकोपनिपद्यपि ए्वमाच्नायते-- ऋग्वेदो यज्ञवेद्‌ः सामवेदोऽथकेण इतिं 1 ( सु° २।६९।५ ) तापनीयोपनिषदयपि सन्नराजपादेषु क्रमेण अध्ययनरेवमामनचन्ति- ऋम्यज्खःखासाथरवांणब्धत्व्ये वेदाः खाज्ञाः सशाखाश्चत्वारः पादा सेवन्ति इति 1 ( चं° ६1२) प्वं स्वत उदाहरलीयम्‌ तस्मादु छछ्वेदस्य अभ्यहितस्य आदो व्याख्यानसुचितम्‌ इति ! यतताजुष्ठानायैत्वाद्‌ तान्‌ प्रति एतदुच्यते- # {प्वं सव्वेवेद्ाभ्ययनतत्पारायणब्ह्ययज्ञ- ऋग्वेद्स्येव प्राथम्यम्‌ , अशन्ञानस्य तु यप्तालुछानार्थत्वात्‌ तच तु यज्ञकंदस्यैच प्रधानत्वाद्‌ तद्धयाख्यानमेव आदो युक्तम्‌ 1 | तत्प्रघान्यं काचिटरगेव आह- ˆ -ऋचां त्वः पोपमास्ते पुपुष्वान्‌ . , गायतं स्वो गायति शकरोघु

१४ सायखाचःार्यङृता

अध्वस्युरिति नाम खम्पादनीयम्‌ ; अध्वरं युनक्ति इति अवयवाः, अं्वरस्य नेता इति तादपु्यथे दति र्ति

४४ ५५ एतदेव ^ अभिरत्यं ` अध्वयुवेदस्य यागनिप्पादकत्व्योतकं निर्वचनं दर्शय यास्को 2 (4 न्तरा मननात्‌, छन्दांसि छादनात्‌ , स्तोमः स्तवनात . - रिति ( नि० ७1१२ ) . ६.

“` एवं सति अध्वर्युखम्बन्धिनि यजरवेदे निष्पन्नं यज्ञशरीरमु पजीभ्य तद्‌- पक्तितो स्तोतरशखरूपौ अवयवौ इतरेण वेदद्धयेन पूर्यते इत्युपजीम्यस्य यजवेंदस्य प्रथमतो ज्याच्यानं-य॒क्तम्‌ तत उदर्य सा्नागोधितत्वाद्‌ उमयोमेध्ये प्रथमत ऋगृध्याख्यानं युक्तम्‌ इति छण्वेद इदानीं व्याख्यायते लक्षणप्रमाणराहित्यादू नयु वेद्‌ प्व तावन्नासित, इतस्तदवान्तरविशेष वेदस्यासद्वाव इति ऋ्वेदः ? तथा हि, कोऽयं वेदो नामन हि तत्र लक्षणं पूर्वपक्षः रमाणं वास्ति तदुभयन्यतिरेकेण किञ्चिद्‌ वस्त॒ प्रसिध्यति लक्तणएभमाणाभ्यां हि वस्तसिद्धिरिति न्यायविद्‌ मतम्‌

भरत्यत्ताजुमानागमेषु भ्रमाणविशेषेषु अन्तिमो वेद्‌ इति - तल्तसभिति चेत्‌ ? न, मन्वादिस्शरतिषु अतिन्याततेः समयवलेन खभ्यक्परोक्ताजुभव साघनमिव्येतस्य आगमलक्तषणएस्य तास्वपि सद्भावात्‌

@)अपौरखषेयत्वे सति इति विशेषणाददोप इति चेत्‌ ? न, वेदस्यापि पर- मेश्वरनिभित्वेन पोर्षेयत्वात्‌ 1 शरीरधारिजीवनिमितत्वाभ्वाह्‌ अपौर- पेयत्वमिति चेत्‌ ? न, सहस्नशीषां पुरूष इत्यादि श्युतिभिसश्वरस्यापि श्रीरित्वात्‌ 1 `

कम्मफलरूपशरीरारिजीवनिमितत्वाभोवमाच्रेए अपौरुषेयत्वं विव - क्तितमिति चेत्‌ ? न, जीवविशेपेरन्निवस्वादित्यैवेंदानासुत्पादितत्वात्‌ “कग्वेद्‌ प्वाग्नेरजायत यजुवंदो-वायोः सामवेद आदित्यात्‌" इति श्रुतेः ( पेत० ा० ५।५।७ ) दष्वरस्य अस्नयादिप्रेरकत्वेन निरमातत्वं द्रव्यम्‌

, सन्वबाह्मरणत्सकः शब्द राशिवंद ` इति चेत्‌ ? न, ददो मन्त दैद्रशं ाह्यण्‌-

-मिच्यनयोरयाप्यनिर्णी तत्वात्‌ सास्ति किञ्चिद्‌ वेदस्य लत्तणम्‌ | नापि ततसद्धावे भमाणं पश्यामः ऋग्वेदं सगवोऽध्येमि यजुकदं साम- चेदमाथवंणं चलुथमित्यादि वाक्यं ` पमारभिति चेत्‌ ? न, तस्यापि वाक्य- स्य वेदान्तःप।तित्वेन आत्माश्रयत्वप्रसङ्गात्‌ खलु निपुणोऽपि स्व स्कन्धमासेदुं प्रमवेदिति। . 1. © “वेद्‌ पच दिजातीनां निःघ्रेयसकरः परः ( या० स्प 9. १1४० ) श्त्यादि रूटतिवाक्यं मरणमिति चेत्‌ ? न, तस्यापि उक्तश्रुतिभरूलत्वेन नियरुतत्वात्‌ ` - भत्यक्नादिकं शद्धिछमपि अयोग्यम्‌ ,। वेद्चिपया ठु लोकप्रसिद्धिः

ऋष्ेदभाण्योपक्रमणिका। ` ` १५

खाव्वंजनीनापि नीलं नम इत्यादि भ्रान्ता तस्मात्‌ लक्षएधमारदितस्य वेदस्य सद्धावो नाज्गीकर्सू शक्यते इति पूष्य॑पञ्लः। ~ ` उतपषलेन वेदसे अबोच्यते मन्ञव्राह्मणा्मकत्वं ताबदृदुटं रक्षण्रसाणादिनिणेयः। लक्षणम्‌ अतएव आपस्तम्बो यक्षपरिमापायामेव- माह-मच्छघराह्मणएयोवेदलामध्ेयप्रिवि.(भाप०्परि०३१) तयोस्तु स्वरूप- मुपरिरात्‌ निणेप्यते अपोरूषेयवाक्यत्वमिदमपि याद्रशमस्माभिविवक्षितं ताष्वशमुत्तरत् स्पष्टीमविष्यति प्रमाणान्यपि यथोकशरुतिस्परतिलोक- परसिद्धिरूपाशि वेदसद्धवे द्र्व्यानि {यथा घर पटादिद्रव्याणां स्वभरकाशक- त्वामावेऽपि सूर्यचन्दरादीनां स्वप्रकाशत्वमविरुदढधम्‌ , तथा मनुष्यादीनां स्व- स्कन्धारोहासंभवेऽपि अदुण्ठितशक्तकेदस्य दतरवस्तु्रतिपादकत्ववत्‌ ।. सभरतिपादकत्वभप्यस्तु 1 अत एव सम्परदायविदोऽककुरिकतां शकि वेदस्य दरशेयन्ति-“चोदना हि मूतं भवन्तं भविष्यन्तं सूदं व्यवहितं विभ्ष्मिेवं नातीयमथै शक्तो अचगमयितुमिति(शाण्मा०१।२) } तथा सति वेदमूला- पा लोपसं प्रामाएयं दुरप्‌ 1 तस्मात्‌ लक्षएप्मारसिद्धो वेदो - केनापि चार्वाकादिना अपोदुं शक्यते इति स्थितम्‌ _ `^ मतु ठं नाम बेद्यः कथित्‌ पदाथः, तथापि नासो व्याख्यानम- हेति, अपर्माणत्वेन अनुपर्धुं्त्वात्‌ हि वेद्‌ प्रमाणम्‌, तललक्षणस्य तत इसम्पाद््वात्‌ {` तथा हि सम्यग वुभवसाधनं प्रमाणमिति केचित्‌ लक्ष एमा्ुः अपरे तु अनयिगतोथगन्ते. प्रमाणमित्याचक्षते चैतदुभयं दे सम्भवति मन्छव्राह्मणात्मक्ो हि वेदः! मन्ना; केचिदवोधकाः। ` अम्यक्‌ सा इनदर ऋटिरिप्येको मन्त्रः" ( कर० १।१६६।३ ) याद्रस्मिन्‌ धायि तमपस्यया विददित्यम्यः२ ( ५४४८) (१) भम्यकूसा इन्द्र करषटिरस्मे सनेम्यस्तं मरतो जनानति अग्निश्चिद्धि ष्मातसे शुुकानापो द्वीपं दधति प्रयांसि हतिसम्पणौ मन्त्रः ततरत्यसायणमाप्यसदवेपः- हे इन्दर ते सा प्रसिद्धा ऋषिः वन्न' भस्मद्‌- षं अम्यक्‌ प्राप्नोति मेवसमीपे 1 मरतः सनेमि चिरकालं संगीतं अभ्यं जरं जुनन्ति क्षिपन्ति व्ै्तीत्य्ः अभिः चित्‌ अभ्निरपि दि स्मेति पूरणे) भतते सन्तते कर्मणि यशकान्‌ दोप्यमानो घर्ेते } प्रयासि हवीषि दधति धारयन्ति यजमानाः द्विपार्वस्थोदक- भन्‌ पवैविद्रपः } तं यथा आपो धारन्ति तद्त्‌॥. # सा हुमय केतुन छपिस्वरं चरति यासु नाम ते यारस्मिनू धायि तमपस्यया विदत्‌ य्‌ स्वयं वहते सो अरं करत्‌ तेतरत्यसायणमाप्यसद्ुपः--ल्यायांसं अतिशयेन प्रवृद्धं अस्य यतुनस्य गन्तुः सूरस्य केतना उद्यादिरक्षगेन प्रकापेन कर्मणा विरिष्टं ऋषिस्वरं चःपिभिः स्त्य यासु स्तुतिषु त्वदीयं नाम नमनं नासकं वा रूपं वतैते ताभिः त्वां चरति भजते यजमानः इत्यर्थः वाविमम्‌ याहे कामे धायि तं मन इति शेषः तं कामं अपस्या हविःस्तुत्यादिरक्षणेन णा बिद्‌ विन्दते 1 एव वहते धारथति फं, सः भरं उत्यर् करत्‌ र्यात्‌)

~~~

नि

` १६ -साथणाचार्यङृता

` खर्येव जर्जरी तुर्फरी त्‌ इत्यपरः ( चछ० ९१०१०६६ ) पएवमापन्तमन्युस्तृपलम्रभस्मर ( ९०।८्७५्‌ ) इत्यादयं ` उदादा्य्याः नहि पतैर्मन्मेः कश्चिदप्यर्थोऽववुध्यते ! पतेषु अनुभव एव यदा नारित तदा ततसस्यक्त्वे तद्भ्यसाधनत्वं दुरापेतम्‌ 1 अधस्विद्ासीहू उपरस्विदासीदिति ( १०।१२७५ )

` बोधकत्वेऽपिं स्थाणुवां पुरूषो वा इत्यादिव सन्दिग्धाथेवोधकप्वात्‌

` नास्ति प्रामाश्यम्‌ | ओषधे त्रायस्वैनमिति म॑न्नो ते° सं° १।२।९।१ ) दर्भविषयः स्व- ` धिते मैनं हिंसीरिति ( तै° स० १1२ १।१ ) -श्षुरविषयः..--ग्टणोत ज्रावाण - इति (त° सं १।३।१२।१) पाषाणविषयः 1 एतेषु अचेतनानां द॑भेक्षुरपाषा- . णनां चेतनचत्‌ सम्बोधनं श्रयते तेतो डौ चन्द्रमसावितिं वोक्यवत्‌.विष्‌-

: रीतार्थवौधकत्वादप्रामार्यम्‌ एक एव रुद्रो द्ितीयोऽचतस्थे ( तेऽ सं° ,६।८।६। १) सदसख्ाणि सहखशो ये रुद्धाभधिभूम्याम्‌ (तै० सं ७।५।९१९।५) दत्यनयोस्तु मन्योयावेजोवमदं मोनीति ˆ वाक्यवत्‌ भ्याघातवोधकत्वा-

दभामास्यम्‌ आप उन्दन्तु इति मन्ो ( तै० सं° १।२।१।१ ) यज्ञमानस्य त्तोरकाले ,, ` जलेन शिरसः क्लेदनं न्ते 1 शुभिके शिर आरोह शोभयन्ती सुखे मम॒ इति `मन्बो (आप० मं० पा० २।८1&) विवाहकाले मङ्गलाचरणारथं पुष्पनिमितायाः `

( ९) सम्पूणेमन्त्रस्तु " . खण्येव जर्भरी वुफंरी त्‌ चेतोगेव लुफंरो पफेरीका उदन्यजेव जेमना मदेरू ता मे जराय्वजरं मरायु तव्रत्यसायणभाण्यसंक्षपः-खण्याविव खणिः अङ्कुशः तत्र साधुरिति यत्‌. अङ्कुशा मत्तमजाविव तुर्फरी शदरणां हन्तारौ 1 नितोश्चस्य वधकः अपत्यं नेतोशः ताविव तुर्फरी हन्तारौ पर्फरीकौ शबरूणां बिदारयितारौ 1 उदन्यजे इव उदकजातौ इव निर्मलो कान्तियुक्तौ जेमना जेमन जयदो मदेरू ,वलातिश्चयेन मक्तो ता तावदिवनौ युवां मे सदीयं जरायु जरायुजं अतप मरायु मरणदीलं शरीरं अजरं जरारहितं ऊुरुतम्‌ (>) सम्पूणमन्त्रस्तु- आपान्तमन्युस्द्रपल्प्रसर्मां धुनिः रिमीवान्छरमां ऋजीपी सोमो विदवान्यत्तसा वनानि नार्वागिन्दं प्रतिमानानि देश्चः॥ तत्रत्यं साचणभाप्यम्‌--आपान्तमन्युः आपातितमन्दुः वपलप्रमभा म्रावादिमिः क्षिप्र- - प्रहास निः कन्र.णां कम्पयिता .दिमीवान्‌ कमेचानू शारुमान्‌ आयुधमान्‌ ऋजीपो सोसो विदवानि सर्वाणि अतसा अतसमयानि वनानि अरण्यानि वर्धयतीति दोपः! प्रतिमानानि प्रतिमानभूतानि समानद्रग्याणीत्यर्थः ! ` इन्द्रं र्वाक्‌ देः दम्नोति- र्रापकणकमो 1 चुख्या सोयमानानि आत्माभिसुखतयथा नाकपैयन्ति रश्रूनि भवन्तीत्यकैः। अन्यच्च प्रति निधभरीयमानानि गुरूणि तानि. आत्माभिसुखमाकर्षन्ति नैचमिन्दं ऊर्बन्तीति सर्व॑भ्यो महानिन्द्र इत्यथ \ त्रयः पादाः सौम्याः तुरीयस्तवेन््धः 1 यास्केनापि निरुक्त ज्याख्यातोऽयं मन्त्रः ( नि० ९1 १२13

ऋऋपवेद्धाप्योपकमणिका १७.

एृभिकायाः वरध्वोः शिरसि अवस्थानं व्रते! तयोश्च अन्बयोलोकथ्रसि दाथाचुवादित्वाहू अनधिगतार्थगन्तुलखं नास्ति तस्मान्‌ भन्वभागो न: प्रमराए॒म्‌ भच्रोच्यते-- `" अम्यगादिमन्बसामर्थो यास्फेन निरकतप्रन्थे ऽववोधितः.] तत्पस्विय-

¦ सहितानामवोध्रौ मन्बां दोयभावहत्ि। अत एव अच लौकिकं व्या- यमुदाहरम्ति- नेष स्थाणोरपराधो यदेनमन्धो पश्यति, पुरपरापराधः स.भवतीति

~. श्रःस्िदिति मन्त्रश्च सब्देहवोधनाय प्रतरृत्तः किं तरिं ? जगत्‌. कारणस्य परवस्तुनोऽतिगस्मीसत्वं निथेतमेव प्रवृतः 1 तदर्थमेव हि गुर- शाखसम्परदयरहितेदुर्वोधत्वमधरःस्विदित्यनया चचोभङ्गया उपन्यस्यते एवाभिप्राय उपरितनेषु को बद्धा वेद्‌ ( ऋ° ३।५०।५ ) दत्यादिमन्तरेषु , स्पण्ीरृतः ` सोपध्यादिमन्तेष्वपि चेतना एव तत्तदभिमानिदेवतास्तेन तेन नान्ना सम्बध्यन्ते ! ताश्च देवता.मगवता वाद्‌ रायन “अभिमानिन्यपदेशस्तु०”

(३० २।१।५) इति सूत्रे" सूनिताः ! ..

एकस्यापि सद्रस्य स्वमदिश्ना सदलमृत्तिस्वीकासग्‌ नारित परस्पर- व्याघातः।

जलादिष्रव्ये शिरःक्लेदनादेलोकम्रसिद्धत्वेऽपि तद्भिमानिदेधतानु- भिदुस्यं अभ्रसिद्धव्वात्‌ वद्धिपयत्वेन भक्ञातार्थ॑न्ञापक्च्वम्‌ 1 ततो लक्तणसद्धावादस्ति मल्वभागस्य प्रामाण्यम्‌ ।--पतदेवाभिप्रत्य भगवान्‌ जंमिनिमन्रःधिकर्े मन्बाणां विवक्तिताथैलरमसूचयत्‌। तानि चि करमेण उदाहत्य व्याल्यास्यामः तच पूर्व्व॑पक्षं सुज्रति-- . (9 तद्थशाखात्‌ ( जे० ११२।२१ ) यस्यार्थस्य भिधाने समर्थो मन्वः, एव अधभिघरेयो यस्य शास्य बरह्मएवाक्यस्य, तदिदं वाक्यं तद््थ॑शाख्म्‌ ! तस्मात्‌ शाखा अपि वरितार्थो मन्व इत्यवगम्यते ! तथा हि,--उर प्रथस्व इति मन््ेण ` (त° सं” १।१।८१ ) पुरोडाशप्रथनममिधीयते; पुरोडाशं प्रथयति इति , ब्रह्मरेनापि ( तै० व्रा २।२।८।४ ) तदेचाभिधीयते तथा सति मन्ञेरौव ` ,परतीरत्वात्‌ -तव्र्थवोधनाय प्रवृत्तं बाह्णव्राक्यमनर्थकं स्यात्‌। मन्त्रस्य भविवसितार्थत्वे तु {विनियोगवोधनाय ्ाह्मणएवाक्यमुपयुक्म्‌ ! तस्मान्‌ म्मा उच्चाररेतेव अनुण्ानं उपङुबे प्त (१) सम्पूणेसू्ं तु “अभिमानिन्यपदेदस्त॒ विगेषा्चगतिभ्याम्‌ ! “न खलु मृद्वी दियेवतातीयकया शत्या भूतन्धियाणा चेतनत्वमादाकुनीयं यतोऽभिमानिन्यपरेशा एषः

ायमिमानिन्यो वागयमिमानिन्यश्च चेतना देवता अदनसम्बदनाय्पु चेतनोचितेषु "हरु ज्यपदिवयन्ते भूतेन्दियमान्नम्‌ ।* इति तत्रत्यं शादुरमाप्यम्‌

१८ सायणाचायंङूता-

नलु उचखररणाथैत्वे सति अट्टं भयोजनं परिकर्प्येत 1 अ्थाभिधायकत्वे द्रष्टं लभ्येत 1 तस्माद्‌ ब्राह्यणस्य अलुवादकत्वसस्युपेत्यापि मन्वस्य असिधानाथैत्वमेव इत्याशङ्कय उत्तरं सूजयति-- ~ बवोक्यनियसात्‌ ( जे० ९।२।३२ ) अधिमृद्धां दिवः ककुद्‌ ( ऋ० ८1७४।१६ ) इत्वेवमेव वाक्यं परितव्यसिति मन्ते तियस उपलस्यते 1 अथप्रत्यायनं तु सुद्धाधिरित्येकं च्यु तूक्रमपेऽपि सवव्येव तस्मात्‌ नियतपाटक्रमसाफल्यायोचार णमेव सन्ञप्रयोजनम्‌ 1} . .. ` नद पार्क्रमनियमसेाचस्य अद्रएथत्वेऽपि मन्बपारोऽ्थवोधाथै एव इत्याशङ्कय तच दोषान्तरं सूच्रयति-- बुद्धश्ाख्यात्‌ ( जं०° १।२।३३ ) अश्रीदस्मीन्‌ विहर तै खं ६।३।२।२ ) इति भेषसन्बः प्रयोगकाले पस्यते ! त्च अयिविहरणादि कम्मं आ्मीभरेख अध्ययनकाले एव स्वकन्तव्यत्वेन बुद्धम्‌ तस्य बुद्धस्य अथस्य पुनम॑न्नोचेारणेन श्ासनमनर्थंकम्‌ 1 हि सोपानतके पादे पुनरपि उपानहं परतिमुञति नु बुद्धस्य अथस्य पामादिकविस्मरणपरिहाराय मन्वेण स्सारणस- स्तु इत्याशङ्कय दोषान्तरं सूजयति- ~> अविद्यमानवचनात्‌ ( जे० १।८२४ ) ` चत्वारि श्भा ज्रयो अस्य पादा दे शीपं सप्हस्तासो अस्य ( ऋण ४।५८)३ ) इति मन्त्र आाद्वायते 1 खलु ठः्टज्त्वायुपेतं किञ्चिद्‌ यज्ञसाधनं विद्यते यन्सन्नपाठेन अञुस्सय्यैते 1 तयु इद्रशी काचिद्‌ देवता स्यादित्यष्शद्भय अन्यं दोषं सूजयति-- ˆ अचेतनेऽथेवन्धनाद्‌ ( जे० ९२} ३५ ) सषधे त्रायस्वैनं, श्णोत चावाण इत्याद्‌एवचेतने द्ग्ये चेतनोचितं रत्तणश्रवणाद्यथं वध्नाति चायुक्त नु असिमानिन्यपदेश्व इति वैेयासिकम्वाखय सूजितत्वात्‌ ( वे २-१-५ ) ओपध्यादययसिमानिचेतनदेवता अज्र विवच्यतामित्याश्वङ्कय दोपान्तरं सूच्यति- ` „~. अर्थविभ्रतिपेधात्‌ ( जे० ₹।२१३६ )“ ` " अदितियारदितिरन्तरिक्षम्‌ इति सन्तः ( २-८६-१० ) ाद्चा- यते 1 यदेव दौस्तदेच अन्तरिक्षसित्ययम्थो विभ्रत्तिपिद्धः ! एवमेक प्व सुद्रः सहस्ासि खहच्नशो ये खटा इत्यादि करमपि उद्‌ादक्तव्यम्‌ ननु त्वमेव माता पिता त्वमेव इत्यादिवद्‌ अन्तरिक्तादिरूपत्वेन अदितिः स्ठृयते 1 प्टेवमेकस्यापि रुद्रस्य योगसामर्थ्याद्‌ वद्रूपस्वीकायो-

~ [१

२० साय्रणाचायंरूतां

तरेण परती तस्यैव अथस्य ब्राह्मणे यत्‌ पुनः श्रवणं तदेतचतुःसंख्या-

लक्तषणगुखचिधानाथैत्वेन उपयुज्यते एतस्य विधानस्य असावे चतस मस््ाणां मध्ये येन केनाप्येकेन अभ्िरादीयेत 1

नु (दमामग्रमृणन्‌ रणनश्डतस्यः वा० सं° २२२ ) इत्यश्वासिधा- नीमादत्तेः इत्य भन्बसामथ्यादेव भा्तस्य रशनाद्ानस्य पुननरह्यणवाक्यं ( श० ा० १२।९८।१ ) विनियोजकमाश्नायते 1 तदेतत्‌ त्वन्मते व्यर्थभित्या- शंय उत्तरं सूज्यति- ,

परिसंख्य!^ ( जै० १।२।४२ )

गदभासिधानीं नादत्ते इति निषेधः परिसंख्या तदथेसिदं नाक्मण- वाक्यम्‌ = नभर नङ परिसंख्यायां चयो दोषाः पराप्चुयुः-- आदत्त इति शब्दो रशना- दानलत्तणं स्वार्थं जह्यात्‌, तन्निषेधधलक्तणः परार्थोऽस्य शब्दस्य करप्येत, रशनात्वसामान्येन पराप गदंसरस्तनाया आदानं वाध्येत इति जयो दोपः मेवम्‌, गद्‌ भरशनाया अप्राप्तत्वात्‌ 1 तथा हि-तत्‌पन्ते पकरण- परठान्यथालुपपस्था मन्त्रेणानेन आदनं कुय्यादिति वाक्यं परिकरप्यते दानमिति चीत्तायां लिङ्गाद्‌ रशनामाचस्य आदानसुपेत्य गदं भरशनायाः प्राक्षियेक्तव्या 1 सा विलम्बेन इति अश्वासिधानीभिति घरत्यत्तेण॒ वाक्येन मन्राद्ानयोः सम्बन्धे सति लिङ्धाद्‌ र्तनामाते घ्रा्तमाद्‌ानम्‌ अश्वामिधा- नोमिति श्रत्या विश्चेषे व्यवस्थाप्यते ततो मन्रस्य निराकाङ्त्वाद्‌ गदेभ- रनाय अप्राप्तत्वान्‌ नारित प्राप्तचाधः) अत्त पव निषेधार्थो कटप्यते विष्यर्थश्च त्यज्यते 1 तच कुतो दोपच्रयम्‌ ? इईद्रथम्‌ अप्रा्तिरूपमेव गर्दभ रशनया निवारएमभिप्रेत्य परिसंख्येति सूचितम्‌

नयु उरू प्रथस्व इति प्रथयतीति ब्राह्यणस्य वेयण्यं. तद्‌ वस्थमेच इत्या- शङ्गय उत्तरं सू्रयति-- =. ~ (८ - 1"

अथथेचादो घा ( जे० ९।२।४७३ )

चशब्दो वैयर्थ्यं चाययति अस्त्यज.-अर्थवाद्‌ः यज्ञपतिमेव तत्‌ प्रथ `

यतीति तेन अर्थवादेन सम्बन्धाय. बाह्यणे विधिः पस्यते ` £ नतु पथयतति इत्यनेनेव विधिशब्देन परथनमनूद्य यज्ञपतिमेच इत्यादिना ) परिसंख्यालक्षणम्‌-

~“ विधिरत्यन्तमप्राे नियमः पाक्षिके सति तन्न चान्यत्र प्रे परिसंख्येति कीर्त्यते ! . गरिसंख्यादोपाः-- शरुतास्य परित्यागगदश्चतार्थप्रकल्पनात्‌ 1 भराक्षस्य बाधादित्येवं परिसंख्या चरिदूपणा

चछग्यद्‌ भाप्योपक्रमणिका 1

अथवादन स्तोत्त्यम्‌ तदेव तु प्रथनं कुतः प्राप्तमित्याभद्धय उत्तर सुचयति

मूनवाभिधानात्‌ अध्वच्छुः पुरोडाशशरदि ष्य मन्ते प्रथस्व इत्येवममिधतते तस्मादभिधानादू थष्वयुंकर्तुकं पथनं प्रातम्‌ चथा, लोके यः छख इति श्रते सख कार्यस्येव, तथा अच्रापरि ! यः प्रथस्व इति चते प्रथयस्येव

यदुक्तम्‌, “अग्निर ढा दिवः इति पारक्रमनियमाहू वटृटारथो भल दति, तत्र उत्तरं सृचयति-

अविरुद्धं परम्‌ ( जं २1२2४ }

पर्‌ द्ितीयसूलोक्तमस्मत्तपश्चेऽमि थविष्दधम्‌ ; हि वयं पाटकरम- नियमाद्‌ थद निवास्यामःः रि तरि१ मन्नोयार्तनजायमानमर्थप्रत्यायनं . ` ट्रप्रयाजनत्वात््‌. उपर्चितन्यम्‌ दस्येतावदेव व्रमरः | (शक „. . -नच श्रोक्षेशीयसाद्रयः इति मन्न ( घा० स्त १।२२) वुद्धतेव थर शास्ति तदू थयुक्तम्‌, सोपानः्कस्य उपानदृन्तससम्भवात्‌ त्यक्तमिति चत्‌ ? तत्य परिहारं सूययति- {.संप्रपकम्मसो गहायपलम्भः संस्कारत्वात्‌ ( जे० १।६।४५ ) सपरेपकम्म॑रो गद्य च्वदुक्तदोपो उपलभ्यते, वुदस्याप्यर्थस्य मन्वेरौव नुस्मरण्‌ सति नियभादर्रलत्तणस्य संस्कारस्य सद्भाघ्रात्‌ योक्त, “चत्वारि श्ह्धाः इति मन्बो ( च्० ४।५२८२्‌। ) धक्तन्तमेव अ्थममिधत्त इति तस्य उत्तरं घृच्रयति-

धभिघ्रानेऽर्णवादः ( जं० ५।२।९६ )

धसतोऽथेस्य थभिध्राने वाक्य मासस्य थस्य उक्तिदण्व्या] तद यथा-चत्वाया दात्रष्वयृद्रावच्रह्याणोऽस्य कम्मणः ङ्धाणि, प्रात्तःसथनाद्‌- य्यः पराद्‌, लीयमानं ढे मीय, गायत्यादीचि सत्त छन्दांलि इस्ता, ऋ्यदरादिभिसिसिषेदद्धा वन्नम्‌ कामान्‌ र्पति दति वृषभः, सेस्वीति स्तत्शचखादरिशब्दान्‌. पुनः पुनः करादि, महो देवः सोऽयं परंदो यजरूपो दवः मत्यान्‌. विवे इति मच्रुष्या प्व अवाधिकारिणः 1 लोकेऽपि णवं ग॑ण॒प्रयोगा द्रष्यन्त,-चक्रयाकस्तनी, हंसदन्तावली, कणवख, सैवाल- कणिनी इत्येवं नदाः स्नूयवानत्वात्‌ प्वमोपे जयस्व, श्रणोत प्रावार प्याद्यचतनसम्बेध्नानि स्तृतिपरत्रन योजनीयानि यस्मि पने

(१) “ननु नायं मन्त्रस्य वाक्य्पः, प्रास्य स्तुत्या प्रयोजनम्‌ } सत्यम्‌, नायं मन््रस्य विचिः, संस्तवः; प्रथमेव तत्र स्यतः मनवः पुनः रपदेव प्रास्र इदानृदयत प्रथनं स्ततिमर 1 इत्यं प्रयनं प्रास्तं, यत्‌ करियमाणमेवंस्यण मन्तरेण क्रियत कल्तदा भवति गणः ? भनृपतिपरव सेत्‌ प्रजया पञयमिः प्रथयति क्रप्रतावद्बस्पि फट भतरेत नति वमः स्तुति प्य भविष्यतीति पएरुच्यत ! कथमसति प्रथने प्रथयतीति द्द ! मन्त्रामिधानाव्‌

ददतत द्रावस्माप्यमर्‌

-----~

२२ -साययाचायंक्ता

ओषधिरपि चायते तच चपनकत्तां जायत इति किमु वक्तव्यम्‌| तथा प्रावा णोऽपि परातरचुवाकं -छण्वन्ति कित विद्धसो बाह्यणा इत्यादि मन््रा- रामसिभ्रायः योऽपि, “अदिति र्यौरदितिरन्तरिक्तम्‌ इति विभ्रतिषेध उक्तः, तस्य उत्तरं सूजयति-- गुणाद विप्रतिषेधः स्यात्‌ ( ञे १।२७७ ) यथा त्वमेव पिता त्वमेव माता इत्यत्र मोणभ्रयोगादुः अविशेधस्तदूवत्‌ पवमेकवद्रदेवत्ये कम्प॑शि एको शद्रः शतशुद्रदेवव्ये शतं सुद्रा इति अविरोधः यदप्युक्तं, स्वाध्यायमधीयानो माणवकः पूशिकाया वतिं प्रकाश- यितुभिच्छतीति, तच उत्तरं चि्यवचनमसंयोगात्‌ ( जे० १।२।४८ ) वेद विदाग्रहणकालेऽर्थ॑स्य यद्‌ वचनं तदयक्ञसंगादुपपद्यते } हि पूरणिकाया अवधातो यन्ञसंयुक्तः, नापि माणवको यक्ञमदति्टति, अतो यज्ञा- चु पकारात्‌ यज अथंवचिवक्ता यदप्युक्तं, “अम्यक्‌ सा इन्द्र, “सृण्येव जर्भरी तफीरी त्‌” इत्यादौ थस्य लञातुमृश्क्यत्वात्‌ नास्त्येवाथं इत्ति तत्र उत्तरं सू्रयति-- सितः चलमविकेनम्‌ ( जे० १।२।४६ ) <~ विद्यमान प्प अथै प्रमादालस्यादिभिनै ज्ञायते तेषां निगम-निरुक्त- व्याकरणएवशेन वयातुतोऽथंः परिकर्पयितञ्यः 1 तदू यथाभ--जभेरी तंफरी तू इत्येवमादीनि अश्विनोरभिधानानि ; तेषु दि हिवचनान्तत्वं लच्यते ! आशिनं चेदं सूक्तम्‌, “अभ्विनोः काममा? ( ऋ० १०।१० ६११ ) इति दशनात्‌ एतदेव अभिप्रेस्य निरक्तकाये व्याचष् “जर्भरी भत्तारो इत्यथः" “तुफसी त्‌ हन्तारो इत्यथः*(नि० १३५) इति एवम्‌ अम्यक्सा इत्याद्यपि उन्नेयम्‌ प्युक्तं, प्रमगन्दृष्य ( ऋऋ ३।४३२1१४ ) नित्याथसरंयोगाच्‌ मन्नस्य अनादित्वं स्याह इति, उत्तरं सूज्रयति-- उक्तश्च अनित्यसंयोगः ( जे० १।२।५० )..८ ग्रथमपादस्य मन्तिमाधिकररे सोऽयमनिन्यसंयोगदोप उक्तः परिहतः तथा हि--तच पूर्व्व पत्ते वेदानां पौरूपेयत्वं चर्त काठक, कालापकमित्यादि पुरुपसम्वन्धाभिधानं हेर्तृङृत्य-- अर्नित्यद्‌ शनात्‌ चेति ( जें० १।९।२८ ) देत्वन्तरं सूचितम्‌ तस्यायमथैः--्ववरः भावाहणिरकामयत' ( ते० सं० ७।१।१०।२ ) इति अनित्यानां वचसादीनमर्थानां दर्शनात्‌ ततः पृथैम्‌ असस्वात्‌ पौस- . पेयो वेद द्रति, तस्योत्तरं सृत्रितम्‌-परं श्रुतिखामान्यमाचम्‌ (जे०९।२।३१) तस्यायमथ्ः-यत्‌ काटकादिसमासख्यानं तत्‌ भरचवचननिमित्तम्‌ यत्त॒ परं चव साद्यनित्यसमाख्यानं तत्‌ शव्देखामान्यमाचम्‌ तु तत्र ` अनित्यो

<

श्य्वेदभाण्योपक्रमणिफा २९.

वयस्यः कथित्‌ पुरुषो विवक्षितः, किन्तु ववर इति शब्दानुकृपरिः। तथा सति ववर इति शब्दं कुञ्चन वायुरभिघीयतेः प्रावाहणिः प्रकषेए वहने- शीलः -एवमन्यजापि ऊहनीयम्‌ तदेवं कस्यचिदपि दोषस्य असम्भवाद्‌ विकषिताथां मन्वाः स्वाथंप्रकाशनायेव प्रयोक्तव्याः <

{९ ^, ५.

नयु ` अरथप्रकाशनार्थत्वे सति. दषं पयोजनं लम्यत इति युक्तिमाघम्‌ इदमुच्यते त॒ पएतदुपोदलकं किच्छ तं लिङ्ग पश्याम इत्याशंक्य उत्तरं सूत्रयति-

लिज्ञोपदेशश्च तदर्थवत्‌ ( जे० १।२।५१ )

“भाग्नेय्याग्रीध्रमुपतिष्ठेत” इति श्रुयते तस्यायम्थः-अश्निदेवता यस्या ऋचः सेयम्‌ आग्नेयी, तया आग्रीघ्रस्थानम्‌ उपतिष्ठेत इति अनष उपस्थानमुपदिगद्‌ बाह्मणम्‌ “अग्ने नय” ( १।१८६।१ ) इत्यनया उपतिष्ठेत इति मन्त्रप्रतीकं परित्या नोपदिशति, किन्तु आग्नेयीत्वलिङ्धेन उपदिशति } यदा यस्यामृचि अभिः प्राधान्येन प्रतिपाद्यते तदा तस्या ऋचोऽभ्निदवता भवति ) तथा सत्ति आग्नेय्या इति देवतावाचितद्धिता-

| न्तनिदश उपपद्यते ` तस्मादयभुपदेशस्तन्मन्ववाक्याथवदिति बोधयति! भतो बिवक्षिताथस्वाह्‌ अर्थ्त्यायनारथ प्रयोगकाले मन्बोचारणम्‌

तस्मिन्‌ एव चिवश्िता्थैतवे लिङ्गान्तरं सूत्रयति--

ऊहः ( जं० १२१५२) ^.

, ^ "पररृतावान्नातस्य यन्स्य विकृतौ समवेताथत्वाय .तदुचिततपद्‌न्तर- , प्रपेण पाठ उहः } तद्‌ यथा-- “अन्वेनं माता मम्यतामनु पिता भ्राता" इति प्रारृतः पश्चविषयो मन्पाटः (मै० सं० ४।१३)४ ) तस्य. मन्त्रस्य विकृतो पशुदधये सति अन्वेनौ माता मन्यतामित्यूहः पशुवहुत्वे खति अन्व तान्‌ मातां मन्यताम्‌ इत्यहः कतत॑व्यः पंतन्मन्वव्याख्यानरूपं ाह्यणमेव- मान्नायते-“न माता वर्द्धते पिता ।” तत्रेदं चिन्तनीयम्‌ , किमन शरीर ृद्धिनिषि्यते, आहोस्विच्छृब्दधघृद्धिरिति एकवचनान्तस्य मावृशब्द्स्य मा्तराविति द्विवचनान्तत्वेन चा, मातर इति वहुवचनान्तत्वेन बा प्रयोग शष्दवृद्धिः तत्र तावच्ुरीरघृद्धिनिषे दुध शक्यते वाल्यकोमार्योवना-

पिवयोऽलुसारेण तदुबुदधेः प्रत्यक्तत्वात्‌ अतः शब्धचृद्धिनिषेध एव परि शिष्यते मातृशब्द्पिवृशब्दयोविशेषाकारेण चरद्धिनिषेधात्‌ इतरस्य एन-

तिगब्दस्य अथानु खारिणी वृद्धिः सूचिता मवति 1 ततर यदर्थो बिवच्येत तद्‌ पृुद्धितवे दवचनं प्ुबहुत्वे बहुवचनं कथमृ्येत ? तस्माद्‌ विव- तायां मन्नाः।

तस्मिन्‌ एव अथं लिङ्गान्तरं सूजरयति-- पिधिशब्दष्च ( जे० १।२।५३ )

रे - | सायणाचाषंरता

मन्नभ्याख्यानरूपो- बेद्यणगतः;-णव्दां विधिशब्द्‌ इति उच्यत < - चेवभास्नायते, “शतं हिमाः; शतं वर्धसि जीभ्याः स्स इत्येव एतदाह” ( श०-- ज्ा० म)३।४९।२९ ) -इति \ शतं हिमा इत्येत र्‌ व्याख्येयमन्यस्य प्रतीकम्‌ , अच. शिष्टं तु॒तस्य तात्पर्यव्याख्यानम्‌ मन्त्रस्य अविवक्लितार्थत्वे तु किंनाम तात्पर्यं मन्ते व्याख्यायते. तस्माद्‌ विचक्तिताथा मन्जाः प्रयोगकाले स्वार्थधकाशनायेव उच्ारयितघ्या

अच सं्रहन्धोको--

.मन्जा उरू ्रथस्वेत्ति किम ्ेकदेतवः

`यागेपूत .पुरोडाशथनादेख . भासकाः -

ाह्मेनापि तद्भानान्मन्वा पुण्येकदेतवः _ .

न, तदुंभानस्य द््रव्वाह्‌ दरष्ं बरमद्रटतः (-ज० न्या० १।२।द;)

नजु अस्तु मन््रभागस्य धामाण्यम्‌; ब्राह्यणभागस्य तु तदु युज्यते ` तथा.हि.द्धिविध्रं ब्राह्मणम्‌--विधिस्थेवादश्चेति ! तथा भपस्तम्बः-- . (“कर्मचोदना बाद्यणानि, नाद्यरशेषोऽथेवादः इति विधिरपि विविधः भ्रदतमवत्तंनम्‌ अज्ञातक्षानश्येति “रज्रावेष्णवं पुरोडाशं निं पन्ति दीद , णीयायाम्‌ (प० ा० १।१।१) इत्याद्याः कमंकाण्डगतविधयोऽप्रवृ्च्रव- तकाः “अत्मा वा इदमेक-पवाश्र सखी हू-(पए०्ड० १।१) इत्यादयो चह ब्रह्य कारडगता विधयोऽक्ञातज्ञापकाः ] तच कम्मेकारडगतानां "'जत्तिलयव ग्वा वा जुद्याद्‌ गवीधुकयवाग्व्रावाः?' (तें०सं०५।४।३।२) इत्यादिंचिधीनां नास्ति प्रामारयम्‌; मरु ्तथयोग्यद्रव्यविध्रानेन सम्यगजुभवसाधंनल्वाभावात्‌ अंयोग्यत्वं वाक्यशेषे समाल्लातम्‌--“सनादुतिवे जत्तिलाश्च गचीश्वुकाच्धः दति 1 अन्न हि आरर्यतिलानाम्‌ आरण्यगोधुमानां च. आाहुतिद्रव्यत्वं निधिद्धम्‌ तस्माद्‌ वाधितो जत्िलादिचिधिस्प्रमाणम्‌ एवमेतसेयतेत्ति- सेयाद्धिव्ाह्यरेषु, “तत्ताटरस्यम्‌ः, “तत्तथा कार्यम्‌, इति वाक्याभ्यां बहवे विधयो निषिद्धाः अपि णेतरोेयव्रह्यणेऽचदितहोमं वहुधा निन्दिस्वा, ““तस्माढदिते दोततन्यमिःति अखशछृद्‌ निगदितम्‌ तेत्तिसयीय श्च तथैच आमनन्ति--"“यददिते सस्यं प्रातजह्धयाद्‌ उभयमेचाग्नेयं स्याद्द्वे सथ्य भ्रात्हयोति?? ( पे० व्रा० ५।५।४ ) इति पुनरपि पव उदि तदम दोपमामनन्ति-“्यदुदिते सस्यं प्रातद्छेहुयादू यथा अतिथये धट्रताय शृल्या- यावसथायादाय्यै हरन्ति ताष्रगेव तदू" ( तं० चा ° २।१।२७ ) इति } तथैव, “अतिरात्रे योडशिनं गृह्णाति” इति विधिः “नातिरात्रे पोडशिनं गरह्वाति? दृति निवेधेन वध्यते ज्योतिष्टोमादिषु अपि अनुष्ठानानन्तरमेव स्वर्गादि-. फं नोपलभ्यते 1 हि भोजनानन्तरं नृननेरचपलस्भोऽरिव 1 तस्मात्‌ कर्म. विधिषु प्रामाण्यं दुःसम्पादम्‌ \ अक्रातत्तापकःस्ु बह्लविधिप्वपि परस्पर-

ऋऋ्वेदभाय्योपक्रमणिका ८२५

-विगोधान्‌ नास्ति प्रायार्यम्‌-“धात्मा वा इद्येक प्वात्र आसीद" इति एरचि आसनन्ति ( उ० १1? } 1 “सदु वा इद्मच्र मासी दू» इति तत्तिगीयाः 1 सोऽयं विधः ¦ तस्पाद्‌ वेदे विधिभागः सर््वोऽप्रमाणमितिं प्रा व्रमः धस्तु पवं जिलादिविधेगप्रामाण्यं, तदर्थस्य अनचुष्ेयत्यात्‌ 1 अनु- यस्त॒ अयं उपरितने “अजक्तीरेए जोति" ( त° खं० ५।५।३।२ ) इति व्ये विधीयते! ततप्रतंसाथं्रत्र जत्तिलादिकमनृ्य निन्यते यथा गवामण्वानां पशसार्थम्‌ , “अपग चा भन्ये गोभष्वेभ्यः ( ते त्रा ।६।१०।२ ) इवि वाक्येन थर्थ॑वादृरूपरेण अजादीनां पशुं निन्धते, तद्वत्‌ प्च तर्हिं वजरदर्यथा बस्तः पण्वमस्ति तथा. जसिलारिविधिर निन्यमनोऽपि कचिच्छुाखान्तरे भवेदिति चेत्‌ ? भवतु नाम, प्रामाण्यमपि ` तच्छाखाध्यायिनं प्रति सविप्यति! यथा गृहस्थाश्रमे निपिदधमपि पसन्न- भोजनम्राश्रमान्तरेपु परमासि तद्वत्‌ धनेन च्यप्रेन सव्वंत्र परर्परयि रुद्धौ धिधिनियेधौ पुख्पभेदेन व्यवरस्थापनीयां 1 यथा भन््ेषु पारमैद्‌ शालाभेदेन भ्यवस्थितस्तदत्‌ ! तैत्तिरीया “वायवस्थोपायवस्थेति ( तै सं० १।१।१) यन्वमायनन्ति वाजसनथिनस्त॒ उपायवस्थ दरति भागं नाम- नन्ति (वा० सं° १।१) प्रच्युत शतपथव्राह्मणे ॒भागौऽनूय्य निरद्तः तथा सृक्तयाकमन्परे शाखान्तरपाटं निगाञ्घत्य पाटान्तरं तैत्तिरीया भाम- नन्ति “दू वरेयात्‌ सूपावस्ताना स्वभ्यवसाना चेति प्रमायुको यजमानः स्यारित्तिः निराकरणम्‌ ! “छपचः्णा स्वधिचरणा चेध्येच व्रूयादू"्रति पान्तसेपदेशः (तै० खं० २।६।६।६)१ 1 तत अनुष्टातृपुर्पमेदेन न्यचस्था तद्रह्‌ विधिघु द्र्म्यम्‌ पोडरिग्रहणादिषदूषणं अश्रुतमी्मासावृत्ता्तस्य तरेव शोभते पूर्वमीमांसाया दशमाध्यायस्य अष्टमपादे पोडशिनो त्रंह- शाग्रहणविकरस्पो निर्सवः द्वितीयस्य प्रथमपादे कालान्तस्भाविफलसि- दधथमरू्यं॑ निर्मतिम्‌ तद्द्‌ उन्तरमौमांसायां प्रथमध्यायस्य चतुथं पदे, “कारणेन चाकामादिपु चथा व्यपदि प्रत्तः ( सू० १1४91१४ ) यस्मिन्‌ सुपर जगत्कारणे परमात्मनि शरुतिविभरतिपत्तिनिराङता द्वितीय- स्याध्ययस्य प्रथमे पादे आारम्भाधिकसणे, “अखदुव्यपदेशाेति चेत्‌+ न, (६) यरा पुरम च्रियत तदा प्ैदूवायनादिपरित्यागेन इमां मृमिमुपत्यवसानं गच्छत्नि,नस्मात्तादयास्या्स्य सूचके उपावसान्दे प्रयुक्ते सति मरणशीो मवति। भूमि

विषयक स्वथिचरणेतिद्देन मोधरचासभूमि कामितवान्‌ भवति ।" } "सत्यपि प्रतितद्रा्तं खज्यमानेषु जपकाशादिपु ऋमादवदवारफे विमानेन कष्टरि

रिद्‌ यिमानमस्ति ! ऊतः यथान्यपदरिोक्तः ! यथाभूतो श्चेकस्मिन्‌ वेदान्ते सर्व वधः सवरात्मकोऽद्धितीयः कारणलन ज्यपदि्टः, तथाभूत एव वेदान्तान्तरप्वपि व्यपदि-

पयत्‌, इति तत्रत्यं शाद्ुरमाण्यम्‌

"~~~

र६ सायणाचार्यरतां

श्मान्तरेण वाक्यशेषात्‌", ( च० सू० २।१।११ )* इति सू तैत्तिरीय क्यगतस्य असच्छन्दस्य : शूल्यपरत्वं किन्तु श्रव्यक्तावस्थापरत्वमिपि निर्णीतम्‌ यथा जेमिनिश्चोदनासुञे (जे० १।९।२) विधिवाक्यं धम्मे प्रमा णमिति परतिक्ञप्य ओत्पत्तिकसखुते जे° १।१।५ ) तत्मसषरयं सम्थैया मास व्यासोऽपि शाख्रयोनित्वसूत्रे ( ° खु° १।१३ ›) वेदान्तानां बरह्मरि प्रामारयं प्रतिज्ञाय, “तत्तु खमन्वयादू? ( ° सू० १।९।२ ) इत्यादिसज्चः खसर्थयामास ! तस्माद्‌ अमीमांसकस्य तव पूर््वोक्तस्थाण्वन्धन्यायो दुष्प रिहरः 1 अतो विधिंभागस्य प्रामाण्यं सुस्थितम्‌ अ्थैवाद्‌भागस्य प्रामाण्यं महता भ्यल्ेन जेसिनिः सम्पादयामास ततसू्राणि भ्यास्यास्यन्ते तत्न पृठवं पश्चं सूच्रयति-- ^ सआच्नायस्य क्रियार्थत्वादानथैक्यमतदर्थानां तस्मादनित्यमुच्यते (जे०९।२]१ &) आन्नायस्य सव्वंस्य क्रियाप्रतिपाद्नाय भच्त्तत्वाह्‌ अर्रियाप्रत्तिपाद्‌- कानाम्‌ अर्थवादानां नास्ति कश्चिद विवक्षितः स्वार्थः ते अथवादा पवमान्नायन्ते,-"“सखोऽरोदीत्‌ तद्रद्वस्य रुद्रत्वम्‌? ( तै०सं° १।५।१ ) “स ` आत्मनो वपामुदखिदत्‌, ( ते० सं० २।१।१ ) "देवा वै देवथजनमध्यव- साय दिशो प्राजानन्‌? इति ( ते° ६।१।५ ) यस्मादीद्रशस्य वाक्यस्य विवक्षितोऽर्थः कश्चिदपि नास्ति तस्मादिदं वाक्यमनिव्यमुच्यते 1 यथ्यपि अनादित्वात्‌ स्वरूपेण अनित्यत्वं नास्ति, तथापि ध्पांवयोधनलक्तणस्य -नित्यकार्य॑स्य अमावाहू अनित्यैः कान्यालापेः समानत्वादप्रमाणसित्यथैः नयु, उद्राहतानाम्थवादानामदेष्ठेये धम्मं श्रामांण्यासावेऽपि स्वार्थं भा- भारयमस्तु, ततप्रत्यायकत्वेन स्वतःप्रामाख्यस्य अभपवदि व॒मशक्यत्वाद्‌ इस्याशङ्कय अन्येषु केषुचिदथवादेषु' मानान्तरवि रोधदशशेनाद्भामाण्ये सति ततदरश्टन्तेन स्वे पामपि अथैवाद्‌ानामधामारयमित्यभिपरत्य सूत्रयति- ©) शाखद्रषटविरोधष्च ( जे° ९।२।२) श्ादख्रविरेधो द्रएविरोधः शाखद्रएटविरोध इति चिविधो विरोधो अर्थं मादेषु उपलभ्यते तथा हि, “स्तेनं मनोऽन तवादिनी चाग्‌” इत्यत्र श्रूय- माणं मानसं चोर्यं वाचिकमसतवदनं . परतिषेधशाखेण विरुद्धम्‌

( १) “नद्ययमत्यन्तासच्वाभिप्रायेण प्रागुतपक्तेः काय्येस्यासद्वयपदेशः किं वर्हि ज्याङ्तनामरूपत्वाद्धर्मादन्याङ्तनामख्पत्वं धर्मान्तरम्‌ तेन धर्मान्तरेणायससदरन्यपदेका धागुवन्तेः सव एव कार्यस्य कारणस्पेणानन्यल्य कथमेतद्नगम्यते ?-वाक्यगपात्‌, यदु- पमे सन्दिग्धा्यं वाक्यं चच्छेपादेव चिश्चीयते इह तावद्‌ असदेवेदमग्र आसीद्‌ इत्यस- च्छव्यन उपक्रमे निदिष्टं यत्‌ तदेव पुनस्तच्छव्देन परागस्य सदिति विरिनषटि तत्‌ सदासो- दिति,......असद्‌ वा इदमग्र आसीदित्यत्रापि तदात्मानं स्वयमङ्स्त इति वाक्यञचेये चिगे- चणान्नत्यन्वासत्वम्‌ तस्माद्धमान्तणेवायमसदू्यपदेशः प्रागुवछत्तः फा्यैस्य नामरूप- व्याहतं हि वस्तु सच्छन्दारई रोके प्रविद्धम्‌, अतः प्र्‌ नामरूपन्याकरणादू असदरिवासी- शित्युपचय्येते 1" इति तत्रत्य शाङ्करभाष्यम्‌

च््रग्यदमाप्योपक्मणिक्ता | : 29

-श्तस्मरादू धूमः पव अन्चेदिवा ददम नर्पचस्तस्मादचिरयाचेःनेक्तं दषयन धूम (तै० त्रा० २1२।२ ) दत्यच दृष्रवियोधः? वधान्‌ चैतद्‌ त्रियो. वयं ब्राह्या वा स्मान््राद्यरा वा ( म॑ सं० १४1२९ ) इत्यवापि प्रत्यक्ष- >+ - विरेधः ! “को हि तट्‌ वेदं यन्मुष्िन्‌ लाक्ऽस्ति वा वाः (तै० सं 121१1११ इत्यत्र शाखदरष्रविनेधः 1 स्र्न्नमा यजत इत्यादि शाखे हि ामुष्मिकं फलं द्रएयत 1 तस्माद्र चिगाघ्रादू थशवादानामरामाण्यनर्‌ नल, “साऽयद्री द्र” इत्यादीनां निष्ययाजनत्याव भस्तेनं मनः इत्या- दनां विगाथद्धप्रामाण्यऽपि फलय्तिपाद्कानास्थवादानां तवुभयवेल क्नगयादू यस्नु प्रामारयम्‌ इत्याद्य उचरं सूव्रयति-- (2. तथा फलाभावाद्‌ ( ॐ० २।२।३ ) तथा मानान्तस्विच्छम्‌ थथचद्रुच्ं दथा फलमपि अविद्यमानं तच च्यत 1 तथा दहि, गतंचिराच्रं प्रक्रत्य ध्रुयनः “य॒ाभतेऽ्य मुखं च.पतर चद्‌. (ता म्र० २०12212 ) दतिः दर्णपूरमालयावद्‌ाभिमर्मनं ध्रद्रत्य श्रुयते “याच्य प्रजायां बाजी जायते प्तं रदः! इति! वयं वद्विवृणां तत्‌ यच् धलाया वराज जायत्‌ चपः फनलेुपलामद्‌ 1

ननु, पदिकफलवाक्यानां विसंवाद दप्रामाण्यऽपि आमुध्िक्फलवा- क्ानामस्तु ामार्यम्‌ इत्यादय उचरं सूचयति-- धन्वानर्थक्यान्‌ (जं० 1२1४} -

प्वं दि श्रयने-“'पर्गाह्त्या सव्यानि कामान, धाय्यात्तिःः ( तं० त्रा० दार दृणप ) ^पययुचन्धयाजी स्व्वानि. ल्लोक्ानभिजयतिं “तरति बल्यं तरति पाप्मानं तरति बद्छदत्यां योऽग्रवमध्रन यजन चेनमत्रं वद्‌ ( चै० सं ५।२1१२}२) 1 तत्र थन्नयाथयनतया पूणहुन्या सव्व कामप्रप्तरन्यानि अ््रिद्या- दीनि उन्तरकादीनानि अनर्थकानि स्युः तथा निरूढपशनन्धानुश्रानेन पन्वतकाभिलयत्‌ व्योतिष्यमाद्ीनामानर्थक्यम्‌ अभ्ययनका्लीनिनेव

7वम्रघ्रवदनन ब्रह्यद्‌च्यादितर्णात्‌ चनरयुष्टानं व्यथ स्वात्‌ वस्माद्‌ा-

एन्मिकफतवाक्यनामपिः यपघ्रामार्यम्‌ 1

ननु, मा भृत्‌ फलवक््यानां प्रामार्यम्‌; तथापि नियघ्वाक्यषु विसो धायुक्तम्भाद्रस्तु प्रामाण्यम्‌ इत्याशङ्य उचर तृच्यति-- ; < वमागिपत्तिष्यात्‌ ( जं० १।२।५ }

“न परथिन्यामचिश्चतव्यो नन्तरित्त दिवि इत्यत्र ( तै सं धाद २२ ) अन्तमिश्च्य द्विच प्रतिवधमानित्वं नास्ति, तत्र चयनमप्रसन्ग स्ये ध्रभावात्त ¡ मा अत्ति चििघ्रानां प्रामाण्यम्‌; ५वरचरः धरावाहलिर काम्यत इन्याद्ीर्ना र्वपु्यत्रचान्तामिध्याचिनां विगोधादुपलम्भादर्‌

दत्याश्रद््य उर सृच्यति--

< अनित्यसंयोगाद्‌ ( ञे १।२द)

२८ ` खायणाचायंङृता

ववरादिरूपेण अनित्येन अथंन संयोगे सति अस्य वाक्यस्य ततःपूर्वम्‌ अभावात्‌ कालिदसादिवाक्यवत्‌ पौरुषेयत्वं प्रसज्येत

कि बहुना ? सव्व॑थापि नास्त्येव अथवाद्‌ानां भामाखण्यम्‌ इति पूर्वैः पत्तः

सिद्धान्तं सूञ्य्ति.

विधिना व्ेकवाक््यत्वात्‌ स्वुत्य्थन विधीनां स्युः ( जं १।२।७ )

तुः शब्दोऽथेवादानामध्रामाण्यं वास्यति 1 “वायुवें क्तेपिष्ठा? इव्येव- मादीनाम्‌ भथेवाद्‌ानां “वायन्यं श्वेतमालसेतः ( तै०्सं०२1१।१। १) इत्यादिना विधिना खह्‌ पकवक्यत्वाद्‌ अस्ति धम्म भामारयम्‌ विधिवाक्यस्य अर्थवादनैर्पेच्येण पदान्वयसम्पूत्तंस्तत्र अथेवाद्‌ानां नारित उपयोग इति शङ्नीयम्‌ ते हि अर्थवादाः पुरुषप्रचत्तिम्‌ आकाक्षतां विधीनां स्तुत्य त्वेन उपयुक्ताः स्युः 1 स्त्या भलोभितः पुरुषस्तच प्रवत्तंते 1

ननु, अथैवादानां प्रमाद पठितत्वेन उपेत्तरीयत्वात्‌ किमनेन एकवाक्य -ताप्रयासेन इत्यारड्थ आह-

तस्यं साम्प्रदायिकम्‌ ( जं० १।२।८ )

अनध्यायवजञैनादिनियमपुरःसरं गुरुसम्प्रदायादभ्ययनं यत्‌ तत्‌ सा- म्परदायिकम्‌ तच्च विधीनामथेवाद्‌ानां समानम्‌ तस्माद्‌ विधिवदेते पामपि परमाद्पाठो भव्ति

ननु, शाखट्ष्रविरोधाच्च इत्येवमर्थव देषु अयुपपत्तिरुक्ता इत्या- शङ आद्‌--

(क चायुपपत्तिः प्रयोगे हि विरोधः स्यच्छृब्दार्थ॑स्त्वप्रयोगभूत- ( जे° १।२।६ ) <^

“स्तेनं मनः” देव्यादो शाखविरोधाचयुपपत्तिः प्राप्ता, भरयोगस्य अचु- क्तत्वात्‌ प्रयोगे हि स्तेयादीनाम्‌ उच्यमाने शाखविरोधः स्यात्‌; चार स्तेयं कर्त॑व्यसिति पयोग उच्यते, किन्तु स्तेयशब्दा्थं एव उच्यते! नच प्तेयशब्दार्थः प्रयोगत तस्म च्छब्दाथवचनमत्रेण शाखरविरोधामा- बाहू जयमथैवाद्‌ उपपन्न पव

नु, “स्तुत्यथेन विधीनां स्युः" इति यदुक्तं तदसत्‌, वेयधिकर रयात्‌ षवेतसलशताखया चावकासिश्चाघधि चिकपैत्यापो वे शान्ता? ( तै० सं० ५।४।४। { ) इत्यच वेतसखावके विधीयेते भापश्च स्तूयन्त इति वचैयधिकरएयात्‌ त्याशङ्याह-- ॐभैगुणवादस्त॒ ( जें० १।२।१० )

तः शब्दो वेयधिकरण्यदोषं वास्यति गुणवादो यच चिवक्तितः

था लोके कर्मीराभिजनो देवद्‌ त्तः कर्मीरदेशषु स्तयमानेपु स्व॒तमात्मानं

न्यते, प्वमत्रापि अद्भ्यो जाते वेतसावके अपशु स्तुता स्तुते. एव

ऋभ्वेदमाष्योपक्रसणिका २8 `

मवतः 1 शान्ताभ्योऽद्भ्यो जातत्वात्‌ वेवसखावके स्वयमपि शान्ते.सत्यो यज्ञमानस्य अनिष्ठं शमयतत इत्येतादरशस्य गुणस्य चादोऽ् अभिप्रेतः 1 ` , “सोऽयोदीदि" त्य्रापि स्जतस्य पततिताश्रुरूपत्वाट्‌ रज्तदाने गृहेऽपि रोदनप्रसङ्गाद्‌ “वरिषि रजतं देयम्‌” इति ( तै सं* १।५।१।२) तजनिषे- धेन विधेयैत्र अर्थवादस्य एकवाक्यत्वम्‌ तजन रज्ञतदानामावे रोदना- भावरूपो शुखोऽत् विचक्तितः ; तेन गुणेन रजतदालनिवारणरूपो विधिः स्तूयते यद्यपि रजतस्य अश्रुषसचत्वमअस्यन्तमसत्‌ तथापि यथोक्तरीत्या ` चेधेः स्त॒तिः सम्पद्यते !

धयः प्रजाकामः पशकामः स्थात्‌ पलं प्राजञापत्यमज्ं तपरमालमेतः ` (तै० सं० २।१।९।४.५}) इत्ययं विधिः परजापतिवपोतखेदेन स्तूयते तस्मात्‌ प्रज्ञापतिः स्ववपामपि उतखिद्य अन्न प्रहत्य ततो जातं तूपस्म्‌ अजम्‌. ममाथ आलभ्य प्रज्ञाः पशुश्च लन्धवाम्‌ , तस्मात्‌ प्रजादिसम्पादकोऽयं तूपरः इति तूपरगुणस्य वादोऽच्र विवक्तितः

, “आदित्यः प्रायणीयश्चर" स्त्यिष ( तै० सं० ६।१।५।१ ) विधिः “दिशा भ्ाजानन्‌ इत्यनेन दिडधमोेन स्तूयते 1 यथेयम्‌ अदितिर्देवता दिड्मोद्‌- पपि अपनीय दिग विशेषं ज्ञापयति, तथा बहुविधकम्मैसञुदायरूपे सोमयागे भनुष्ठाविषयं भरमम पनयतीति किमु वक्तन्यभित्येवमदि तिदेवतागतस्य गुण

स्य बादोऽन्र बिवक्ितः 1 स्वकीयवपोतवेदो देवयजनाभ्यवसानमतरेए दिद्मोहश्च त्युमयमस्तु वा मा वा, सब्वंथापि स्तुतिपरत्वम्‌ अभ्युपगत. ताम्‌ अस्माकम्‌ न॒क्िथचिह्‌ हीयते 1 "शिखा ते _ वधते वत्स गड्ची दधया पिवः इत्यादौ अवि्यनेनापि अर्थेन लोके स्तुतिदृशेनात्‌। ` अथ पूर्वपक्तिणा शाख्रवियोधं दर्शयितुं यडुदाहतं “स्तेनं मनोऽतवा- दिनी वाग्‌» इति तञ उत्तरं सूत्रयति--

कषपात्‌ प्रायात्‌ ( १।२।११ )

3 हस्ते अवति अथ गृभ्णाति" ( मै° सं० ४।८।२।३ ) इत्येतं धे स्तोतुम्‌ अयमर्थवाद्‌ उच्यते यथा लोके, “किमरूषिणा देवदत्त एव पूयितष्य इत्य देवदत्तपूजां स्तोतभेव श्नोदासीन्यमृषो उपन्यस्यते तं

, पूण्यत्व्ेर्वारयितुम्‌, एवमत्रापि हस्ते दिरण्यग्रहणं प्रशंसितुं मनसः स्तेन- रपत्वं बाचयोऽचृतवादित्वं उपन्यस्यते तत्र गुणवादेन शब्दार्थो योज- नीयः यथा स्तेनाः घच्छचरूपा एवं मनोऽपीति अरच्छनरूपत्वमज गुएः 1" पायेण चाग्‌ अनृतं वक्ति इति प्रायिकत्वम्‌ अत्र गुणः हस्तस्त पच्छृनो नापि मनृतवहुलः ! अतौ हस्ते हिरण्यधारणं प्रशस्तमिति स्त॒यते

_ यदपि द्ष्विसेधाय “धूम पच अम्नेदिवा ददश” इत्यादिकमुदाहृतं सूतरयति--

_ पूस्भूयस्त्वाच्‌ ( ज० १1२१२)

३९ : सायणाचार्यकृता

: . “अधिज्योतिर्ज्योततिरथिः स्वाहेति सायं जुदोति, स्था ज्योतिर्ज्योतिः : स्यः स्वाहेति भ्रातरि व्येतो विधी ( एेण्बा०।५।६ ) स्तोतं सोऽथवादः ` यस्माद्‌ अर्चिदिवा द्रश्यते . तस्मात्‌ स््य॑मन्ब एव पातः पयोक्तव्यः। यस्माद्‌ रा्रावचिरेव द्रश्यते तस्मादभनिमन्नो रा्नौ भरयोक्तव्यः सूरमन्त् दिवा. इत्येवं तयो्मन्नयोः स्तुतिः 1 धूमाचिषोरदशंनोपन्यासस्तु दरभूय- स्त्वगुणनिसित्तः भूयसि हि दरे पव्व॑ताप्रे वृ्लादयोऽपि विस्पष्टं दृश्य. ` ` न्ते, किन्तु तृणसाद्रश्येन तेषां दशनाभास प्व तद्वद अचापि

यद्यप्यन्यद्‌ द्र एटविरोधाय उदाहतं, “न चेतद्‌ वियो वयं ब्राह्मणा वा स्मोऽब्राह्यणा वा” इति तत्र उत्तरं सूत्रयति सू्बपराधात्‌ कन्तु पुच्रदशंनात्‌ ( जे० १।२१३ )

: ^प्रवरे प्रव्रियमाणे ब्रृयाद्‌ देवाः पितरः? इत्यस्य ( मे° त० १।४।११ ) ` विधेः स्तावकोऽयमथंवादः 1 यदि यजमानो “देवाः पितरः" इत्यादि मन्तरेण प्रवरम्‌ अनुमन्जयेतत्‌ तदानीमवाहणोऽपि ब्राह्यणो भवेदिति अनुमन्नणस्य स्तुतिः 'न चेतद्‌ विदः, इत्येतदज्ञानवचनं दुर्ञानत्वगुरोन त॑त्र धयुज्यते 1 यर सिया अपराधो मवति तत्र कत्तु रुत्पादयि तुजारस्यापि पुरो दृश्यते , अंतः पत्युपपत्योरुभयोः पुच्रदशैनात्‌ स्वकीयं जन्म कीद्रशमिति दुर्लानम्‌ 1 ` अनेन अभिप्रायेण प्रयुक्तत्वात्‌ नास्ति त्र द्रएविसोधः ] हि तंज द्रष्यमानं स्वव्राह्यरुयमपदितुं "न चेतद्‌ विशः, इत्युषन्यस्तम्‌। `

यद्यपि शाखरीयद्श॑नविरोधाय उदाहतं, “को हि तद्‌ वेद यद्यमुषमि- ज्ञोकेऽस्ति वा चाः इति उत्तरं सू्रयति- त) आकालिकेप्सा ( ज० ₹1२ १४)

भ^दिच्वतीकाष्तान्‌ करोति इति ( तै० सं” ६।१।१।१ ) प्राचीनवंशस्य द्वारविधिः। तस्य शेषोऽयं, “को हि तट्‌ वेद” इति धुमादुपद्रवपरिदा- रे प्रत्यक्षेण फलेन द्वारविधिः स्तूयते स्वगं प्रात्िरूपं तु फलमाकालिकम्‌। अकाले मवमाकालिकं विश्रकृष्टकालीनं, तु इदानीन्तनमित्यथंः तस्य. इप्सा प्रापुमिच्छा सा को हि तदू वेद्‌! इति अनिश्चयोपन्यासे कारणम्‌ यथा भाविकालीनः पोचध्रपोचादिचरत्तान्तो निश्येतुं शक्यते, तद्वत्‌ स्वगं प्रात्िमाविकालीनेति ुणयोगादनिश्चयोपन्यासः धरूमाद्विपरिहारस्वु प्रत्यक्तत्वान्‌ निश्चित इत्यसिपोयः

यदेप्यन्यत्‌ द्रएटवियोधय उदाहतं “शोभतेऽस्य सुखं पं वेद्‌" ( ता० शरश चा०.२०1 १६६ ) इति तत्र उत्तरं सूज्रयति--

` वियघरशंखा ( ञै० ९।२।१५)

सोऽयं गमचिरात्रविधेः शेपः तदुवरिपयं वेदनमपि सुखणोभादेतु,

किमुत अनुष्ठानमिति स्ठ्यते यथा कर्णामरणादिना सुखं शोभितं मवति

छऋभ्वेदभाष्योपक्रमणिका 1 ३१

पं वेदितुरत्सेन विकिरं वदनं शोभितमिव शिप्यैरुद्धीच्यते अतः कोमासादरृश््यगुणयोगात्‌ शोभतेः इत्युच्यते !

यदृण्यन्यदर विरोधाय उदाहम्‌ “धास्य प्रजायां वाजी जायते एवं वद्‌" इति सोऽपि व्रेदामुमन्वणविधेः शेपः अत्रापि कैस्रतिकल्यायेन स्तति ्य॑यहू योजनीया वेदितः पुचः पिनृक्िक्तया स्वयमपि विद्धान्‌. भवति, ततः प्रतिग्रहेण अचं प्राप्नोति ) ठस्मादीद्रणं गुरमभिग्रेत्य श्वाजी जायतेः शयुक्म्‌

यद्प्यन्यानर्थक्याय उदाहतं, “पूर्णाहुत्या सर्व्वान्‌ कामान्‌ अवाप्नोति? इति तत्र उच्चर सूचयति--

सव्व॑त्वमाधिकारिकम्‌ ( ॐ० १।२।१६ )

पृणाति जहुयाहू इत्यस्य विधेः दोपोऽयय्‌ सम्वंकामवासिदेत्‌

पात्‌ पशस्तेयमाहुतिरिति स्तूयते ] थथा सवच त्राह्यणा भोजयितञ्या इत्यन सम्बलं स्वगृहागतव्राह्मणविपयम्‌ प्यं पूर्णाहुत्या कर्मपसाङ्त्वे यत्‌ फलं तस्मिन्‌ भथिकारे प्रस्तावे सम्भावितं तद्धिपयमेव खयत्वं छष्व्यम्‌ ! पर्णा हृतस्मावे सति याध्रानरूपं कम्पं अज्गविकटं अवति 1 तच्च चेकस्यं पूर्णाहुत्या सप्राधीयते इ्येकः कामः 1 तरिमिन्‌. समाहिते सति आहवनीया्स्रयो- ऽ्निदोतरादिकम्प॑सु योम्या मवस्ति इत्ययमन्यः कामः तै कर्म्ममिस्तत्‌ तत्‌ फलं प्राप्यते इति कामान्तरम्‌। इद्रमी सष्वंकामावात्िराहुव्यन्तरेप्वपि वियते इति चेत्‌ ? विद्यत नाम ! कि शिद्म्‌ ? खलु एतत्रता पणां हतिस्त॒तेः काचि ह्‌ हानिरसित !

नयु, पृणाहुतेरङ्गमावत्वात्‌ तदीयफलश्रुतेस्थैवादत्वेन स्ताचकत्वं भवतु, दरन्यसंस्कारकम्मेसु परार्थत्वात्‌ फलश्रतिर्थवाव्‌ः" इति सूेण जे ०४।३।१) निरगुतत्वात्‌ 1 प्यु्न्धचाक्यस्य तु कर्म्मवरिधायक्स्वात्‌ खन्व॑लोकाथिजय- स्य मुखुपफलल्याट्‌ अन्यानर्थैक्यं दुर्वारम्‌ इत्यागाङ्कय उत्तरं सूजयति--

फलस्य कम॑निप्पत्तेस्तेषां लोकयच्‌ परिमाणतः सारतो वा फल- विशेषः स्यात्‌ ( जे° १।२।१७)

पि्यन्तरिकतयुलोकेषु अन्यतमलोकाभिजयरूपं पटं पथुवन्धकम्म॑णा निष्पाते तेपां पृथिव्यादीनां फलानां कस्मान्तरेस परिमाणाधिक्यं सात्वं वा खम्पद्यते } ततः फलविशेपःस्यादिति नास्ति आनशवक्यम्‌ ताक्वदि्यक्तायं दृष्टान्तः ! यथा ल्लोके निष्केण खारीपरिमित्तद्‌ वरीदीन

विक्रीय निष्कान्तरेर्‌ पुनःक्ये सति परिमासाधिक््यं मवति; यथा वा निप्केण्‌

वमानं लम्यते निष्कद्येन ठं सारभूतं दुकरलम्‌। तथा मोगाधिक्यं भोग- सारतमं वा कम्मान्तरेण द्रषव्यम्‌ ब्रह्महत्याया अपि मानस्याः स्वस्पाया वदनम तरणम्‌ कायिक्यास्तु महत्या अश्वमेधेन, इति नारित अन्या- न्क्यम्‌।

॥१

३२ सायसाचायेकता

योऽपि, "नान्तरित्ते दिवि इत्यप्रसक्तपतिपेध उद्‌ाटहतस्तथा "वचरः प्रावाहणिःः इत्यनित्यसंयोग उद्‌ाहतस्तन उभयवोत्तरं सूचयति- सन्त्ययोयंथोक्तम्‌ ! ( ञं० ११२१८ ) अन्त्ययोरुद्‌ाहरणयोरु्तरं पुर्व्वोक्तमेव द्रव्यम्‌ ! अन्तरिश्चादौ चयननि न्दारूपोऽथेवादा “हिरण्यं विधाय चेत्तव्यम्‌ः' इत्यस्य ( त° सं० ५२७११ ) विधेः शेवः अतोऽ 'स्तुत्यथंन विधीनां स्युः" इट्युक्तयेव उत्तरम्‌ 1 अन्त- र्ति चयनपरसक्त्यभावःत्‌ तचनिन्दा नित्या्ठुवदोऽस्वं तेनापि विधिः स्तोतुं शक्यते, निव्यसिद्धार्थादवादिना वायोः क्ेपिष्त्वेन पश्विधेः स्तुतत्वात्‌ 1 “ववर प्रावाहणिरकामयत? इव्यवापि ववरनामकः कञ्िदनित्यः पुरखुपो मनुष्यो विवक्षितः, किन्तु ववरष्वतियुक्तः भक्यंण बहन्तीलो वायुञ्व- हारदन्तायां चित्य प्व अर्थो विवक्षितः 1 इत्येतदुत्तरं भथमपादस्य अन्तिमाधिकरणे पोक्तम्‌ 1 तस्मात्‌ सम्भावितदोपाणां परिहतत्वाह्‌ अथेवादार्नां नास्ति अधरा मार्यम्‌ | तत्र संग्रहन््ोकाः वायुर्वां इत्येवमादेरर्थवादस्य मानता विघेयेऽस्ति धमं कि कि वासौ तच विदयते विध्यथवाद्‌श्तच्द्‌नां मिथोऽपेष्लापरित्तयात्‌ ? नास्त्येकवाक्यतो धम्मं धामाणए्यं सम्भवेत्‌ कतः विभ्यथेवादो साकाङ्ो प्राश््त्यपुरूपा्थयोः तेनैकवाक्यता तस्माद्‌ वादानां ध्मासता ( जं० व्याण्मा० २1२६} तदेवं वेदे विचमनानां मन्वविध्यथंचाद्‌ सागानाम्‌ अधरासाप्ये कार्णा- भावाद्‌ वोध्कानां तेषां प्रामाख्यस्य स्वतस्वाङ्गोकाराच छत्खस्यापि वेद- स्य पमणण्यं सिद्धम्‌ «८ वेदस्य पोस्पेयत्व- ननु एवमपि वेदस्य पौरूपेत्वेन विधरलम्भक- निर्सनपुरःसरमपोर- वाक्यवद्‌ अप्रमाण्यं स्यात्‌ ! पोद्पेयत्यं प्रथम- पयत्वसिदि पादे पूवं पश्चतवेव जेविनिः सूचयामास-- < चेरदश्चिके सन्निकर्षं पुख्पाख्या ( जे° ।६।२७) पके चादिनोवेदाय्‌ प्रति सन्निकर्षं मन्यन्ते कालिद्‌ासादिभिर्चिमिता- नां रघुवरादि्न्यानां समुच्याथेश्चकारः ये द्यत्र टृान्ततया समुंची- यन्तः यथा रघुव्तादय इद्ानीन्तनास्तथ्या वेदा अपि। नतु वेदा अनादय अत “पव व्रेदक्चत्वेन पुरा आख्यायन्ते 1 वेयासिकं भारतं चाटमीकीयं समायणदिप्य्च यथा भारतादिक्वैन्वेन व्यान्ताद्‌य अ्ल्यायन्ते तथा काठकं कोधुमं तैचिरीयमिन्येवं तत्तदेद्‌ शाखाक्त्तव्वेन कयादोनामास्यातत्वाद वेदाः पोस्येयाः |

त्रचदमाव्योयन्नमणिक।

"८५

रर निनयन यय लनः अनाना क्न्येन ध्यु धनाना जना चनय्‌(चायपाश्यायवत्‌ सखम्धरदाययवत्त कन्येव कनन दिन्नं ~ नमस्या ८1 दद्य सद-यन्नः शूखयति- धनत्यद्र्नातच | (= २।६।२

4 (न

सि ~ > =, यन्तः वाचल्वा उरचगमाचन्ला दवनानरया वद्‌ यन्त श्वरः श्रवद्‌

(न [क रक्ामग्रतः { द° सं अ} श्द्ुदुदविन्द्‌ आदालकिर्ायम = ~~ ११९०५ <> +> ~~ ----------~ {रद्र (तै अनादा) इति 1 त्था छि तद्ादुस्य्ः पन्छरमावाद ~. + % [वि चस

~~ --~ ----=--- ==> श(द्यन्चान ------~---- {4 चत्‌ चदचपव्य पाल्य) वृाक्ठन्वान्‌ , कालिदास्मदिः

पाक्य इत्यादचमाचसम ञ्यः सव्यक 1444 दत्य चुनाचस्द्ध्यःयच्यक्ारः |

दद्ध खिडान्तं स्वृल्य्मत--- 1 £ उक ठु एन्यपर्वन्वम्‌ (=° २२२६ } ~ {~ -~~ =-= ~ : + 2 तद्‌ नानानःवलत उण्य्रान) वदनप्य दा द्र पयय (त सात्‌! 8 प्तुक्रष्ध्न <" इव्नन्नर्‌ भनचाादरन्त पा्ाचस् मृत्स्न "यातू प्रच्चिक्ः नु यन्द यवत क्लम्द्रन्यःःः ( दे टप) इन्यस्निन्‌ यृ ध्यातपचिङ्ध्रष्देन सम्यधः ~= > नरयन नद्रलयसन्यरन्धानां = ~ न्वपा पव्दचः वद्राचो तदरेयाना नदुभयस्यन्यन्य्यानां चं निन्यत्यं ग्रातदुय उर नात्रा पन = 1 1 धिक्रन(ाञयाथिक्ररणाभ्यादयपं दत्न्यान्‌) क्म वाहं दायकाय न्वत्र ना्तास्त्वारद्कय खन्तरदृत्यणवतच्तनात्‌ सयदुपपद्यत इन्यु- चर्य 4 !- शाख्या व्रचचनात्‌ ( = २।१।२० } > = 0 यदं = दयमाल्ताया यादः | ततः पर्‌ चंवनाद्यानत्यदृश्च वदु चयं [4 + ~> (वच यनन्यानद्धय उत्तर सद्या ^ थत न्ययन छ, +. \ “~ 4 श्रति्लामान्ययत्ठन्‌ | ( =० 2121६ ) नः # [* नर) ~

1 पर ठतग दच्छथ्यसप्याच्यनत नद गद्या देवमाता

1 ~

्रवद्विः। ववरष्यनिदुक्छस्य पवदयस्वासावेस्य चचार चकं

गष्न्ल्वात) (भ ~ 9 ¢. [नी खन्या

चटुः वद्‌ करचिद्रेवं श्रयत, ध्वनस्यनयः खन्यमाचखतःः सपाः खन्यमा- [0] (४ ^ श्य 8 1 दवदत | देय पन यनानःमचनचन्तात्‌.; श्षातः चततनन्यध्ि चिद्या गदिनत्यान नन = जम = नति = 11 "दणत्नान्‌ ठे तदयुष्ानं खन्मताते यता जक्छका यनि चद्रेकराणि उन्यद्-मर्दालयाय्यन्तव्रन्यान ~ द्त्याराद््य उन्तर (6 ` 41, ननन लयाक्यनयद्रणा-तान्‌ केनण्छतु तता चद्‌ दत्वाय उच्चर्‌

देत अविनियोनः स्यान्‌ कर्म्मणः समत्वान्‌ ( ऊं० १२२२ )

1 = कनद

= विपो दितयकेति पैयस्वथोचर्‌ 1 निवदेति पाट पास्मेचिव्न न्तद ४९ 4 रदगत्ः यन्या द्व न्ति गावात नका (ल सदरमी छरति रसि) पयन्य रान (ना न्नददस्य 411

~

३४ खाया चार्थतः "`

यदि ज्योतिष्ोमादिचाक्यं फेनचित्‌ पुरुषेण क्रियते तद्‌नीं छृते तस्मिन्‌ वाक्ये स्वगखाधनत्वे ज्योतिध्िमस्य विनियोगो स्यात्‌ ; साश्यसाधन- भावस्य पुरुषेण क्ातुमशक्यत्वात्‌ श्रूयते त॒ विनियोगः, "ज्योतिष्टोमेन स्वगंकामो यजेत्‌, इति चैदुन्मत्तवएक्यसदरशं, लोकिकविधिवाक्यवद्‌ 1व्यकरणेतिकन्तंग्यतारूपेदख्िधिरशेख्पेवायए--भाएवनाय्‌ा अवगमात्‌. ! रोके रि बाद्यणान्‌ भोजयेदिति विधो, कि, केन, कथसित्याकाङ्ा्या, तसिमुदिश्य, सद्नेन द्रव्येण, शाकसूपादिपरिविषणस्रकारेण इति यथा उच्यते, तथा ज्योतिष्टोमविधावपिं, स्वगेभुदिश्य सोमेन दग्येण दौीक्षणीयाचङ्ञोपकार- प्रकारेण इत्युक्ते कथमुन्मत्तवाक्यसद्रशं भवेदिति वनस्पत्यादिसत्ववाक्य- मपि तत्सद्रशम्‌, तस्य सत्वरकम॑णे ज्योतिष्टोमादिना समत्वात्‌ धयत्‌ (पये हि शब्दः शब्दार्थः इति न्यायविद्‌ आदुः ज्योतिष्टोभादिवाक्यस्य विधायकत्वाद्‌तुष्ठाने ताप्यम्‌ , वनरपत्यादि खत्रवाकषयस्य अर्थवादत्वात्‌ प्रशंसायां तात्पर्यम्‌ 1 खा अविद्यमानेनापि कर्त श्यते 1 अचेतना अवि दासोऽपि सत्मयुष्ठितवन्तः किं पुनश्चेतना विद्धासो बाह्मणः. इति सत्न- स्तिः शचण्कारः पूर्वप्तोक्तस्य चाक्यत्वहेतोः कर्थजुपलम्भेन पराहति समुच्चिनोति तस्माद्‌ नारित वेदस्य पोरुग्रेयत्वम्‌ ! अत्रेति संग्रहन्छोको- पोरुषेयं वा वेदवाक्यं स्यात्‌ पौरषेयता काटकादिसमाख्याना टू बाक्यत्वाच्चान्यवाक्यवत्‌ समाख्यानं प्रवचनादू वाक्यत्वं ठु . पराहतम्‌ तत्कर्चलु पलम्सेन स्यात्ततोऽपोरखुषेयता 1 ( ज्ेगन्या०्मा०१।२।८ ) नयु भगवता चाद्सयरेन चेदस्य ब्रह्मकाय्यैत्वं सूत्रितम्‌ , “शाख- योनित्वा ट्‌" इति चे १।९।३) ऋमूतरेदादिशाखकारणत्वाहू बह्म सव्वंन्ञ- मिति सुार्थः वाढम्‌ नैताचता पौरुषेयत्वं भवतति, मयुप्यनिर्मितत्वाभा- चात्‌ दद्रशमपोरूषरेयत्वमभिग्रेत्य व्यवद्ारदशायामाकएशादिवन्‌ नित्यत्वं वाद्रायरेनैव देवताधिकरणे सूतधरितम्‌;, “अत एव नित्यत्वम्‌, इति ( बे० सू० १।२।२६ ) श्रुतिर्घ्रती चात्र भवतः-““वाचा विरूपनित्यया? इति तिः (चऋ० राजपद) ५अनादिनिधना नित्या वागुत्खषए्या स्वयम्भुवा" “इति स्मृतिः" ! तस्मात्‌ क्तं दोपशङ्गाया अयुदयात्‌ मन्तव्राह्मणात्मकस्य वेदस्य नि्चिष्नं घामारयं सिद्धम्‌ भन्त्र-चादणयोः नु मन्वव्राह्मणात्मकत्वं वेदस्य युक्तम, तयोः स्वसूपनि्भेय स्वरूपस्य नि्॑तुमशक्यत्वात्‌। मैवम्‌ 1 द्धितीया- ध्यायस्य भ्रथमपादे सत्तमाटमयोरधिकस्णयोर्मिणीं तत्वात्‌ 1

( १) अनादिनिधना नित्या वागुवखा स्वयम्थुचा आदो वेदमयी दिन्या यत्तः सर्वाः प्रवृत्तयः घद्यसूप्रशा्ुरभाप्ये एतम्‌ (१-३-८२)

ˆ चग्वेद्भाष्योपकरमणिका ६५

स्तमाधिकरणमार्चयति- भहे बुध्निय भन्तं दति मन््रस्य लक्षणम्‌ नास्त्यसित वास्य नास्येतद्व्याल्यादेरवारणात्‌ याज्ञिकानां समाख्यानं लक्चसं दौोषवज्ञितम्‌ तेऽ्वष्ठानस्मारकादौ मन्त्रशब्दं प्रयुञ्जते ( ज्े० न्या० मा० २।१।७ ) आधान इदमान्नायते--“अहे वुध्निय मन्तं मे गोपाय ( तै० त्रा० १२१८६ ) इतिं 1 तच्‌ मरस्छस्य लक्तणं नास्ति, भन्याध्यतिन्यात्योवारयि- ठमशक्यत्वात्‌ विदहिता्थामिधायको मन्न इ्युक्ते "वसन्ताय कपिञ्जला- नमते, इत्यस्य 1 ( वाण्सं० २६)२० ) मुरस्य विधिरूपत्वाह्‌ अन्यापतिः। ' पृननदेतुमन्च इत्युक्ते वराह्मरोऽतिब्याचिः प्वमसिपदान्तो मम्ब उत्तमपुरषा- न्तो मनं द्यादिलक्षणानां परस्परमव्यातिरिति चेत्‌ ? मैवम्‌; याकिकसमा- स्यानस्य निदोंपलक्षणव्वात्‌ त्च समाख्यानम्‌ अयुष्ठानस्मारकादीनां रन्नत्वं गमयति; (उरु प्रथस्व; ( तै° सं० ६।२७।३ ) इत्यादुयोऽचुष्टान- , स्मारका५अच्रिमीड पुरोहितम्‌ ऋ०९।१।) इत्याद्यः स्त॒तिरूपाः, षे त्वा, (बाण्से० ११ ) इत्यादरयसूवान्ताः अग्न आयाहि वीतय (सा०सं० १।१) स्यादयः भाम्रणोपेताः } “अची दीन्‌ विहर ( तै० सं० ६।३।९।२ ) इत्या- दयः परेपरुपाः 1 "अधः स्विदासी दु परस्विदासीद्‌ ( ऋछ० १०।१२६।५ ) स्याद्यो विचाररूपाः “स्येऽम्विके अम्बालिके (न श॒ लयति कश्चनः (वा० सं० २३।१८ ) इत्याद्यः परिदेवनरूपाः। पृच्छायि त्वा परमन्तं प्रथिव्या, ( चा० सं० २२।६१ ) इत्याद्यः प्रनरूपाः। ध्ेदिमाहुः परमन्तं प्रथिव्याः (बाण्सं० २३।६२) इत्याद्य उत्तररूपाः एवमन्यदपि उदाहार्यम्‌ अत्यन्तविजातीयेषु समास्यानमन्तरेण नान्यः कश्चिद्‌ दुगतो धर्म यस्य लक्षएत्वसुच्येत ल्तएस्य चोपयोगः पू्वांच द॑ गितः-- ऋषयोऽपि पदार्थानां नान्तं यान्ति पृथक्त्वशः लक्षन तु खिद्धानामन्तं यान्ति विपथ्ितः तस्मादभियुक्तानां मन्त्ोऽयमिति समास्यानं लक्तणम्‌ भष्टप्राधिकरणमारचयत्ति-- १नास््येतुव्राह्यशेत्यञ लक्तएं विद्यतेऽथना

नास्तीयस्तो वेद माग इति क्पेरभावतः नि 1 ( १) “पतदू्ादमन्यव पञ्च हरवीषी" त्यत्र बराह्मणस्य रक्षणं किमपि नास्ति, अर्थवा बि- 1 (संशयः) यन्तो वेदभागा इतिह सेरमावाद्‌ भव्या्तिव्याप्तयोनिवारणसगायम्‌, सतो बाणस्य र्णं नास्तीति ( पूपः ) वेदस्य हौ भागौ मन्त्रश्च व्ादणवेति, म- चमागः पूर्मुकत, अतस्तदतिर्ं बाद्यणमिति ्ाङ्णस्य रक्षणं स्घेदिति ( सिद्धान्तः )1

३६ खायणचार्य॑छृता -

मन्त्रश्च बाह्यरश्चेति द्धौ भागो तेन मन्तः] अन्यद ब्राह्यणमिच्येतदूं भवेद बाह्यणएलत्तस्‌ ( जे० त्या० मा० २।१।८ ) चातुर्मास्येषु इदमाम्नायते, ^“पतुव्राह्मणान्येष पञ्च हवींषि, इति ( त° सं° ३।७।१।१ ) सत्र बाह्यणस्य लक्तणं नास्ति कुतः ? वेदभागानाम्‌ इयत्तानवधारण॒न ब्राह्यणभागेषु लक्तएस्य अव्यास्यतिव्याप्त्योः शोधयि" वमशच््यत्वात्‌ पूर्वोक्तो मन्बभाग एकः भागान्तयणि कानिचित्‌ पूः दाह कते संगरहीतानि-- ` 1 दहेतनिव॑चनं निन्द्‌ प्रशंसा संशयो विधिः परक्िया पुयकरपो व्यवधारण्कर्पना

"तेन दयन्न क्रियते, इति ( श० बा० २।५।२ रदे ) हेतुः, ““तदध्नो द्धित्वम्‌? (ते० सं० २।५।३।२) इति निवंचनम्‌ “अमेध्या चै माषा? ते० सं० ५।१।८।१ ) इति जिन्दा "“वायुवे क्षेपिष्ठा देवता? इति ( ते० सं० २९।१।१ ) प्रशंसा 1 “तद्धयचिकिंखज्‌ चहवानी साहौपाम्‌ उत्ति" ( ते० सं० ६।५।७।९ ) संशयः यजमानेन समभ्सितोदुस्बसयी भवति? ( वैन्सं० ६।२।१०।३ ) दति विधिः ५माघरानेच मह पचन्ति इति पररूतिः ! “पुरा ब्राह्मण अयैषुण्रेति तै सं० १।५।अ५ ) पुखकट्पः 1 व्यावतोऽण्वान्‌ ` ्रतिगरहीयात्‌ तातो वारुणश्ितुष्कपाललान्‌ निवेपेदह्‌" ( तै० सं०° २।३।१२१)

< इति चिशेपाचध्रारणकलपना एवम्‌ अन्यदपि उदाहार्यम्‌ |

हेत्वादीनासनम्यतसं ब्राह्यणामति लक्षणमिति लक्षणम्‌ , मन्ये ४९ चपि हेव्वएदिखद्ध ए्वात्‌-५इन्दवो वासुशन्ति हि” ( ११२७ ) ““उद्‌ा- पुस॑दीरिति रस्मादुदकञ्युच्यते ( अ० ३।१३।४ ) इति निवैचनम्‌ "मोघमन्नं विन्दते अपरयैता” इतिः( १०१११७३ ) निन्दा 1 अचिमंद्धां दिवः ककुद्‌" इति ( &।४४।१६ ) प्रशंसा “अधः स्विदासी दुपरस्वि- {स्विदासी ठू"? इति { १०।९२६।५ ) खंश्ण्यः } “वसन्ताय कपिञ्चलाना लभत ( बा० सं० २७।२० } इति विधिः “सहखमयुत ददद्‌" ( ऋ° २८।२१।९२८ ) इत्ति परशृतिः “यज्ञेन यज्ञमयजन्त दंच! ( ऋछ० १०६०1१६) इत्ति षुसकल्पः 1 इतिकरणएवहुलम्‌ ब्राह्मणमिपिं चेत्‌) न, “दइत्यादद्‌ा इत्यय-

था रत्यपचर इति ब्राह्मणे गायेट्‌ %त्यस्मिय्‌ ब्राह्मणेन गातव्य मन्ते | श० १२।१।५।६ ) ऽतिव्याततेः $ श्त्याहः इत्यसेन वाक्येन उपनिवद्धं ? नराह्मणसिति चेत्‌ ? न, “राजा चिद्‌ यं भगं भक्तीत्याह, ( ७।७१।२ ) भ्यो सा सत्ताः शुचिरस्मीत्याह” ( ऋ° ७1१०६1१६ ) उत्यनयोंमन्नथोरति स्याः 1 आसश्वितयिकारूपं बाह्यणभिति चेत्‌, न, यमयमीसवादसू्तादा- जछ० १०९०) चतिन्याप्ेः।

तस्मान्‌ नास्ति ब्राह्यणस्य लत्तणएसिति पराच्त घरूमः-मन्वव्राह्मएरपौ

ऋभ्वेद्‌ भाष्योपक्रमणिका ३७

द्वावेव वेदभागावि्यज्ञीकारान्मन्बलत्तणस्य पूवं मभिहितत्वाह्‌ अवशिष्टो वेदभागो वब्राह्मणमिस्येतल्न्तणं भविष्यति तदेतद्वक्तणएदधयं जैमिनिः सूत्रयामासखं-- तच्चोदकेषु सन्बाख्या ( जे० ३।१।३२) पेषे .नाद्यणण्शब्दः ( ज० २।१।३२ ) तस्मिन्‌ वेदे केषुचिद्भिघायकेषु चाक्येषु मन्त इति समाख्या सम्प्रद्‌ा- यविद्धिव्यंबहठियते-मन्नानधीमह इति 1 मन्बव्यत्िरिक्तभागेषु तु ब्ाह्मण- शन्दस्तै्य॑वहयत इत्यथः ~ ^ तल ब्रह्मयज्ञप्रकरणे, मन्जन्राह्यणव्यतिरिकता इतिदहयसादयो भागा आ- ` प्नायन्ते- "यह्‌ बाह्यणानीतिहासान्‌ पुयणानि कल्पान्‌ गाथा नाराशंसी? रिति. ( त° आ० ₹& ) ; मैवम्‌, विप्रपरिवाजकन्यायेन ब्राह्मणएाद्वान्तर- भेद्‌ानामेव इतिहासादीनां परथगसिधानात्‌ “देवासुसः संयुक्ता आसन्‌; दत्यादय इतिदाखाः “इद्‌ चा अग्रे नेच किश्चनाएसी टू" ( तेण ना० २।२।६।१) दव्यादिकं जगतः प्रागवस्थासुपक्रस्य सगेप्रतिपाद्‌कं -जर्वः-प्रस्मवस्थ्म- सुपक्रम्य-खलये्रतिपादकंः वाक्यजातं पुराणएम्‌। कल्पस्तु आरुणकेतुकचयण- प्रकरणे समाच्लायते-- “दति मन्ञा कर्पीऽत ऊदध॑म--यदिं वलि ह॑रेत्‌ +" , ( त° आ० १।३२२ ) अथिचयने “यमगाथासिः परिगायति इतिं ( तेन्खं० ५।१।८।२ ) विहिता मन्बविक्तेषा गाथाः मचप्यन्चत्तान्तभ्रतिपादिका ऋचो नायशंस्यः ! तस्मान्‌ सन््रत्राद्यणष्यतिरिच्भागाभावन्‌ मन्वब्राद्यसस्व- रूपस्य लघ्ितत्वात्‌ तदुभयात्मकत्वं वेद्‌ स्य सुस्थितम्‌ लक्षणपूवेकं मन्तावास्तरविशेषश्च तस्मिन्‌ एव पादे इत्थं विचारितः मन्ना त्रेविध्य- नकूसामयज्ुषां लद॑म साङ्यादिति शङ्किते विचारः पादश्च गीतिः प्रश्िष्टपाड इत्यस्त्यसङ्रः इद माघ्रायते,--“अहे बुध्निय सन्बरं मे गोपाय यस्छषयस्यैविदा विदुः” ऋचः सामानि यजृषीति चीन विदन्ति इति अविद, चिविदां सस्वन्धिनो ऽध्येतारस्पैविद्ाः ते यं मन््भागसगादिरूपेण अिविधमाहुस्तं गोपाय इति योजना तच च्रिविधानामश्ुक्सामयजचुबां व्यवस्थितं लक्षणं नारित ; कुतः ? साङ्कयस्य दुष्परिहरत्वात्‌ अध्यापक्प्रसिद्धेषु ण्वेदादिषु पठितो ? "मन्त इति दि लक्षरं वक्तव्यम्‌| तचच खङ्कीणे, “देवो चः सवितोत्पुनात्वशचद्रेण पवित्रेण वसोः सूर्य॑स्य रद्विमिभि"' सिस्ययं, मन्नो यज्चकदे ( तै०सं० ९।१।५।९) सम्परतिपन्नो यजां मध्ये पठितः तस्य यज्खप्युवमस्ति यदुत्राह्मशे खाचिध्य्चां इति कत्वेन व्यवहतत्वात्‌ 1 "पतत्‌ साम गायन्नास्ते इति प्रतिज्ञाय किंश्चित्‌ सास यज्चवदे ( ते० भा० &।१०।५ ) गीतम्‌ 1 “अक्तितम- | स्यच्युतमसि इति चीणि यजूंपि सामवेदे ( उप० २।१०।६ ) समा- प्नातानि तथा, गीयमानस्य सान्न आश्रयभूता ऋचः सामवेदे समान्ना-

देम सायसाचार्य॑ङ्ता

यन्ते तस्मान्‌ नास्ति लक्षणएयिति चेत्‌, न, पादादीनामसङ्ीसंलक्षए- त्वात्‌ पादेन ध्र्थन चोपेता बृत्तवद्धा मन्ना चः, गीतिरूपा मन्तः सामानि, दृत्तगीतिवजितत्वेन प्र्छिष्टपडितमन्ना यजृषि--इत्युक्तं कापि सङकरः तदेतत्‌ अविध्यं जेमिनिना सूर्येण लक्तितस्‌- तेषाग्‌ यचाथवरोन पादव्यवस्था, ( जे २।१।२५ ) गीतिषु सामाख्या ( ज० २।१।३६ )} शेषे यज्ःशब्द्ः ( जे २1१।२७) एतमेव मन््रावान्तरविरशेषमुपजीभ्य वेदानाष््भ्वेदो यज्ञच॑दः सामवेद इति अविध्यं सम्पन्नम्‌ 1 शरूचिन्तनपूवकं वेदा- तेषां वेदानां सवंषामन्यतमस्य वा स्वप्रक्ञा- ध्ययनस्येतिकतेन्यतया सुसारेण अध्यथनसुपनोतेन कत्तेव्यम्‌ तथा निरदेगः याज्ञवल्क्यः स्मरति- ५: सो वेदो बा वेद वापि यथाक्रमम्‌» इति 1 एकवेद पर्स पिव्पितामहादि परस्पसप्राप्त पव वेदोऽध्येतन्य इत्यभिप्रेत्य "स्वा्यायोऽध्येतन्य” ( ते आ० २।९५ ) इति स्वः शब्द्‌ भाघ्नातः तच्याध्यश्यनं कास्यं किन्तु नित्यम्‌ ! अतप्त पुरुषार्था नुशासने सत्रितम्‌- वेदस्याध्ययनं निव्यमनध्ययने पातात्‌ 1 पातित्यञ्चैवमाघ्ायते,--*अपहतपाप्मा स्वाध्यायो देवपविच्रं चा पतत्‌, तं योऽनूत्छजत्यभागो बाचि भवत्यमागो नाके ।*» ( तेग आ० राप) तदेषाभ्युक्ता-- यरितत्याज सचिविदं सखायम्‌ , तस्य चच्यपि भागोऽस्ति

| यदीं शणोत्यलीकं सोति हि भवेद्‌ खुरूतस्य पन्थाम्‌ ( ऋ० १०७६६)

तस्मात्‌ स्वध्यायोऽध्येतन्य इति 1 अध्येतारं पुरुपं तदीयपयासाभिक्षा- नेन सखिवत्‌ पालयतीति सचिविदह्‌ वेदः ! बहुद्रव्यप्रयाखसाध्यक्रतुफलस्य अध्ययनमा्रेण सम्पादनं तरपालनम्‌ तदपि आन्नायते- भ्यं यं कतुमधीते तेन ` तेनास्येष्टं भवन्यग्नेवीयोरादित्यस्य सायुज्यं गच्छति” ( तै० आ०२।१५ ) इति यद्यपि पतद्‌ बह्मयज्ञस्वाध्यायफलं तथापि य्रहणाथौध्यायनमन्तरेण ब्रह्मयज्ञासम्भवात्‌ तदीयफलमपि सम्पद्यते 1 ईट्रशं सखिविदं वेदरूपं स- खप्यं यः पुमान्‌ अध्ययनमङृत्वा त्यजति तस्य वाच्यपि भाग्यं नास्ति, फले ण्यं नास्तीति किमु वक्तभ्यम्‌ सकलदेवतानां धमस्य परव्रह्यतस्स्य प्रतिपादकं वेदमञुचार्यं परनिन्दादतकलदादिहैतं लौकिकीं वार्ता स्वनो चारयतः स्पष्ट पव वाचि भाग्याभाचः अत पएवाघ्नायते-- “नाङुध्यायान्‌ बहन्‌ शब्दान्‌ चाचो विग्लापनं हि तत्‌ 1” (श० त्रा० १४}अ२]२द)

ऋग्वेद माष्योपक्रमणिका 1 -2&

ययप्यसौ कान्यनार कं श्रणोति तथापि निरर्थकमेव तच्छुवणं तेन सुरूत- मागज्ञानामावादित्यर्थः। स्तिरपि-- ` द्विजो वेदानन्यच कुरुते श्चमम्‌ } जीवन्नेव शाद्रत्वमाश्ु गच्छति सान्वयः ( मण स्प्र० २।१६८)} पवमन्य।न्यपि वह्नि वचनान्यच उद्राहर्तव्यानि 1 < ` `. नय॒, धीते वेदे पश्चात्‌ यध्ययनविध्यर्थं कनं, ज्ञाने सति पश्याटू ` श्रध्ययनप्रवृत्तिसित्यन्योन्याश्रय इति चेत्‌ ? वाढम्‌; अत पव गुरुमतीनुसारिण अआचार्स्यकर्ठकाभ्यापनेन प्रवृत्तिथ॒क्तिं माखवकाभ्ययनस्य महता प्रयासेन सम्पादयन्ति मतान्तराचलारिणस्ठ भकाशात्मादयोऽध्ययनात्‌ भरागेव सन्ध्याचन्दनादिविधिक्ञानवत्‌ पिघादिभ्योऽभ्ययनविज्ञानं णयन्ति यद्यप्य- ध्यापनविध्िप्रयुक्तिर्थदि चा 8 सर्वस्यापि उपनीतैरध्येतव्यो 1 तस्य च. अध्ययनस्य षछाथेत्वम्‌ अच्सग्रहणान्तत्वं पुरुपा्थानु ` शाखने सूनरितम्‌। तानि सूत्राणि तट्द्ुचि उद्‌ाहरिम्वामः अध्ययनस्य द्र्टाथत्वं साधयितुं पृं पश्चयति- अद्र र्था स्वधीर्तिचिहितत्वात्‌

| रटफलसाधने भोजनादौ विध्यदरशनाद्‌ विहितमपि अध्ययनमट्रषर्थ , मवगन्तव्यम्‌ 1 अद्रष्टचिषेो श्रुत इति चेत्त्‌ ? तताह-- | घ्रतच्ूल्यण्यतिदे शः स्वगक्ररपनं बा !

१्रह्मयक्तजपाध्ययनाथवादं निस्याध्ययनेऽतिदिगय तचस्यं घृतक्ल्यादिकं चिसत्तन्यायेन ` फलत्वेन कल्पनीयम्‌ ये तु अथैवाद्‌तिदेशं नेच्छन्ति तेविष्वजिच्यायेनः स्वर्गः कल्पनीयः दरएफलयोः संस्कारभ्रा्तथोः खम्भवे कश्वमद्रण्रकल्पना इत्यत भाह- अयुक्ते संस्कारप्राप्ती 3 ( ) “यदचोऽधीते पयसः कूल्यास्य पितृन्‌ स्वधा अभिवहन्ति य॒द्‌ यजरपि धृतल्य फल्या, यत्‌ सामानि सोम पुभ्यः पवते, यद्वाद्गिरसो मधोः दूल्या»-( तै° आ० २-१० ) (२) रात्रिसत्रन्यायः-रात्रिस्रविधेः एर श्रुतम्‌ , परं तस्य स्तावकेऽ्थवादे फट ` »- श्रूयते-- “प्रतितिष्ठन्ति वा एते, एता राच्रीरपयन्वि” इति, “बह्मवर्चस्विनोऽच्ादा भवन्ति, एता उपयन्ति” इति ({ ताण्डयमहावराह्यणम्‌ २२३--१४-७ ) एतदा वादिक्ं फलं प्रत्यासन्नत्वाद्‌ रात्रिसन्नविधेः फएर्त्मेन कल्पनीयम्‌ ! मी० ४1 १०--१९ (३ ) विघजिन्नव्रायः--“ विश्वजिता (यागेम) यजेत इत्याम्नायते परमन्र किमपि करं. श्रूयते; किमपि फलमवश्यं कल्पनीय, यतो भावना माज्यमयेक्षते विश्वजिन्नास्ना यागेन कि इर्यादित्याकाडश्चाया अनित्रतेः, अन्यथा निरधिकारत्वाद्‌ अनुष्ठाने विधिनिरथेकः स्यात्‌ स्वमस्य दुःखमिश्चितत्वाभावान्निरतिशयसुखत्वाच सर्व्वपुरुपाणामिश्त्वात्‌ सर्ग ॒एव विश्वजितः फम्‌ मी० ।२३। १९--१६। `

सायणाचार्यङ्ता

संस्छृतस्वाभ्यायस्य कचित्‌ क्रतो विनियोगाद शनात्‌ पाकेः स्वयमपुर- पार्थत्वाच इत्यथः स्वाध्यायपाषिरथधरमितिहेतुतया पुरुषा इत्याशङ्य विषनिरहैरणादिः काय्यं विनियुक्तमन्नवह्‌ अध्ययनाङ्गतया विनियुक्तानां ज्योतिष्टोमादिः वाक्यानां स्वाथं पामारयमित्याह- अन्याङ्ं ना्थप्रमापकम्‌ अध्ययनविधायकं तु वाक्यं स्वविहिताध्ययनेस्यैव अङ्गमिति कृत्वा स्वाथेप्रमाणसित्याह- अध्ययनवाक्यमनन्याङ्गम्‌ 1 नु पएवमद्रष्ार्थत्वे कम्मेकारकभूतस्वाध्यायगतफलाभावाद्‌ अध्ये तन्यः, इति कमवाची तव्यप्रत्ययो विरूध्येत इत्यत आह-- खक्तवत्‌ करणपरिणासः “सक्तृुदोति?? इत्य कमेकारकत्वेन प्रधानभूतान्‌ सक्तुच्‌ उदिश्य दोम- संस्कारविधाने प्रतीयमानेऽपि होमसंस्छतानां भस्मीभूतानां सक्तूनामन्यघ्न विनियोगाभावात्‌ कम्मभ्राधान्यं हित्वा सक्तभिैरोतीति करणपरिणामः कृतः पवमच्रापि कम्मंगत्तयोः संस्कारप्राप्तयोरसम्भवात्‌ स्वाध्यायेन अधीयीत इति वाक्यपरिणामः कत्तंभ्यः | इदानीं टएफले सति अट्ष्टफरुं क्यमिति सिद्धान्तयति- द्रष्तुं नद्रष्टम्‌ किं तद्‌ द्रष्टफलमिति तदाह- द्रौ प्राप्तिसंस्कारो ` अक्षरप्रा्तेः परम्परया पुरुषार्थत्वमाह-- प्राप्त्या्थवोधः जायते इति शेषः भोजनादिवट्‌ अन्वयव्यतिरेकसिद्धत्वाट्‌ विधिवेयर्थयमिति शष्कः

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(((विधिनिषमच्या दि ` “यत्तुक्तं संस्कृतस्य स्वाध्यायस्य विनियोगादर्थैनान्न संस्कार इति, तत्राह--

, सखंस्कारसिद्धिः क्रत्वभ्ययनविधिद्धयोपाद्‌ानात्‌ 1

करतुविघयो दि विपयाववोधमपेश्चमाणास्तदववोधे स्वाध्यायं विनियु

खते सेश्ष्ययनविधिश्च लिखितपाखादिव्याचरच्या अध्ययनसंस्छृतत्वं स्वाध्या यस्य गमयति 1 अत उसमयोपाद्‌ानात्‌ तत्किद्धिः। नच, संस्कारो नाम अद मतिशयु सच स्वाध्यायगतः, तव्यधत्य येन स्प्रपदपात्तमछृत्य्थभूताभध्ययनापरक्ताया भावनाया अपृवाभिधानात्र

छग्वेद्भाण्योपंकमणिका। ४१

ततः कथं स्वाघ्यायस्य संस्कृतत्वं इति तच्ाह--

तव्यः कम॑गाद प्राची

अन्न तव्यप्रत्ययस्य कर्मांसिधायितया कर्मकारकस्य स्वाध्यायस्य तव्य- प्रत्ययं ति प्रक्ृत्य्थाद्ध्ययनाद्‌पि प्रत्यासनचत्वात्‌ स्वाभ्यायगतमेव अपूर्वं तन्यग्रत्ययो वक्ति, अपूर्वस्य श्राल्थैजन्यत्वनियमेऽपि तदुपर््तत्वानियमा- दिति भावः। |

यच्ोक्तमन्याद्ः नार्थ॑प्रमापकमिति, तदसत्‌ , यतो मन्बणां स्वतन्ाद्रप- शपाणां तथात्वं युल्यते 1 इह त॒ स्वाभ्यायाधितमट्ृण्रम्‌ ; तस्य स्वाध्याय- -.यताक्चरसामश्येखिदयाचवोधे फले सति फलान्तरकल्पनायोगात्‌ प्रामा- रयस्य उपवंहकमेव अट्ट, त॒ प्रतिवन्धकमित्याह-

स्वतन्नाद्रष्टशेपत्वाच स्वाथध्रम्‌ा प्रतिवभ्यते

सक्न्यायेन कम॑कारकप्राध्रान्ये परित्यक्ते स्वतन्बाद्रष्रमेव अच्रापि स्यादिस्यचह-

यथाश्रुतोपपत्तेनं सक्तन्यायः

सक्तुषु गत्यभावाव्‌ श्रुतं परित्यज्य अश्चुतं करन्यतां नाम नेह तद्‌ यक्तं, प्रदररितत्वादित्य्थैः

इस्थमभ्ययनविषधेद्ंराथैत्वं थस्ाध्य अर्थाववोधपयैन्ततां निराकन्तं पूरं पश्चयति--

श्रमर्थनिर्ण॑यं भट्गुरू विधे; पुमर्धावसानात्‌।

सवं विधेः पुरपाथैपथेवसायित्वनियमाद्‌ अचापि पुखपार्थभूतं फकल- वद््थैनिश्चयमयमध्ययनचिधिप्रयुक्तं मद्गुङू मन्येते 1

नञ, खकृदध्ययनादू आचरृत्तिसदहितादू्‌ वा अ्थनिश्चयो नोपलभ्यते इत्याद्य, तथा सति तत्सिद्धये सोऽध्ययनविधिरर्थनिग्यदेतुं विचारं कटपयिण्यति इत्याह-

विचारमाक्चिपेत्‌

नु स्वविध्रेयतदुपकारिणोरेव विधिः प्रयोजकः इति सर्वजन नियमः, तथा सति, अताद्रशं कथमत्र अध्ययनविधिरात्तेपुस्यतीत्याह--

अविधेयादुपकायत्तिपोऽवध्रातानरत्तिवत्‌

“व्रीहीन्‌. अवहन्ति इत्यत्र अवघातमाजं चिधेयं, तदाच्रत्ति तस्या अधत्वर्थत्वात्‌ नापि खा विधेयोपकारिणी, अन्तरेण आव्रसि सङृन्मखलघाताद्‌ अवघाततसिद्धेः ! तथापि तख्डलनिण्पत्तिफलसिद्धये विधिराचत्ति यद्वहू आचित्तेप चत्‌ पकृतेऽपि अवगन्तव्यम्‌

नयु वेदमाचाध्यायिनोऽथांचवोध्ाचुदयरेऽपि न्याकरणाज्गसदहितवेद्‌ा- भ्याचिनस्तदुदयसद्‌ भावात्‌ तं भरति व्यथं विचारं विधिनं कट्पयेदित्या-

&रे ` ` सषयणाचार्यृर्ता

शङ्थ अर्थगतविरोधपरिह्यराय अपेक्षित एव विचार इत्य ह--

साङ्गाध्ययनात्‌ तदभावे विचायोऽ्थवियोधापवुत्‌। -सिद्धान्तयति-

प्राप्तस्तु गवादिवत्‌ पुमथत्वाद्‌ विधिस्तदन्तः

यथा फलभूतस्यगक्षीर देह॑तवो गवादयोऽपि पुरुषैरश्यन्ते, तथा फल- वद््थाचवोधहेतोरश्चरप्रापेरपि पुरुषार्थत्वात्‌ अध्ययनविधिरक्षरप्ाप्त्यव- " सानोऽवगन्तव्यः

नयु अक्षर्रातः पुरुषार्थत्वं फलवदर्थावनोधप्रयुक्तं चेत्‌ तहि तद्रोधस्य सुख्यपुरुषाथेत्वाह्‌ वोधान्त एव विधिः किं स्यादित्यत आद्‌--

फलवद्‌ वोधान्तत्वेऽध्ययनाकात्‌ खयम्‌

बोधस्य हि फलं क्माचुष्टानम्‌ तथा सत्ति यस्थ ब्राह्मणादेयंस्मिन्‌ श्यृह- स्पतिखवादौ अधिकारस्तस्य तदूवाक्यमाच्राध्ययनं स्यात्‌,न राजसूया- दिवाक्याध्ययनम्‌ , तच प्रदत्यादिफलभावत्‌।

स्वपन्ते त॒ नायं दोष इत्याह-

करेतस्नप्राप्तिजंपाथां

अघोधकत्वे अर्थाोध पव सिध्येदिति शद्धनीयम्‌ , प्रमाणस्य प्रमेययोधकत्वस्वाभान्यात्‌, लोकिकाक्षवाक्यानामस्तरेणेव विधिवोधकत्व- (न --

लोकवन्नेजो बोधं नु बोधस्य विधिफल्वे वोधकामञुदिश्य विधातं शक्यत्वात्‌ सुल स्यादित्याशङ्क्य, प्रा्िकाम उपनी ताणए्रवपेव्राह्यणोऽधिकारी लम एव इति परिहारं स्पष्टत्वादुपेक्य वोधस्य काम्यत्वं दुपयति-- सोऽकाम्यः प्राग्वोध्यमानाभानयोः घोध्यस्य अग्निहोादिलक्षणवेद्‌ाथैस्य अध्ययनात्‌ प्राक्‌ खन््योपास- दिवत्‌ पित्रायुपदेश्वत पव भाने सिद्धत्वादेव सोऽथेवोधो काम्यः अभाने कामयितुमशक्यः, ज्ञाते एव विषये कामनानियमात्‌ ` .ननु सामान्यतो ज्ञाने विशेपतो बुशत्सा सम्भवति ¦ यद्धा विशेषतोऽपि पिता पदेशाद अवगते सति ओपदेशिकल्ञानस्य ` धामारयनिंया पुनर्वोध- कामना युक्तैव इत्याशद्भुय, पवमपि अर्थावचोधसुद्रिश्य अध्ययनयिधानं सम्भवति इत्याद-- . उदेशयोगात्‌ | अग्निरोजादिविेपल्लानानां तावदेकवुद्या विशेषाकारेण उदेशः सम्भवति, श्रनन्तत्वात्‌ ; समाल्याकारेण उदरे सामान्यमेव विधिफलं स्यात्‌, नतु ज्ानविष्तिषः ततो सोदश युक्तः 1

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खायताखार्यद्नदाः

योऽयं इत खक्लं भद्रन्ते नाक्त्तेतिं हान्विधरतपाव्मा 7 यद यदी तमविकातं निरदेनंच शव्द्यते 1 अलरनातिव नाविव गुप्ते तज्ञ्वख्ति कहिचित्‌ ( सखंदि० अ० ३) अस्मिच.मन्नद्रय ध्योाऽ्थंज्ञ इदिःत्यनेनेव अर्थेन वेदार्थ्वानं श्रन्तस्यते इतरे यर्धच्चन छ्ञानयादित्यं चिन्यतरे1 यो वेद्यं जानाति सोऽभि पापक्तय

लाक खक्तलं श्रेयः भराप्नोति 1 त्था, तेन ज्ञानेन पापद्धय सति न्तः स्वगं प्राघ्नाति 1 वदेव पहिच्प्मिकं ज्ानफलं कच्िरीया मन्नोद्धाह्र्तेन वदीयवातपर्याभिधायविव्राह्लर॒न स्पष्टीचक्रुः--^वदेपाभ्युक्ा-यि अर्वङ्िति

चा पुरस्‌ वेदं विद्धा्मभितो .व्रदन्त्यादिंत्यमेव ते परिवदन्ति, सर्व्व ऽग्निं दवितीयं वृतीयं दंसमिति

“भ्यावतीर्वै देवतास्ताः सर्व्वा वेदविदि ब्राह्मे वखन्ति 1 तस्माद्‌ नाह्- रसेभ्यो वदंविदरभ्या दिवे दिव नमस्छुयान्न्छौरं कीतयेदेतवा प्व देवताः प्रीणाति इति ( तं० २।२५ }

रेदं विद्धान्‌. श्र्थाभिक्ञः पुट्यः द्विविधः] घर्वाचीनकाले ससुत्‌- पन्रस्धनुदंशविद्यास्थानङ्कश्नलः कच्िदुपान्यायः, पुखातनक्ाले समुत्पन्नो न्याखादिश्च 1 तमेतमुधयविश्वं विद्धां विद्ययासद्ध्नमदडकलमदोपेताः परिङतम्मन्या पुट्पा अभित्त विच्ाद्धिषु दूपयन्वि ते खन्चंऽपि यादित्य- मेव प्रथमं दूपचन्ति, यादवित्यापे्चया द्ितीचमन्निं दपयन्ति, ठदुमयप्ेश्चया तृतीयं हं उप्यन्दि 1 हन्ति सदा गच्छतीति दलो वायुः 1

अम्न्यादिष्पत्यञ्च वेदविद्‌ याम्नातम्‌-“जन्नेवाौयोरादित्यस्य लाद्यं

गच्छति इति { त० जा० २५ ) 1 ने केवलमेत देवताच्रयं किन्तु सवां

अपि देवता चदविदि वखन्ति 1 तस्मद्‌ नाह्यणान्‌ वेदविदो ट्रग्रा स्त्वा धतिदिनं नमच्छर्यात्‌ 1 तु तस्मिन्‌ विच्मच्मपि द्यं करैतचत्‌ एवं सति तचन्मन्ार्थभृताः सर्वा यपि दैवता वेदार्थविद्रा स्मय॑माणतया तदीय .

द्रे यवस्थितः धयं नमर्क्ता चापयति { चेतद्‌ अन्ययनस्येव फलसिति शल्नीचम--विद्धांचमित्यान्नातत्वात्‌ } अन्यथा वद्‌सध्रीयानमिप्यान्नायेत ] तस्मात्‌ खर्वदेवतावुच््या भरारिभिः पृज्यस्य वेदार्थविदो लोक्येऽपि श्रेवः- प्राप्तिनपपद्यते 1 ./

यस्त वद्मधीत्यापि अशं विजानाति सोऽयं पुमान्‌ चरमेव हरति श्राययति 1 स्याररिति द्रष्रान्तः1 दिन्नश्ाखं युप्कच््म्रटं स्थासागाब्देन उच्यते ! चथा इन्धनार्थंमेवोपदुज्यते तु पुष्पफलार्थैम्‌ , तथा केवल- पष्टक्त्स्य नात्यत्वं मचतीत्यतावदेव, चुं दुष्यं स्वगादिपलसिद्धि- वास्ति 1 किल इत्यनेन लोक्प्रखिद्धियेत्यिते लाक्ऽपि पाठकस्य यावती

{ज

धनादिपूजा ततोऽन्यधिक्रा चिद्धपि टख्यत

्रग्वेदभाध्योपक्रमणिका |

कश्च, यद्धेदयाच््यम्‌ याचाय गृदीतमर अर्थक्षानरदितं पटरूपेण ण्व धनः पुचस्व्यायत, तत. कदाचिद्धपि ज्वलति स्वाथ प्रकाशयति | यश्व शग्निरद्ितपर्देश पितं शुप्ककतष्टं ज्व्रललति तद्त्‌ 1 तथा खति तस्य | ाक्यस्य वदन्वै मुख्यं स्यात्‌ अलकः धुरयार्थोपायं वत्ति धनन इति वद सब्दनिर्वचनम्‌ तशा चाक्तम्र-- प्रस्य्तेणाचुभिन्या चा यस्तुप्ाया वरुध्यवे | पतं विद्रन्ति वदन तस्मादु वदस्य वदत अचा मृख्यव्रद्रत्वसिद्धय शातव्य प्व तदथः | ` चि चाच यास्कच (नि १।१६ ) काचिदन्यापयि क्रगद्राहता-~- . उत स्वः पयन्‌ दृदणं वाचमुत घ्वः श्रवन, रणात्यनाम्‌ ! उता स्वस्में तन्वं विक्र जायच पत्य उशती श्वासाः ( चछ १०1७९1४ ) तच प्रवास्य तातपर्यं ण्य दर्तयत्ति,--श्यप्येकः पर्यन. परयति, चान्रमपि श्छण्वयच.न शरणानि, प्नामिनि यविद्धंसमाद् र्धम्‌ इति। अस्यायमश्ः--यः पुमान. थथं वत्ति तं प्रति पर्वाश्चन मन्यो चरते पकः ~ प्रदः पाटमाचययवसिता वदसपां चाव्चं परयनपि सम्यक्‌ पटयति रकवनच्नव्रहुवचनादिविवकाभाय पाटश्युद्धेरपि कतुंमगरक्यत्याच ध्व मेव स्येन भगधेयन उप ध्रावति ण्व णनं भूतिं गमयति “थादित्या- नेच स्न भागधघय्न उप धावन्ति णवर पनं शभ्रूति गमयन्ति, (ते० सं २।२।१1 ) त्यादौ अष्युतपच्चः कथं पाद्रं निध्िचुयात.9 अन्यः क्रध्िटू यर्थक्ानाय व्याकरणाद्यद्ासि श्ण्वच्पि मोीभासांछ्दित्यादनां वेदरूपां धाचं सम्यक्‌ श््रणाति “तावतोऽपएवाय प्रतिग्रहीयाचाचतो व्रारुणा- श्रनप्कपालानिर्चपदू दत्य व्याकरणमात्रेण पनिग्रदी तरिः प्रतीयते मीमांलायां ठु न्यायन दातुमिति निर्णीतम्‌ 1 तस्मादुमयविधमपि यचिद्धसं प्रतिं षचमाद दति / नृर्नयपादरतानयरयं दर्मयति,-"थप्येकस्मै तन्यं विसम दृति 1 स्वमान्मानं ' विवृत, छानं धकाणनमर्थ॑स्यादानया चाचा इति 1 धस्यायमर्थः--थपि- +. शब्दरुपर्याय उवागव्दः | पृ्ं्ानभिदवेलश्चए्याय थच पयुत्तः, निधा- तानामनेच्छाथन्यान्‌ यः पमान व्याकस्णाद्यद्रुः स्वरब्ाथं मीभांससा - तात्तपयं राध्रयिनु प्रग्रत्तस्तस्मा पकस वदः स्वकीया तलं चिखन्ने | स्वमि.- त्यादिकं पद्न्याण्ट्यानम्‌ जानयिच्यादिकं ताततपयन्यार्यानम्‌ वेदार्थ॑प्रका- श्नन्नमं सस्ययकछ्ानम्‌ यनया वृनीयपाद्रख्पया वप्या मन्न आद द्तत{ ` नचतश्पाद्रनतपयं दशयति उपमोत्तमया वाचा "जायेव पत्ये काम- म्रमाना सुचा््राः क्रतुकल्तषु सुवप्लाः क्ट्पायुवासाः कामयमान

` . स्ायणाचार्य॑ङ्ता =

ऋतुकालेषु यथा सर एनां परयति शणोतीत्यर्थज्ञप्रशंसा? इति 1 अस्या- यमर्थः,--उत्तमया चतुथैपादकूपया वाचा तृतीयपाद्‌ार्थस्य उपमा उच्यते] उशतीरित्येतस्य म्याख्यानं कामयमानेति ¦! यच्यलि अद्धि ग्रहकृत्यवेलायां सलिनवाखास्तथापि"खम्भोगकालेषु कस्यणवासा भवति हेतुः काम- ˆ यमाना ऋतुकालेषु इति यथा पतिरेनां जायां साकल्येन आद्रयुक्तः पश्यति किंञ्च तयोक्तमथं हितवुद्छया श्णोति तथायं चतुर्दशविद्यास्थानपरि- भेशीलनोपेतः पुरुषो वेदाथैरहस्थं सम्यक्‌ पश्यति वेदोक्तं धरमतरहमरूपम्थं हितबुद्ध्या स्वीकरोति सेयज्युक्ता वेदार्थाभिज्ञस्य प्रशंसा इति पुनरपि गन्तरं यास्क (नि० १।२० ) उद्‌ाजदार-“तस्योत्तसा भूयसे तिवृंचनाय-- उत त्वं सख्ये स्थिरपीतमहुरननं हिन्वन्त्यपि वाजिनेषु अधेन्वा चरति माययेष वाचं शुश्चुवोँ अफलामपुष्पाम्‌ ॥* ( ऋ० १०।७१।५) आयस्थैः पूर्वोदाहृताया उत त्वः पश्यन्‌ इत्यादिकाया छचोऽनन्त- रमेषा आच्नाता काचि दू.ऋक्‌ तस्य पर्वक्तमन्बस्य भूयसे निवंचनाय सम्प- द्यते, तमर्थम्‌ अतिशयेन प्रतिपादयितुं प्रभवति कथमिति चेत्‌? तदु च्यतेः। अपि चैकं चतुद शविदयास्थानङ्शखं पुरुषं वेदरूपाया ;वाचः सख्ये ~ स्थित्वा स्थैयंण वेदोक्ता्ासतपानयुक्तमाहुः, असिज्ञाः कथयन्ति 1 "सचि भविष्‌ सखायम्‌? इति मन्बे वेदस्य सखित्वभुदाहतम्‌ यह्‌ चा स्वगेलोके वेदानां सख्ये स्थित्वा अतिशयेन पीताश्तमाह्ुः चाचामिना ईश्वसाः सभासु प्रगल्भा चा वाजिनाः। तेषु मध्येऽपि एनं वेदा थङ्कशरं चोदयितुं हिशभ्वन्ति, केऽपि प्राप्नुवन्ति, तेन सह विवदिठमसमर्थत्वात्‌ यस्तु अन्यः पारमाच्रपरः पुप्पफलरहितां व्चं शुश्रुवान्‌ भवति पूवंकाणडोक्तस्य धर्मस्य ज्ञानं पुष्पम्‌ 1 उत्तरकाण्डोक्तस्य ब्राह्यणो क्ञानं फलम्‌ यथा लोके पुप्पं फलस्य उत्पादकं तथा चेदुालुवचनादिधमेज्ञानम्‌ मनुष्ठानद्धारा फला- त्मकब्रह्मलानेच्छां जनयति “तमेच वेद्ाुवचनेन ब्राह्यणा विदिपन्ति यज्ञेन दानेन तपसा नाशकेन" इति श्यतेः ( बृह० उप० ४।४।२२ )। यथा फलं तृत्िहेत॒ स्तथा ब्रह्यक्ञानं छृतरृत्यत्वदहेत॒ः, “यत्‌ पूणानन्दंकवोधस्तदहू | ब्रह्माहमस्मीति ङवक्त्यो भवति? इति श्रुतेः ! ( परमहंसो पनिपदू £ ) ताट्ृशपुप्पफलरदितवेद पाठकः पय पुमान्‌ अधेन्वा मायया सह्‌ चरति ।{ नवधरसूतिका क्तीरस्य दोग्धी गौः प्रीतिदेत॒त्वाद्‌ धिनोती- तिव्युत्तपत्या श्रेचरिव्युच्यते पाटमात्नपरं प्रति वेदरूपा वचाम्‌ धस ब्रह्मज्ञानरूपं न्तीर द्रौग्धीत्यधेलः 1 अत एवासौ माया कपटरूपा, रेन्द्रजा- लिकनिमितगासद्रशगोङ्पत्वात्‌ 1 तया पायया सह चर्यं परमयुरूपार्थ ¦ लभते इत्यथैः {.धव्थं यास्केन क्ञानस्वत्यज्ञाननिन्दोदाह्रणस्य.प्रपञ्चितत्वात्‌ 1.

ऋम्वेदभाप्योपक्रमणिका। ७७

यच्च स्तृयते तदू विध्रीयते इति न्यायेन अभ्ययनवदथक्ञानस्यापि विधि रभ्यपगन्तव्यः < कश्च, नच्तचेष्िकाण्डे भ्रतीष्िफलवाक्यं यागतद्वेदनयोः समानमेव आच्नायते--““यथा ह्‌ चा अधिदंवानामनच्नाद्‌ः, प्वं वा पष मचुष्यांणां भवति पेन हवि पए यज्ते चैतदेवं वेद्‌"*इति (तै० व्रा० २९१1७1१) अतो यागवतफलय स्ववेदनयपि विधीयते अनेन न्यायेन सब्वंष्वपि ब्ाह्मशेषु बेदनविधयो द्रव्याः \ नञ, वि्याथरशंसेति चूते (ञे° १।२।१५ ) वेद्नफलानां भ्रशंसारूपत्वं ्निमिनिना सूतितमिति चेत्‌ ? स्त॒ नाम विद्यमानेनापि फलेन प्रशं- सितं शक्यत्वात्‌ 1 दशयागस्य पूरंमासयागस्य अतिपते सति भ्राय- धित्तरूपां वेभ्वानरेि विधातुं विद्म नेनेव स्वर्गफलेन स्तुतिः करियते-- “सुवर्गाय हि लोकाय दशंपूखैमासाविज्येते इति ( तै० सं° २।२।५।४ ) पतच्ाचार्य्य्े्यज्ञानफलवाक्यस्य स्वा्थऽपि तत्पयं दर्थयितमुदाहतम्‌- ¦ इच्छाम्येवार्थवादत्वं वचसोऽन्यपरत्वतः ¦ यथावस्त्वभिधायित्वान व्वभूता्थवादता : इज्येते स्वर्गलोकाय दर्णदर्गो यथा तथा | ˆ त्वभूतार्थ॑वादत्वं पापग्लोका श्रुतिर्यंथा वेद्‌नमातरेण फलसिद्धी अनुष्टानवेयध्यैमति शङ्कनीयम्‌ , फल- भयस्त्ेन परिहृतत्वात्‌ 1 उद्‌ाहतश्चाच जेभितिसूच्म्‌-- फलस्य कमे निष्पतचेस्तेर्पां लोकवत्‌ परिमाणतः सारतो वा फल- चिश्चेपः स्यात्‌ ( जं० १।२।१७ ) पतच्चास्माभिः “तरति ब्रह्महत्यां योऽश्वमेधेन यजते चैनमेवं वेद्‌” त्युद एट्र्णेन व्याख्यातम्‌ ¦ चुन्दोग्च केवलादचप्मनाद्‌ विद्यासदहितेऽचुटाने फलातिशयमाम- नन्ति--“्तेनोमा छद्तो यश्चैतदेवं वेद्‌ यश्च वेद्‌ ! नानालु चिद्या चाविद्या यदेव विद्यया करोति श्रद्धयोपनिषदा तदेव वीर्यवत्तरं भवति ° ( छा० उप० ६१।१।९० ) इदि यद्यण्यङ्गाववोधोपास्तिरनच विद्याशब्देन विवक्तिता, तथापि न्यायः सर्वास्वपि विद्यासु समानः तस्तव पतावती वेदने सक्तिरिति चेत्‌ ? कुतो वा पतावांस्तव एषो पचर प्रद्ेषः प्रशंखा त्वस्माभिभूयसी दशिता, निन्दां कापि उपलभा- महे 1 किन्तु करस्सजन्यमपृचं यशा मरणादूध्वं जीवेन सह गच्छति तथा विद्याजन्यमपि अपूर्वं गच्छति 1 तथा वाजसनेयिन आमनन्ति, न्तं विद्याकभेरी समन्वारभेते पवभज्य च> इति ( ८० व्रा १४६।७।२।३] चृह्‌०

चु. ~>» की

उप० ४।४।२ ) 1 तस्माद्‌ अध्ययनवदहू अथेन्ञानस्यापि विहितत्वाद्‌ अर्थ ज्ञानाय वेदो व्याख्यातव्यः |

वेदस्य विषयप्रयोजनाचनु- विषयप्रयोज्नसस्बन्धराधिकारिज्ञानमन्तरेण वन्धचतुयस्य निरूपणम्‌ श्रोदपदृत्यमावादू विषयादयो निरूप्यन्ते-- व्याख्यानस्य व्याख्येयो वेदो विपयः 1 तदर्थज्ञानं पयोजनम्‌ ¦! व्याख्यान- व्याख्येयभाषः सस्वन्धः। ज्ञानार्थो चाधिकारी 1 यथपि एतावत्‌ प्रसिद्धं तथापि वेदस्य विषयाद्यमावे व्याख्यानस्यापि परमविपयादिकं स्यात्‌ अतो वेदस्य चतुष्रयसच्यते

वेदे पूर्वोत्तिरकाण्डयोः क्रसेस॒धर्मन्रह्मणी विषयः; तयोरनन्यलस्य त्वात्‌ 1 तथा पुरूषाथाचुशासने सूभरितम्‌--“धर्सनह्मणी वेदैकवेदे इति जेसिनीये द्वितीयसूङ्खे, चोदनेव धमं प्रमाणं, चोदना प्रमाण- मेव इति नियमद्वयं सम्प्रदायविद्धिरभिहितम्‌ चोधदनेव इत्यसुमर्थस्‌ उपपादयितुं चतुर्थ॑खुते पत्यक्तविषयत्वं धमंस्य॒नियङूतम्‌--पत्यक्चमनि- मित्तविद्यमानोपलस्मनत्वाद्‌ः ( जे० ९।९।४ ) इति

अनुएठानादुष्वम्‌ उत्पस्यमोनस्य ध्म॑स्य पूवेमवियमानत्वान्‌ प्रत्यत्त- योग्यता असिति } उत्तरकालेऽपि ङपादिराहित्यान्‌ इन्द्रियेरघगस्यते भत पव बद्रष्टसिति सवरसिधीयते 1 लिङ्गरादहित्यान्‌ अुमानविपयत्व- मप्यसिति ! खुखदुःखे धर्माधर्भयोलिङ्मिति चेत्‌ ? बाढम्‌ ! अयसपि लिङ्ग लिङ्किभावो वेदेनैव गमस्यते ! ततश्चोदनेव धमं पभमाणम्‌ |

वैयासिकस्य ठतीयसूच्रस्य दवितीयवर्णके बह्यणः सिद्धवस्तुनोऽपि श्ासैकविषयत्वं भाप्यरुद्धिव्यांख्यातस्‌ लाचरादेव भ्रमाणाद्‌ जगतो जन्मा- दिकारणं ह्म अधिगम्यते इत्यसिप्रायः इति श्चुतिश्च मवति, -“नावेद्वि न्मते तं बृहन्तम्‌? इति ( ते० ा० ३1१२७ ) 1 तोपपत्तिः पू वाचाये शेवुदीरिता--रूपलिङ्गादिराहित्यान्‌ नास्य॒ मानान्तस्योग्यताः इति तस्पाद्‌ अनन्यलभ्यत्वादू अस्ति धस ब्रह्मणोवंद्विचयत्वम्‌ !

तदयक्ानं वेदस्य सद्दात्‌ परयोज्नम्‌ ! तस्य ज्ञानस्य, सत्तदीपा वसुमती, राजासोश्गच्छति, इत्यादिज्ञानवठ्‌ अपुरूपाथैपय्यैवसायित्वं शद्धः- नीयं, धर्मषव्रत्तस्य पुरुष।थस्य स्तूयमानत्वात्‌ 1 “धर्मो विश्वस्य जगत धतिष्ठा, लोकते धर्मिष्ठं रजा उपसपेन्ति, धमण पापमपञदन्ति, धमे सवं प्रतिष्ठितम्‌, तस्माह्‌ धर्म परं वदन्ति ( त° आ० १०।६३]७ ) इति चै लस्यापि राजसाहाय्यवल्यदे तंत्वा धैः पुरपरार्थः तथा वाजखने यिनः - खश्रिरकूर्ण खमामनन्ति,--“तच्द्धयोरूपमत्यस्ट्जत धभ, तदेतत्‌ क्तच्रस्य त्ष यद्‌ धर्मस्तस्माद्‌ धर्मात्‌ परं नास्ति1 अथोऽवलीयान वलोयां- शसाप्तंसते धर्मेण, यथा राङ्ञेवम्‌?, इति ( बृह० उप० ४६1२४ ), 'व्रह्लवि*

-दा्नोति परम्‌ ( ते० आ०, २। १), “ब्रह्म वेद बह्मेव भवति,” ( सुण्ड० ३।

धरणवेदधोल्योपक्रमणिका

‰।& ) “तरति शोक्रमास्पधिव्‌ ( चछा० उप० ७।९।३ ) इव्यादिध्रुतियु बह्म त्ानग्रयुक्तः पुमपाशथः प्रसिद्धः तङ्मयज्नानार्थी वेदेऽधिकरारी जंच- चणिक्रः पुकः खीशद्रयस्तु सत्यामपि क्ञानापेत्तायाम्‌ उपनयनाभववृन > भध्ययनयादित्याटू वदे यधिकरारः परतिपिद्धः धमत्रहन्नानं ल॒ पुराणादि मु खेन उद पद्यते 1 दस्मा चेवर्कधुच्पारां वेदश्ुखन वथन्ाने अधिकारः सखम्वन्धस्नु वेदस्य धर्मत्रह्यभ्यां खद परततिपाद्यधतिपादकभावः, -वदीय- ज्ञानेन सह जन्यजनकभावः, चैवणिकपुख्पेः सह पकाय पिकारकभावः \ तदेवं विपच्य युवन्धचवु्यग्रवगत्य खमादहितध्ियः श्रीतासो वेद्भ्या- < ख्याने मवर्चन्तामर्‌ अपरविद्यार्पाणां ` यतिनस्मीरस्य चदथ अ्थमववोधयितुं शिक्त. वदस्य षडयनं समच्िः दीनि धडड्नि भ्रच्रत्तानि अतप्व तवाम्‌, परत्विष्पत्यं जण्डन्मपलिषयनि सप्र्यप्वितयत्‌ सप्छननिद-“दे चि तव्ये इति स्म यद्‌ बरह्मविदां वदन्ति, पसा चेचापय 1 तापस ऋग्धेदा यज्र्वदः सामचद्‌ाऽथर्ववदः, शिश्वा कल्पो व्याकरणं निर्क्ं छन्दा ञ्याति- पमिति } परत, यया तदृश्चस्मधिनम्यते ( मुण्ड० १६1४ ) इति 1: साघनभुतध्मैज्ञानदेतुत्वात्‌ प्रडङखदिंतानं क्क्राण्डानाम्‌ अपर. विद्यात्वम्‌ 1 परमपुवपार्थंमृतव्रह्य्ञाचदलुत्वारू उपनिषदां परविदयात्वम्‌

वदा्भमूव्याः दिक्चाव्रा चर्णस्वसाद्युच्रारणप्रकायो चत्र उपदिश्यते लश्वणप्रयाजनपुरःलरं सा शिक्ता तथा तचिरीया उपनिपद्‌ा- सप्परद्निरूपणम्‌ 1 रम्ये समाप्नन्ति-““शाश्चा व्याख्यास्यामः 1

वरीः, स्वरः, माजा, वटं, साम, सन्तान इच्युक्तः शीश्नाध्यायः” ( तै० आ7० ' ७२ ) इति वर्लोऽकासादिः वङ्गभूतित्ताग्रन्य स्पष्टमुदीरितः-- भचिवष्िश्धतुः पषिवां वणाः शम्शुमते मताः 1 प्राक्रते संस्करते चापि स्वयं ग्रोक्ता स्वयम्भुवा ॥“ ( पा०छि० ३) इत्यादिना] ` स्वर उद्‌त्तादिः 1 खोऽपि तचाक्तः-- “उब चतश्चालुदात्तश्च स्वरित स्वसस्वयः ( पार शि० १९) | माता हृस्वाद्विः ! सापि तच उक्ता-- श्टस्यो दीः प्लुत इति कालतो नियमा अचि (पा० १६.) |.. चलं स्यानप्रयल्ला ! तच “वण स्थानानि वर्णास्‌? (पा० तरि ११) 1 ` शृत्याद्विना स्थानमुक्तप्र्‌ ! “अचोऽस्प्रप्टा, यशस्त्वीप्रू” ( पाण शि०द८) 1 ` इत्याद्विना पयत उच्छः 1 | ~ साम्दीब्देन-खाम्युक्तप्र्‌ ;, अतिद्रतातिविलम्वितगित्यादिदोप्रसदहिव्येन भाघर्यादिगग्णयक्तचन उच्वास्णं साम्यम्‌ 1 “गीती शीघ्री भिरस्कम्पीः

& ~ ायणाचायङ्ता - -

(पान्शि० २३२) इत्यादिना, “उपा द्रं त्वरितम्‌? (पाण्शि०३५) इत्यादिनों देषा उक्ताः “माघुर्यमक्षरव्यक्तिः" (पाण्शि० ३३) इत्यादिना गुणा उक्ताः सन्तानः संहिता- वायवायाहि" इत्यावादेशः, ईन्द्रास्ची आगतम्‌?

इत्य प्रकृतिभावः पतच व्याकसरणेऽयिदहितत्वात्‌ शिष्चायाम्‌ उपेक्तितम्‌ शिक्यमाणवणंतिवेकल्ये वाधस्तत्रोद्‌ाहतः-

“मन्नो दीनः स्वरतो वरतो या मिथ्वाधयुक्तो तमर्थमाह

वाग्वज्रो यजमानं हिनस्ति यथेन्द्रः स्वरतोऽपयधात्‌ ॥»

(पा० शि०५२)

“दन्द्रशनुव्॑स्व” इत्यस्मिन्‌ मन्ते ( तै० सं० २।४।१२।१) विवक्षितेऽथं ` तध्पुरुषससासे “समासस्य” इति (पा० अ०६।९।२२३) सूजेण तत्युरुपत्वादू अन्तोद्‌ात्तेन मवितव्यम्‌ 1 आदयुदात्तस्त॒ युक्तः, तथा सति पूवं पद्प्रकृति- ` ~ स्वरत्वेन वडुवीहित्वाद्‌ इन्द्रौ घातको यस्य इत्यर्थः सम्पन्नः तस्मात्‌ श््वरव्णांद्यपराध्परिहाय शित्ता्न्थोऽपेत्तितः

कटपल्योपयोगव्युत्पत्ति- कल्पस्तु आश्वलायनापस्तस्ववौधायनादि- ्रद्ौनपूवकं निरूपणम्‌ सूम्‌ , कटप्यते समर्थ्यते यागध्रयोगोऽचः इति व्युत्पत्तेः

नु आद्वलायनः कि मन्वकाण्डमवुखत्य प्रचृत्तः; कि वा बाह्यणमघु- शर्य नाद्यः, ५द्र्शपूरमासो पूर्वं व्याख्यास्यामः? इत्येवं ( आश्व सु १।९।२ ) वेनोत्रान्तत्वात्‌ ; हि अच्रिमीकः इत्यादयो मन्ता दर्शपूर्णमना- ` खयोः कचिद्‌ विनियुक्ताः द्वितीयः, “आघ्नावेष्सवमेकादशकपालं निव धन्ति दीत्षणीयाम्‌? श््येवं दीच्तणीयेषटेबोद्ये ( एेत० चा० १।१ ) पक्रा-

न्तत््रात्‌ ४. अन्नोच्यते 1 मनस््रकारडो ब्रह्येयक्ञादिजयपक्रमेण प्रवृत्तो तं यागल्॒- नक्रमेण बह्मयन्ञश्वेवं विहितः-“यः स्वाध्यायमधीयीतंकाममप्यचं यज्ञ

लाम वा तद्‌ ब्रह्मयज्ञ इति ( तै० आ० २।१०।६ ) सोऽयं बरह्मयक्ञजपो ऽधिंमीढ्ध शत्यान्नायक्रमेसेव अनुष्ठेयः 1 तथा, सवां ऋचः सर्वाशि यजंपि सर्वाणि समानि "वाचस्तोमे पारिप्लवं शंसतिः इति विधीयन्ते तथा आश्विने खम्पत्स्यमाने “सूर्यो नोदियादपि सवां दाशतयीरल॒न्रयाटूः इति ( आप० श्रौत सत्न १४।९।२ ) विधीयते ; तथा ^र्च्यित द्रव चा पप येव रज्यते, यो याजयति भ्रति वा गृह्णाति, याजयित्वा प्रतिगृद्यं चानश्चन्‌ चिः स्वाध्यायं वेदमधीयीतः इति. ( त° श्रा० २।१६ ) प्राय्ित्तरूपं . वेद पारायणं विहितम्‌ इत्यादिषु छत्स्नमन्वकार्डचिनियोगेपु सम्प्रदाय- पारस्पयांगत पव करम आदरणीयः, चिश्ेपविनियोगं मन्वचिशेपाणां तिलिङ्गवाक्यादिरमाणानि उप-

ष्यं न्याः इन्व दिमच्ास्यं न्यदधत आद्नाता उत्यायस्तन्या- + नादचत्यरय = ~~ [य दरव्नचये कम्र चचा प्रत्रः अन्न्नातत्वादय जयादय यपि न्च. -4:-2-~-ः 4 (नर्म षर = ह, प्णन्‌ कन्व: { याव त्न दप्दन्यवाद्नयक्र्ता न्या तस्या दषम = गयु नन्रन्ाउन तदरवच्नवाद्‌ अग्व्लायनन्य यद्‌ तदरच्याख्यार्नं

~+ यव ललितायाः

` तदि श्वरौ चलाः उन्या्दाय चाथिध्रनीनाम्‌ चछनचयेव -* तवा चाः इन्यादि चाावचानात्‌ च्व यिनिच्या- उल चरवन्दः बत्याठयन्यनाच्नादचाः ~ विनियञ्यन्ये

` उत्ायना वान : नयमः 5 तट इत्याद यच््तचान्यालाः छब्द व्रिचियन्यन्च. ~ ~ < 4: ण्या चय ०1२, इदि जन > नायं =ायः 7दान्नस्छमान्नातानां ~ शान्ता नूच 1 दात तन्‌? नात दाः रान्डान्नग्छम्रास्नाताना,; > ~ विनिः गास्य नाच नान्वर च्वि विलियम ननन

नलया चद्धन्य चातता मस्य सुनलपृरदर्न्यःठन अच क्च््न्यत्तात

£ _ ~

न्यर्वनान्ा-यन्ययनन्य च्यम इलि न्यायधिद्रः तस्माद चित्य ग्यलगान्छा-यन्ययमत चप इन ययव तर्नम्ाव पच्य ऋ्स्पापि

प्रदिः 1

(अ = गरक्रतिप्रस्ययत्दय {>> व्वा यद द्न्य्युखय तताड व्यादग्यस्रपि प्रद [वन्नस्ययाद्- = [9 [4 ^ ८०५ पटेन पटच्यर्य ~ {~~ नुद्रयपनि , 7विणषागा वेरद्त्यनद्न्यन्दाच्तदियिः दरश नर स्यर्पतद वाच्याय = [५ ~~ 8 उप्रञ्यत [1 ॥ि प्रय गद्गदा दच्च 1 दर्तः धादपादरद्र 1 उप्रद्ुज्यत तया ग्न्दद्रायव- ॥. <, 9 ~ ग्रहन कवन्ान्यावल-- तारत वराच्वन्वदनठत्‌च दता उन्छनयट्य-- दिम ५.५ ््‌ 4 चरन, श्य = (अ द्ध्माना वाच व्वा | [तका =र ब्रन नद्ध तके वायव ॐ, नाभिनय [) 1 खट्ट शच्च दनि 1 स्वाद पन्दरचाययः खद गछन | नामिच्छा मघ्वत्त-च- > ~ / र. =^ १1५) ~ नव्य व्याचनन्‌1 नस्माद्धवं व्यान व्ुदत " तत० 7215} इति) भाद [9 > नट रध्थरण पमान चन्द्रादि अश्यन्ाव्छ पुरन यादकाच््‌ पजन्य, कालं पनन चमुटादिष्यवनिवि- ता, यद्तिः गरन्ययः पठं वाक्यनित्याद्विचिभागनामि द्ात्मिक्ा चन्यव्य्ता, यद्र तिः शरन्ययः चाच््वामत्याण््‌वमागक्नाग & = [न [१ श्रन्त्ररद्लुा अन्तान्‌ | तत्रच दंतः तत इन्द पच्स्मच प्ये युय न्याम न्यगहप्म्त्वना चरेय नगरस्य वाचं «~ नावः च्च्य = चायन्यद्रहप्र्यना चरस तुग्रस्तानखद्डा चाच मध्य

८५. ` 2. \} >1 ५१ + (१ = ह| १०६ 3 {"

भियन्ययादिलिः नि यिच्छ यद्धसिपन्ययं (दलाय च्छ पगिच्यादिमरट ~ प्यते मपि वागिन्यादिमद्धिभिच्यःद्धदा खव; पच्यत उन्यरणः |

~ग ग्यमादनचातचयषय च्ररन्ख्िना [नयं

न्य पनम ल्क्य तरर्न्‌[्नानतरा माविक दाराः

न्ाद्रानमतलव्ठयन्दद्ाः तचाऊनम्‌ःः इति प्लानि रश्चादिययोदनानि डनानि याजचान्वयगििि चद्ा्रास्य चवडलिना च्य््रीद्धतानि ( यद्ा्ाव्यस्य [~ र]

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पस्य्छाद्रिक ) | नाद्यं चद्प्यायव्यय व्याकरणम्‌ लायायमव्विच्छागरन्ौ

# 11त्रच्ाग््यु [क [प दि वन्य वद्‌ च. वान पालयन्तरान चद्‌ अण्स्यवस्याच | ऊट्‌ः छच्यपिं 2 ९८. (~ ¢ चवल्लदनं = सव चवजच्जदद्‌ जन्य निगदिताः तं अयययं न्क यद्ाद्न्यन यथाय ॥चवात्एयाचनच्याः | नाच चावयाक्र्ः श्चखमति विप. (~ = = न्न प्नामाचनयु नन्मादन्यय न्यष्यननन्णन्‌ | अआक्नः न्डन्तरोपे ; ाह्यगुनं <~ + = ~~ --- 1 ~र नख प्नच्कनग्णा प्रन्नः डद ददा प्य्या दयन्न ददि अन्यान दर (1 + ~

८९ ` ` श्चीयंणा्ताय॑ृतां

व्याकरणम्‌ 1 प्रधाने कृतो यत्नः फलवान्‌ भवति लंघ्व्थं चाध्येयं भ्या- करणम्‌ ! यृहस्पतिरिन्द्र्य दिव्यं वषेखद.लं प्रतिपदोक्तानां शब्दानां शब्द्‌ पासायसं पघोवाच, नान्तं जगाम ; यृहस्पतिश्च वक्ता, इन्द्रश्च अध्येता, दिग्यं व्पसहस्म्‌ अध्ययनकालः, अन्तं जगाम अत्वे पुनर्यदि परमायुभै- वति वषशतं जीवति तव कुतः प्रतिपदपाठेन सकलपद्‌ावगमः ; कुत- - स्तरं प्रयोगेण ? अखन्देदार्थं चाध्येयं व्याकरणम्‌ ;| याक्िकाः पठन्ति-- स्थूलपृषतीमान्निवारुणीमनडवबाहीमालभेत इति तज, ज्ञायते कि स्थूलानि पृषन्ति थस्याः खा स्थूलपृषती, कि वा स्थूला चासो पृपतीति तान्‌ नावैयाकरणः स्वरतोऽध्यवस्यति यदि स्षमासान्तोदात्तत्वं तदाधः कमंधारयः, अथ पूवपद प्ररृतिस्वरत्वं ततो वडुत्रीहिरिति।

इमानि भूयः शन्दाञुशाखनस्यं प्रयोजनानि-ते ऽसुराः, दष्टः शब्द्‌ः, , यदधीतम्‌ , यस्तु प्रयुंक्ते, अविद्वांसः, विभक्ति कुवन्ति, यो वा इमाम्‌ , चत्वारि, उत न्वः, सक्तुमिव, सारस्वतीम्‌, दशम्यां पुत्रस्य, खदेवोऽसि वरुण इति

ते ऽः ते ऽखुराः हेलयो हेलय इति ऊवंन्तः परावभूवु; तस्माट्‌ ब्ाह्मरोन स्लेच्द्धितवे नापेभोषितवे म्लेच्छो वा एष यदपशब्दः म्लेच्छामा भूम इत्यध्येयं व्याकरणम्‌ दुष्टः शब्दः दुष्टः शब्द्‌; स्वरतो चणैतो वा मिथ्याप्रयुक्तो तमर्थमाह वागवञ्ो यजमानं हिनस्ति यथेन्द्रशत्रुः स्वरतोऽपसधात्‌ ॥" ( पा० शि० ५२)

दान्‌ शब्दान्‌ मा प्रयुर्महीति अध्येयं व्याकरणम्‌ यद्‌ धीतम्‌- ° यदधीतमविज्ञातं निगदेनैव शच्यते अनद्याविव शुष्कैधो तज्ज्वलति कर्हिचित्‌ अविक्ञाताथैकं माधिगीप्नहि इति अध्येयं व्याकरणम्‌ 1 यस्तु प्रयुक्त- यस्तु प्रयुक्तं कुशलो विशेषे शब्दान्‌ यथाव द्‌ व्यवहारकाले ` सखोऽनन्तमाप्नोति जयं पर्न वाग्योगचि द्‌ दुष्यति. चापशष्दे४२ 1 कः ? वाग्योगविदेव यो हि शब्दान्‌ जानाति अपशब्दान्‌ अप्यसौ जानाति! यथेव शब्दज्ञासे धसं प्यमपशब्दज्ञानेऽपि अधमः पाप्नोति

(९) यदधीतमित्यस्य स्थाने निर्क्ते ( १।६।१ ) भ्यदूगृहीतमिति, पागे दश्यते 1 (२) कात्यायनोक्तश्राजाख्यदलोक मध्ये पचतिः

वग्वदभाव्योयक्रमणिक्ा 1 ५६

भूर्या हि यपशव्या यस्पीर्यासः शब्दाः; पकैकस्य हि शाब्दस्य चदयोऽप- त्र थ्पः ; "यथा-नोरिच्यतस्य-व्द्स्य मा गोणी गोता गोपोतत्तिकन्येव- मादयः जथ योऽत्रज्यागविदरू यवनं ठस्य छर्णम्‌.। विषम उपन्यासः 1 अन्यन्दायादडानं श्वगण मचितुमर्दनि 1 यो दि यजानद््‌ वे बाह्रं हन्याच्‌ शयुं वा पितर चोऽपि मन्ये पितः स्याच्‌ णवं तदि कः? अवान्योगवि- देवर 1 अथर चो बान्योगविद वानं तस्य शरणम्‌]

अविद्धचिः-

सविः यत्यभिवददे नाम्नो चन प्लुतिं विदुः] कामं तेघु नु चियाष्य च्रीष्चित्रायमं चदेत्त

च्त्रीवन मा भम इत्यन्ये न्याक्ररसम्र्‌।

चिमक्ति छर्यन्ति--

यादिकाः परन्ति, श्रयाजाः।+ चचिभक्तिक्नः कार्य्याः इति चतत यन्तर व्याकरनं प्रयाजाः सविभक्तिकाः यक््याः कर्तुम्‌ तस्मादध्येयं ल्याक्रणन्‌ 1

याचा इमामर--

यो वा दमा पदः स्वरणोऽच्तरर वर्मणो वाचं वरिद्घात्ि आलि. जीना भचति

आर्तिजीनाः स्यान इत्यस्येयं स्याकर्णाम्‌

चत्वरि

नचत्वाररिं श््रह्न चया थस्य पादा दं श्रीं चत्र दस्तात थस्य चिघ्ाच्दो च्रृषभो ग्वीतिं मरद्ध देव मर्त्या चिच ( च्छ० 0४) चत्वारि श्रद्धा, चत्वारि पदजातानि नाप्राख्यातोपसर्वनिपाताः | चयौ यस्य पाद्रान्लयः कालाः 1 शीषं छपच्िड्य्य सक्टस्वासः सत्त

१} श्यरयाजनन्त्रा उच्रमाराग्नित्नबदगरविकविमच््ुच्छ द्यैः ! यरया--समिधः समिो-जन श्नान्यस्य व्यन्तु अन्नेन दति कैयटः

( > ) गृहा निमतनयन्नोत्यं यन्त्रः स्व्ाद्रानु् वरिविघविधं व्याख्यात विभिन्नैः , सान्द्दधिः 1 चन्र मद्रादवाच्यवस्य च्छस्य स्कख्यवगेनमिति भगवा पतश्चलिः 1 काव्य एन्यस्यं स्दय्यवमं ति क्विलेन्दते गाजये खरः (कराव्यमीर्मासाया द्विवीवाघ्याय) 1 यतदुच्पस्य नियदस्वन््प्वियादनमिनि चिनच््मिस्क्रो यास्कः ( चिच परिदिच्टे १३।७ ) 1 पात. न्य मननयरिघ्मत्‌ विवव 1 गजकयय्नतं तु तच्यमीर्मासायामवटाकर्नीयम्‌ निद्च्छ्कार- स्याभिायस्तु निन््स्यरिनिष्टना (३।८) चचः 1 मन्य्ल्यास्तर व्याख्यानाव्र्तर स्रायगा- यौ पतमान न्यूकस्यास्राचिन्‌र्दि्‌ पच्छवताक्त्वाद.यद्वा्चं मन्त्रो व्याद्येयः,

मनात्नकाग्नं = क्रादतयन सत्यदया व्याल्यायने यापि चिच्कदचच्वीत्या यनार्स्त्ाग्नः चस्य प्रक्रद्रत्यन वत्वस्ववा व्याल्यायत ]

्ं प्राच्िक्ास्तु यब्दर्द्यपरलवा व्वाचश्चत ] छपर वुं ऊपस्मा उति

५७ सायणाचार्यङता

विभक्तयः 1 चिधा वद्धः, चिषु स्थानेषु वद्धः, उरसि करे शिरसि ! चृषभो व्पणात्‌ कामानाम्‌ ! सेर्वीति, रोतिः शब्दकर्मा महो देवो मर्त्या आविवेश महता देवेन नस्ताद्‌त्म्यं यथा स्यादित्यध्येयं व्याकरणम्‌ अथवा, चत्वारि- "चत्वारि वाक्परिमिता पदानि तानि विदुर्गह्यणा ये मनीषिणः शुदा चीणि निहिता नेङ्गयन्ति त॒रीयं वाचो मयुष्या वदन्ति ( १।१६०।४५ ) ये मनीषिणः, मनस इषणो मनीषिरः गुहायां चीणि निहितानि नज्ञः यन्ति चेष्टन्ते तुरीयं वाचो मयुण्या वदन्ति। ठुरीयं वा पतत्‌ चाचो यन्मयुष्येघु वत्तेते। उतत्वः उत स्वः पश्यन्‌ ददशे चाचसुत त्वः श्रवन्‌ श्रणोत्येनाम्‌ 1 उतो त्वस्मै तन्वं विसस्रे जायेव पत्ये, उशती सुवासाः ( १०।७१।४ ) अपि खल्वु एकः पश्यन्‌ अपि पश्यति श्रवन्‌ अपि श्णोति पनाम्‌। अविदधासमाह अद्धैम्‌ 1 त्वस्मै अन्यस्मै तन्वं विसखे, तुं विच्रखुते जायेव पत्य उशती सुवासाः ! यथा जाया पत्ये कामयमाना सुवासाः स्वमात्मानं विवुणुते एवं वाग्‌ चागृचिदे स्वम्‌ आत्मानं विच्चणुते 1 वाक्‌ स्वं नो विचरु- यादित्यध्येय' व्याकरणम्‌ 1 खक्तमिव-- सक्तुमिव तितउना पुनन्तो यच धीरा मनसा वाचमक्रत अन्ना सखायः सख्यानि जानते भदरेषां लच्मी्निदहिताधि चाचि ( १०।७१।२ ) सक्तः सचतेरट्धाचो भवति कसतेवां स्याद्‌ विपरीतस्य, विकसितो मवति 1 तितउ परिपवनं भवति ; ततवत्‌ वा वक्व वा धीराः प्रज्ञान- वन्तो ध्यानचन्तो मनसा प्रज्ञानेन वाचसक्रत वाचमरृपतव अचरा सखायः सख्यानि जानते सायुज्यानि जानते ? पप दुगेमो साग एकगम्यो वाग्‌-

( ) निरुक्तपरिशिष्टे मन्त्रस्यास्य व्याख्यायां (नि० १३।९) चत्वारि पदानि विविध- विधान विभिन्नैविद्रद्धिः स्वस्वहासखराभिप्रायमनुदणद्धिः। तानि यथा-

“भोय मानहा नामाख्याते चोपसगेनिपातादचेति वैयाकरणाः मन्त्रः कल्पो णं चतुर्थी व्यावहारिकीति याङ्ञिकाः क्त्वो यपि सामानि चतर्थी व्यावहार्कीति नेसक्ताः 1 सर्पाणां वाग्‌, वयसा, ्लुद्रस्य सरीखपल्य, चतुथी व्यावहारिकी- त्येकः ( अधिभूतविदः ) 1 पड्ुपु तूणपेपु खगे त्वात्मनि चेत्यात्मप्रवादाः

(२) निपुणं व्याख्यातोऽयं मन्त्रो निरुक्तकारेण यास्केन ( नि० १।९९ )

(३ ) भगवता यास्केन निरुक्तस्य चतुोध्यायस्य नवमे खण्डे मन्त्रो ऽयं व्याख्यायि 1

धा 11

चग्बेदभ्धष्यो पका

विवः फे पुनस्ते ? घेयाकरणाः। कुत एतत्‌ ? भद्रैषां सच्मीसिषिताधि वाचि} पपां वाचि मद्वा लदमीर्निहिता मशि सारस्वतीम्‌- . - याज्ञिकाः पठन्ति, “माहिताभिरपशन्दं प्रघ्रुञ्लानः पामख्िन्तीर्यां सार स्व्तीमिष्टि निर्व॑पेद्रू इति ` श्राय्िचचीया मा भूम इत्यध्येयं व्याकरण्छ्‌ दशर्म्यां पुत्रस्य-- ` दग्र्या पुरस्य जातस्य नाम विदध्याषएटर घोषघदरू भाघयन्तरन्तःस्थम- भिनिष्ठान्तं दधक्तरं वा छृतं नाम छर्यान तद्धितान्तमिति

चान्तरेण ज्याकरणं कृतस्तद्धिता चा शक््वा विश्लातुम्‌ तस्मादध्येयं व्याकरणम्‌

देषो सि- सदेषे अखि चर्ण यस्य ते सप्र सिष्धचः। अयुक्त रन्ति काष्ठदं सुरम्यं सुषिरामिव ( ° ८।६६।१२) खत्त सिन्धव स्च विभक्तयः काङ्कट्‌ जिह्वा सास्मिन्‌ विधते इति कराद्‌ वाल्ठ स्पिः स्थूला लोद्टधरतियेति "सिद्धे शब्दार्थ॑सस्वन्धः इत्यादिवातिकोक्तानि भत्रापि प्रयोजनानि अनुखन्धेयानि निरुकस्य खक्षणप्रमोजने प्रदशयं तत्रल्थ- अथ निरुक्तप्रयोजनसुच्यते 1 विषयाणां कार्सन्यम वियेचनम्‌ अर्थावबोधे निरपेत्ततया पदजातं योक्त तननिसक्तम्‌ गौः, ञ्मा, ज्मा, चमा, पवा, क्षमेत्यारभ्य, वसवः, व्रा्ञिनः, देवपल््यो देवपलन्य इत्यन्तो यः पदानां समाम्नायः समाम्नात- स्तस्मिन्‌ मन्थे पदार्थावनोधधाय परापेक्षा विद्यते पताचन्ति पृथिवी. नामान्येतावन्ति दिरण्यनासानीव्येवं तच तत्र चिस्पष्टमभिदितत्वातुी तदेत- निरुक्तं चिकाण्डय्‌ 1 तच्च अनुक्रमरिकाभाप्ये द्रितस्‌- "घाद नैघण्टुकं काण्डं द्वितीयं नेगमं तथा ] तृतीयं;दे वतश्येति खमास्नायखिघा स्थितः गोरायापारपरय्यन्तमायं नेघर्ुकं भतम्‌ जदुल्वस्टवीसान्तं नैगमं सस्प्रचश्यते अग्न्यादिदेवपल्न्यन्तं देवताकाण्डमुच्यते ` श्ग्न्यादिदेवीऊर्जाहुस्यग्तः क्षितिगतो गणः वाय्वादयोःभगान्ताः स्युरन्तरित्तस्यदेवताः खूयादिदेव पल्न्यन्ताचुस्थाना देवता इति गौरादिदेवपल्यन्तं खमास्नायमधीयतते ` , प्का्थवाचिनां पयायशब्दानां सन्नो यत्र प्रायेण उपदिश्यते तश्र

५६ सायणाचार्यङूता

निर्धण्डुशब्दः भरसिद्धः ताद्रशेषु असरखिदहवेजयम्तीहलायुधादिषु दृश निघण्टव इति व्यवहारात्‌ ! प्वमचापि पयायशब्दसक्गोपदेशाद्‌ . आद्य- काण्डस्य नैवण्डुकत्वम्‌। तस्मिन्‌ काण्डे जयोऽध्यायाः। तेषु प्रथमे पथिन्यादि - लोकदिक्कालादिदवव्यविषयाणि नासानि द्वितीये सनुप्यतदवयवादि- द्रव्यविषयाणि तृतीये तदुभयद्रव्यगतवंहुत्वहस्वत्वादिधर्भविषयाणि !

निगमशब्दो वेद्वाष्ची, यास्केन तच तच्ापि निगमो भवतीत्येवं वेद॑वा- क्यानोम्‌ अवतारितत्वात्‌ तस्मिन्‌ निगम पव धराये वतेमानानां शब्दानां चतुर्थाध्यायरूपे द्वितीयस्मिन्‌. काण्ड उपदिष्टस्वात्‌ तस्य काण्डस्य नेगमत्वम्‌ 1

पश्चमाध्यायरूपस्य तृतोयकोणडस्य देवत्वं विस्पष्टम्‌

प्चाभ्यायरूपकार्ड्रयात्मके पतस्मिच्‌ प्रन्थे परनिरपेक्षतया पदाथ. स्य उक्तत्वात्‌ तस्य म्रन्थस्य निरुक्तत्वम्‌ तदुन्याख्यानञ्च समाम्नायः समाम्नात इत्यारभ्य तस्यास्तस्यास्ताद्भान्यमद्चुसवस्यञ्चुभवतीत्यन्तेदद श. ` भिरध्यायर्यास्करो निमैमे तदपि निरूक्तमित्युच्यते, एकैकस्य पदस्य संस्भाविता अवयवार्थास्तज' निःशेषेण उच्यन्ते इति व्युत्पत्तेः} त्न हि, चत्वारि पदजातानि नामाख्यति चो पलगंनिपाताश्वेति परतिज्ञाय, उश्चावचेषु अर्थेषु निपतन्तीति निपातस्वरूपं निरुच्य एवमुदाद्टतम्‌-नेति प्रतिषेधा्थीयो भाषायामुमयमन्वध्यायं नेन्द्रं देवममंखतः इति प्रतिषेधा्थीय इति, ष्टु्म- दासौ छखयामिच्युपमायीय इति ( नि० १।४ ) तख लोके केनल- श्रविपरेध्राथीयस्यापि नकारस्य वेदे प्रतिषेधोपमालक्षणोभयार्थोदाहरणमसिमन्‌ प्रन्थेऽवगम्यते 1 पवं प्रन्थकारेण उक्तास्तत्तत्पदनिवेचनविष्येषास्तत्तन्मन्न- व्याख्यानावसरे पव अस्माभिरुद्‌ाहरिष्यन्ते निवैवनार्ननिमूलल्वं शङ्कनीयम्‌, पतदुव्युस्पस्यथेमेव ाछशेषु पद्निवंचनानां केपाश्चिदटुक्तव्वात्‌- ५'तृदाषुतीनाम्‌ आडुतित्वम्‌?, इति, ( पेत० व्रा° १।१।२ ) “तमिदन्द्रं खन्त- जिन्द्र इत्याचक्षत, इति, ( पेत० आ० २।४।३ ) “दप्रथयत्‌ तत्‌ पृथिन्याः पृथिवीत्वम्‌? इति ( ते० ल्रा° १।१।३७-) प्रन्धकारोऽपि तत तज स्वो- तनिवैचनभूलभूतव्राद्यणानि उदाहरिष्यति केपाञ्िन्‌ निवेचनानां न्याक- रणवलेन सिद्धावपि स्वधां सिद्धिरस्ति अत्तएवः प्रन्थक(र आह “तदिदं विद्यास्थानं व्याकरणस्य काट्सन्यं स्वा्थंसाधकञ्च दति ( नि० १।१५) तस्माद्‌ वेद्‌ाधाववोधाय उपयुक्तं निरुक्तम्‌

छन्दसः प्रयौजनोपन्यासः तथा छन्दोघ्रन्थोऽपि उपयुज्यते, छन्दो- विशेषाणां तन्न तच विदितत्वात्‌ 1 “तस्मात्‌ सप्त चतुरुत्तराणि छन्दांसि धरातर्युवाकेऽनुच्यन्ते ( ते० ्ा० १।५।१२।१ ) इति हि आम्नातम्‌ !; गाय- युष्णिगचुष्च्छदती पराक्तिचिष्रुन्जगतीत्येतानि सप्र छन्दांसि चतुर्विःशत्य- क्षरा गायची ततोऽपि चतर्भिरक्षरैरधिका अष्टार्विशत्यक्चस उप्णिक्‌

च्रर्चेदभान्यापक्रमणिकरा। ४७

पवंमुचयनच् धिच वलुष्टताद्योऽवगन्तव्याः तथा थन्यत्ापि श्रयते-- . भगायवीभिनत्राह्यणस्य द्याव , भिद्रवुभो यजन्यस्य, जगदीयिर्वंशृयस्यः इति ( त° त्रा० 2121६1६ } 1 चच मगसय्रगणादिखाध्या गायच्यदिविवेक- पृदन्दाच्रन्थमन्तरेण सविक्ेयः कि, यो दह्‌ वा यचिदितार्ययच्छुन्दोवे- चतब्राह्यरेन मन्छेण याजयत्ति वाध्यापयति चा “स्थाणं चर्च्छति ग्तवा पाल्यतं भ्रमांयते वा पापीयान. सवदि 1 ( का० 2१) तस्मादतानि मन्त्र मन्ते वि्रामिति श्रूयत 1 त्स्मात्‌ तद्धेद्‌नाच दुन्दोत्रन्ध उपयुज्यते 1 ग, ल्योविषस्य प्रचोजनादविनिदरगाः। ज्यातिपस्य प्रयोजनं तस्मिन्नेव न्थ चविदितम्‌--“ध्यद्रकालाथंसिद्धयःः इति क्नलचिगपविधयच् श्वयन्ते-“सम्ब- त्छरमतदर बतं चरत्‌? ( वण चा २५1६४ )-“लम्बत्ससमय्यं भत्वा" इच्ये- वमाद्‌धः सखंवत्सरविघ्रयः ; ध्वसन्ते व्राह्यराऽधिमादप्रीत, श्रीप्मे सलन्य वादुध्रीत, गरदं वंश्य आदधीत ( तै च्र०१।१ ) इव्यष्या द्रठुविश्वयः 3 "मासि मासि सचप्रृष्टानि उपयन्दि, मासि मासि अतिन्राद्या शरृद्यन्तेः ( तै सं० ७1५। ५. ) इत्याच्चा माखविश्वयः ; चं कामयत वसीयान्‌. स्या- दिति तं पृच्यपक्ते यालव्रटू ( तं० स० २।२।२।१ ) इत्याच; पश्चचिध्यः; ^प्काणकायां द्रन्तरन+ “फर्युनीपृणंमाख द्रत्तरच्‌ः ( सा० भ्र° ५६1१७ ) दत्याद्यास्तिथिवि ध्यः ; "ध्रावज्चद्यतिं ; खायं जद्दातिःः ( ते० जा० २।९।२ ) प्राचःकालादिविध्यः ; “क्रच्िकास्व्चिमाद्ध्रीतःः ( वै० जा० २।१।२।१ ) दस्याद्या चश्चचवि श्रयः यतः.कालचि गोपान्‌, घवगमयिदं ज्यातिषस्ु पयुल्यते। पेषं वदृाथथपिक्मस्सिं पण्यां अन्थानां वेद्‌द्धत्वं शिश्चायामेव- पदीस्तिम्‌- “न्दूः पादू तु वदस्य दस्त कट्पोऽथ पटथयते 1 स्यतिप्मयनं चक्रुचिर्तं श्चा्मुच्यते शिच्तव्रमणं वदस्य युखं व्याकरणं स्तम्‌

तस्मात्‌ खाज्गमधीत्येव बहला महीयते. ॥>( पा० शि० ५२-४२) पुराणाल्य्रायादििचतुाविचास्थानानां पडद्नवत्‌ पुराणादीनाम्रपि वेदा-

तंचद्रथिकरारिविवपनिरदायुवेन अदाै- ्॑न्ानापयोगो यानवस्क्येन स्म्य॑ते- श्वानापयागित्स्‌ “पुराणन्यायमीमरंखाध्रमेशाख ङ्गमिधिताः चदा; श्थानानि विद्यानां धमंस्य चतुदेश्न ॥" ( या० स्छ° १३ ) !'्रतिद्सपुसणान्या वद्‌ खमुपवंदयत्‌ विंभ्यत्यल्पशचुत्ादू वदा मामयं पहरेदितिःः॥(म० भा० १।१।२द्‌७) दरत्यस्यचापि स्मयत -फेतस्यतैत्तिसैयकाटकादिशराचूत्मनि ` दरिख्न्दरनाचिकेचादुपख्या-

( उयसाचा्ङृतां

नानि धर्मब्रह्माववोधोर्युक्तानि तेषु तेषु इतिहःखप्र्ेघु स्प्ठीङतानि उपनिषदुक्ताश्च खष्टिस्थितिल्यादयो बाद्यपडवेष्एवादिपुयारेषु स्पण्रीरूताः- 'सगंश्च भ्रतिखग्ध कंसो सन्वन्तरासि 1 वंशाञुचरितश्चेति पुराणं पञ्चलक्षणम्‌? ( वि० पु° ३।६।२५) इति खष्टधदेः पुरार्रतिपाद्यत्वावगमतात्‌ न्यायशास्मे परमार्प्रमेय- संशयप्रयोजनट्र्टान्तादीनां षोडशपदोथांनां निरूपणात्‌ तदडसारेए इदं वाक्यमस्मिन्‌ अथे प्रमाणं सचति नेतर हू इति निरयः कत्तु शक्यते पूर्वो- तरमीमासयोक्द्‌ार्थोपयोगो ऽतिस्पष्ट एव सन्वश्चिविष्युहायीतादि- भोक्ता स्घरतिषु वेदोक्तसन्भ्याबन्दनादिविधयः प्रपञ्चिताः) “तदुह्‌ वा पते बरह्मवादिनः पूर्वाभिमुखाः सन्ध्यायां गाय्च्याभिप्रन्तिता आपः ऊटु्व चिल्लिपन्तिःः इत्यादिकः ( ते० भा० २।२।२) सन्ध्याचन्दनचिधिः 1 "पञ्च घा एते मह्ययक्छा; सतति भतायन्ते” { त° आ० २।१० ) इत्यादिको महायज्ञ विधिः प्वं विध्यस्तसणि द्रष्टव्यानि उक्तप्रकारे पुखणाद्धीनां वेदार्थं शनोपयोगाद्‌ विद्यास्थानत्वं युक्तम्‌ रतेः पुरणादिभिश्चतर्दश्टभिवि्य- स्थानैरुपवंहिताया विचायः प्रहणे ऽधिकारिविशेषः शाखान्तरमतेश्चतुर्भिर्म- ` न्वेरुपद्शितः वांश्च मन्ान्‌ मास्क उदाजहार ( नि० २४) | तायं प्रथमो मन्नः विद्या वे बाद्यण॒माजगाम गोपाय मा सेधधिष्टेऽहमस्मि असूयकायाचरजवे भ्यताय मा चरखा वीयंवती तथा स्याम्‌ विद्याभिमानिनी देव्ता नाह्यरघुपदेष्ट॑र्माचाय्यमागत्य एकं ्राथया- मास हे ब्राह्मण, मामनधिकारिये ऽघुपदिश्य पालय तवाहं निधिवत्‌ पुरषार्थहेतुरस्मि ताद्रश्यां मवि मडुपदेष्टरि त्वयि योऽस्यां करोति, यश्च भारवेन विद्य, नाभ्यस्यत्ति, योऽपि स्नानाचमनाद्याचारनियतो मवति ताद्रक्षेभ्यः शिष्याभसेभ्यो्मां ब्रूयाः; तथा खति त्वद्ये स्थित्वा कलप्रदा भवेयम्‌ अथ द्वितीयो मन्नः- आतृख्च्थविसथेन कर्णाचदःखं ऊर्वं संप्रयच्छन्‌ रतं मन्येत पितरं मातस्च तस्मै द्रद्येत्‌ कतसचनाद्‌ पूवंस्मिन मन्वे भाचाय॑स्य नियममसिधा्य अस्मिन्‌ मन्वे शिष्वस्य नियमोऽभिधीयते वितथमचतमपुरूषार्थमृतं लोकिकं वाक्यम्‌ ; तद्विपरीतं ( १) मलुरपि अस्यैव मन्त्रल्या्थमिस्थं प्रकदीचकार स्वीयल्पतो- विद्या चाह्वणमेत्याई धेयधिस्तेऽस्मि रक्ष माम्‌ असूयकाय मां मादास्तथा स्यां वीयवत्तमा (म० स्र" २११४)

(२) तथा मचुः-उत्पादकयच्यदात्रामेसयाच्‌ ब्रद्यदः पिता ब्रह्मजरप द्वि विप्रस्य प्रेत्य चह शाश्वतम 7 ( 70 ^

श्रग्ेदभाष्योपक्रमणिका ५९

शत्यं वेदवच्त्यमवितथम्‌ ताद्रगोन वाच्येन आचार्यः; शिष्यस्य कर्णा. चातृणच्ि सर्व तस्तर्द॑नं पूरणं करोति उपसर्गवशादौचित्याश्च तृणचि धातोरर्थान्तरे चृचिः स्वैदा वेदं यः श्रावयति इव्यथः किं कुवन्‌ ? यदुःखं कुर्वन्‌ मन्दधक्षस्य माणवकस्य आदावर्धर्चश्चं वा श्रहीठुमशक्तस्य यथा दुःखं भचति तथा पद्‌ पादेकदेणं वा ग्राद्यन्‌ \ किञ्च, अद्ृतं सस्प्रयः च्छन्‌. अग्रतत्वस्य देवरऊन्मना मोक्षस्य वा प्रापकत्वाट्‌ अश्रतं वदाथः; तस्य प्रदानं र्वन्‌ तं ताद्रशम्‌ चायं सन्‌ स्चिप्यो मुख्यमातापिचृरूपं `\मन्येत पूर्वसिद्धो ठु मातापितरावध्मस्य मञुप्यशरीरस्य प्रदानादसुख्यौ तस्मै सुखल्यमातापिव्ररूपाय भाचा्य्याय एकमपि द्रोहं र्यात्‌ अथ तृतीयो भस्वः अध्यापिता ये गरं नाद्वियन्ते विधा बल्या मनसा कर्मणा यथैव ते गुयोर्मोजनीयस्तथेव ताच्च भुनक्ति श्रुतं तत्‌ ये त्वध्रमा लिभ्रा शर्ण अध्यापित खन्तो विनयोक्त्या वदीयदहित- चिन्तनेन शुश्रूषया वा गुरं नाद्वियन्त अआद्र्रहितास्ते शिप्याभाखा शसे चं भोजनोया अचुभवयोम्या भवन्ति, हि तेषु शुरः रपां कसोति यथेव गुखणा ते पालनीयास्तयैव तानधमान्‌ शिष्याय तच्छतं शुरूपदिष्ं बेद्‌- चाक््यं पालयति, फलदं मवति इत्यथैः 1 भथ चतुर्थो मन्वः-- "यमेव विद्याः श्चिमथमत्तं मेधाविनं बह्यचर्यो पपम्‌ 1 यस्ते द्रुयेच्‌ कतमच्नाह तस्मे मा च्रुया निधिपाय ब्रह्मन्‌. हे आचार्य, यमेव मुख्यशिष्यं श्चित्वादिगुोपेतं जानीयाः, कञ्चि थौ मुख्यिष्यस्तुभ्यं कदाचिदपि द्रद्यैत, तस्मे तु युख्यशिप्याय -त्वद्ीय- निधिपालकाय हे ब्रह्मन्‌ वेद्रूपां मां विद्यां च्याः दत्थं विघ्यादेवतया प्राथितत्वाद्‌ आचार्येण मुख्यशिप्याय वेदविद्या उपदेष्टन्यो तदर्थश्रग्वेदोऽस्मामिः षडङ्गाटुसलारेण व्याख्यायते

{ ६) मन्त्रार्याऽ्यं मनूनापि प्रविपादित्त- यमेव तु चिं वि्याननियतं ब्रह्चारिणम्‌ तस्मे मां ्रूहि विग्र निधिपायाग्र॑मादिने ( म० स्ष्र० २। ११९)

सामवेदसहितायाः साचणाचाय॑कत।

माव्यभूमिका

सायवेददंहितायाः भष्यावतरणिक `

, वागीशाद्याः चुमनसः सर्वार्थानामुपक्रमे 1

यं नत्वा करतच्त्याः स्युस्तं नमामि गजाननम्‌ १॥ यस्य निःश्वसितं वद्‌ या वदेभ्योऽखिलं जगत्‌ निर्ममे तमद बन्दे विच्रादीर्थमदेष्वरम्‌ ततक्छटाच्तेण तह पं द्वद बुक्रमद्ीपतिं

आदिमत्‌ खत्यणाचास्यं वेद्धाथंस्य अकाश्चे २॥

ये धृर्व्तिनमीमांस ते व्याख्यायातिखञ्यद्यत्‌

छपाल्नुः सायलत्चार्यो चद्‌ एथ चच्तुपरुद्यत; 1 2 सलामवदार्थमध्तेऽच यक्राश्लयति सादरम्‌ 1 उद्रगातस्तच्चजिक्ास्तोरपि तेन छतार्थत्ता ५}

यघ्लो चल्य घटेषु दाचर्था काण्डयोदधयोः यध्वर्युमुख्येऋंत्विम्मिच्धर्तभिचक्सम्पद्‌ः निर्मिमीते क्रियाखच्ेरष्यरयर्यदरियं वपुः

तद्ख्ट्ुषतं दाता अद्याद्रातत्यमो चयः ॥७॥ श॒द्यणाज्यादुषाक्याभिर्दाताऽयद्कख्तेऽध्वस्म्‌ } आनज्यपृषटादिभिः स्तोचेच्दावाऽलद्कयेत्ययुम्‌ चयागामपग्णधं ठु बह्मा परिदहेरत्‌ खद्‌ 1

ऋचां त्व इति मन्येऽखाव्यंः सर्वोऽयिधीयते 2 यद्रं चु्भिरध्वर्युनिर्भिमीत ततो चच्छुः 1

व्याख्यातं पथमं प्चाट्रचां व्याख्यानमीरितिम्‌ } १० ]] सखान्नाग्रूगाधितस्वन सामव्याख्याऽ्थ वरार्यते | अयुतिष्टालुजिकासावगादू्‌ व्याख्याक्रमो ययम्‌ 1 १९ जाते देदह भवत्यस्य कटकादिचिभ्रुपरम्‌ 1

आधितं मणिद्युक्तादि!कटकादौ यया चथा 1 १२

` चद्र्जाति चन्दे च्याटग्मिर्तद्विभूवणम्‌ 1

~ सामाख्या मणिमुक्त्ा ऋषु वाख समाधिताः १३ - ५,

६४ ` सायणाचायृता

4 अध्वयुहोभुद्ावृ्रह्म- नन्वध्व्ुँदोत्रुद्ाठब्कर्तज्यग्रतिपादको यो तेपादकमन्त्रस्या- मन्तस्तस्यार्थों - योजनीय इति चेत्‌. ? भयोजनम्‌ योज्यते-

` “ऋचां त्वः पोषमास्ते पुपुष्वाच्‌ गायचं त्वो गायति शकयीषु ब्रह्मा त्वो चदति जातविद्यां यज्ञस्य माचां विभमीत उत्व” + | ( १०।१७।११ ) इत्येष मन्त्रः तस्यायमर्थः त्वशबव्द्‌ः स्व॑नामसखु पठितः पकशब्द्‌- पर्यायः, एको होत॒नामकः ऋत्विक, तच तत्र॒ विभकीरंत्वेनाधीतानाखचां यज्ञानुष्ठानकाले सक्घीभावमापाद्य पुष्टि ङुवन्नास्ते पक नामक शकयंपलक्तितच्छन्दोविशेषयुक्तस्बक्षु गायत्रादिनामकं साम गायति पको बद्यनामको ददोत्रादीनां बेदजयविषये यस्मिन्‌ कस्मि्िदपराधे जाते तस्तीकाररूपां विं्ां वदति ! अत प्व च्छृन्दोगा आमनन्ति “यज्ञस्य हेष भिषग्‌ यद्‌ ब्रह्मा यज्ञायेव तदू भेषजं कृत्वा हरति, इति; “यदि यक्ष ऋक्तं आर्सिर्भवति भूरिति बरह्मा गाहपत्ये जुहुयात्‌” इत्यादि पकस्त्व- ध्वयरय्॑चस्य माघ्रामियत्तां विमिमीते विशेषेण परिच्छिनत्ति इति नयु वेदा्थभ्रकाशकेऽस्मिन्‌ ग्रन्थे वेदानां व्याख्येयत्वे सति तत्परित्यज्य यज्ुरादिकं व्या्येयत्वेनोपन्यसित॒मयुक्तम्‌ इति चेतत्‌ . ? नायं दोषः, मन्व- विशेषवाचकेयंजरादिशब्दैस्तत्तनमन्बोपेतानां वेदानामुपलक्षितत्वात्‌

मन्त्ररक्षणम्‌ नज मन्त्रवेद्योः को विशेषः इति चेत्‌ ? उच्यते मन्वब्राह्मणसमध्िवंदः तथा चापस्तम्बः स्मरति “मन्घन्राह्मणयोेद्‌- नामधेयम्‌ इति वेदेकदेशयोर्मन्तताह्यणएयोः प्रथक्स्वरूपं सेमिनि. न्ययिन निर्णीतणान्‌ तत्र मन्वस्वरूपनिरयं द्वितीयाध्यायस्य भरथमपादे सप्तमाधिकसरणे न्यायविस्तरकार इत्थमुदाजदार- ५अबह बुध्निय मन्धं मे इति मन्जस्य लक्षणम्‌ नास्त्यस्ति वाऽस्य नास्त्येतदध्याप्त्यादेर्वारणात्‌ याक्ञिकानां समाख्यानं लक्षणं दोपवज्जितम्‌ तेऽजुष्ठानस्मारकादौ मन्वरशब्दं पयुजते ( जेणन्या्मा०२।१1७) माधाने इदमान्नायते “भदे बुध्निय मन्तरं मे गोपायः ( तै० त्रा० १।२। ९।८६ ) इति 1 तञ मन्त्रस्य लक्षणं नास्ति, अन्याप्त्यतिन्याप्त्यो्वारयितम- शक्यत्वात्‌ 'विदहितार्थामिधायको मन्तः” इत्यक्ते वसन्ताय कपिञ्रलाना- लमते, इत्यस्य मन्त्रस्य ( वा० स॑ २४।२० ) षिधिरूपत्वाद्व्याप्िः ] 'मननदेतुमेन्नः" इत्युक्ते बाह्मशेऽतिभ्याप्तिः ! वम्‌ 'असिपदान्तो मन्न “उत्तमपुखपान्तो मन्त्रः इत्यादिलक्चषणानां परस्पर्मव्यासिः इति चेत्‌ ? मेयम्‌ , याक्षिकखमाख्यानस्य निर्दोपलक्तएत्वादू 1 तथ्व समाख्वानमनुष्ठान-

खामवेदभाष्योपक्रमणिका ६५

स्मार्ादीनां सन्नत्वं नयति 1 उद्यथस्वेत्यादंयो ( तै° सं> द्‌! २1७1३ ) १चष्ठानस्मषप्यकाः {१} अधिमीडे पुरोहित ( च्छ० खं० ९।१।३ ) सित्यादयः स्ततिरूपाः {2: शे स्वः (ा० खं १२) इत्याद्यस््वन्ताः [३१ ञ्च मायादि चीत्ये (सा० खं० १३ ) इत्यादय आमत््रयोपेताः [४] 'अध्िदस्नीन विष्टर ( तै° सं ६1२1२1२ ) इत्यादयः प्रैपङ्पाः {४} मधः स्विदासीदुपरि- स्िद्‌ाखीत्‌ ( च्छ° १०११२६1५ ) इत्यादयो विचारया [दि] “अस्वेऽम्विके९ ~. स्वाल्लिके माचयदि कश्चनः ( व° खं० २३] ९= ) इत्याद्यः परिदेवनरूपाः' ^ {ज पृच्छामि त्वा पस्मन्तं पृथिव्याः { वा० सं० २३१६९ ) इत्याद्यः प्र्न- कपाः {=¦ चदिमाङ्कः परमन्तं पथिन्याः ( वा० सं २२।६२ ) इत्यादच-उच्- ~“ “ररूपाः [€ प्मन्यदप्यदाह्ययेम्‌ : ईद्रणे्वत्यन्तविजातीयेषु समास्यान- मन्तरेण नान्यः कथ्िददुगदो धर्मोऽस्ति, यस्य लश्चरायुच्येव 1 लक्चणस्यो- पयोगश्च पू््ांचर्चदंभितः पयोऽपि पदार्थानां चलन्तं यान्ति पृथक्ततः लत्तलेन सिदानान्तं यान्ति वियस्िवः॥ इति तस्मादयियुक्ानां मन्नोऽयमिति समाख्यानं ल्वराम्‌

बाह्यरस्वरपमपि तनेवाष्टमाधिकरटे इत्यं निर्यातिम्‌- “नास््येतदर ्ाह्वरेत्यज लक्षं विद्यतेऽथवा ! नास्तीयन्तो वेदभाग इति क्लकतेर्ावतः व्रह्मगङ्क्षगस्‌ मन्त्र व्राह्मणं चति डं साग तेन सन्नतः ] अन्यद जह्यणमित्येतत्‌ भवेद्‌ वराह्खलृक्नणस्‌ ।* ( जेग्न्या०प्रा० २।१। } चातुम्रस्यिष्विद्‌मान्नायते-पतद्‌ व्राह्यणान्येव पञ्च हर्वीषि ( तै० सं० 2191६12 ) इतिं 1 ठ्न बह्यरस्य लक्षणं नास्ति, कुतः ? बेद्भागानामच- त्ानवध्ाररेन व्राह्य लमानेष्डन्यथायेषु ल्त रस्याव्याप्यतिन्यास्त्यो शोधयिव॒मश्वच््यत्वात्‌ ! पूर्वोक्तौ मन्त्रमाय प्करः, सागान्तर(णि कानि चित्‌ पूवं ख्दादत्त खंग्रहीतानि ! देठनिव॑चनं निन्दा पश्चा संशयो विधिः) पर्क विः पुराकटपो व्यवधारणएकटपना इतिं ष्तेत द्यं न्त्यतः ( ्०२।५।२।२२. ) इति दितः ९} "प्तद्नो दधि त्वमिति निर्व चनम्‌ { ते० सं० २।५।२१३ ) {२} (मेन्या वे माषा ( व° सं ५।२।२1 ) इति चिन्दा {द चायुर्वं केपिष्ठेति ( वै सः २९।१।९ ) प्रशं सा [श] तट्‌ ज्वचिकित्सन्‌. छदवानी मा होपामिति ( त० सं० ६।५।९।९ ) संशयः "यजमानेन खम्मितांडुम्वरी ` भवतीति ( ते० सं० ६! २६०}३ ) विधिः {७} (मएपातेव मलयं पचतेः इति पगक्रतिः }अ} पुरा बारा अभैषुरि-

द्द -सायणाचार्थकता

ति- ( ते सं० १।५1७।५ ) . पुराकरपः [८] भ्यावतोऽश्वान्‌ प्रतिग्रहीयात्‌ तावत्ते वारुणश्वितुष्कपालान्निवपेदिति (त° सं २।३।१२1१) विशेषावधा- रणकल्पना [&] प्वमन्यदप्युद्‌एदाय्यंम

द्ेत्वादीनामन्यतमट्‌ बाह्यणस्‌ः इति लक्चणम्‌ , मन्बेष्वपि हेत्वा- दिसद्धावात्‌ः तथाहि-इन्दवो वामुशन्ति हीति ( १।२।४ ) हेतः उदानिषुम॑दहीरिति तस्मादुदकमुच्यत इति (अ० ३1१३४) निषेचनम्‌ 1 'मोघमन्नं विन्दते. थपरचेताः(चछ ०१०1 १९०६) इति निन्दा ! अध्िक्ष्‌ द्ं दिवः फङुदिति ( च्छ० ८७७१६ ) प्रशंखा अधः स्विद्‌ासीदुपरिस्विदासीदिति ( चऋ०-१०।१२६।५ ) संशयः 1 कपिञ्जलानालभत इति (.वा० सं ° २४।२० ) विधिः} सहस्रमयुता द्‌ददिति (छ० २२९१११८) परकृतिः ! यज्ञेन यकम यज्जन्त देवा ( ऋ० १०1६०1१६ ) इति पुखकर्पः तिकरणवह्ुरं ब्राह्मर्‌ं ति चेत न, इव्यदद्‌ा इत्यद्‌द्‌ए इत्ययज्ञथा इत्यपच इति ब्राह्यणो गयेदि- त्यर्मिन्‌. ब्राह्मणेन गातव्ये मन्वे. ( श० जा० १३१1५1६ ) ऽतिव्यापः “दत्याहेत्यनेन वाक्येन पनिवद्धं ब्राह्मणमिति चेत्‌ (यजा चिद्यं भगं भघ्षी- स्याह (ऋ ७।४१।२) भ्यो वा रघ्चाः एचिरस्मीत्याह (ऋ० ७1१०४१६) इत्य- नयोमैन्नयोरतिन्या्ेः 1 (आख्थायिकारूपं ब्राह्मणम्‌? इत्ति चेत्‌ ? न, यम यमी संवाद (ऋ० १०।१०)खुक्तादावतिव्याद्ेः तस्मान्नारित नाह्यणलक्षसमि ति प्राचे चमः मस्वघ्राह्मणरूपो द्वावेव वेदमागावित्यङ्ीकायात्‌ मन््रलक्चण- स्य पूषमभिहितत्वात्‌ 'भचसिष्धो वेदभागो बाद्यणएम्‌?र्येतल्लक्चषणं भवतीति?

मन्त्रविशेषाणा मन््रविशेषाणाखम्यजःसामरूपाणं लक्षणानि तस्मि- ग्य्ञःसामरूपाणां न्ेवाधिक्रारे त्रिष्वधिकरशेषु॒जेमिनिः सूजयामाख- रक्षंमानि 'तेषाद्ग्‌ य्ाथैवशेन पादव्यवस्था? ( मी० २९] २५.) “गीतिषु समाख्या ( मी० २।९।३६ ) “शेषे यञ्चः शब्दः” (मी० २। १।२७ ) इति तदेतन्न्यायविस्तरे स्पष्टीकत्म्‌- नर्क॑सामयजुषां लदम सांकयांदिति शङ्धिते 1 पादश्च गीतिः; पररिलिष्टपार इत्यस्त्यसङ्रः इद्माच्नायते *अहेवुध्निय सन्घ मे गोपाय यग्धपयस्तरेविद्‌ा विदुः 1 ऋचः सामानि यजूषि? (तैग्ना०१।२1२६) इति) जीन्‌ वेदान्‌. विदन्तीति चिविदं चिचनिदां सस्वन्धिनोऽध्येतारखरेविद्टास्ते यं मन्भागस्गादिरूपेण जिवि धमः तं गोपायेति योजना तच चि्विधानागकृ्लामयल्चुषां व्यवस्थितं लक्षणं नास्ति, कुतः ? साङ्कयस्य दप्परिदहरत्वात्‌ 1 "अध्यापकप्रसिद्धेष्ब- स्वेदादिषु. पठतो मन्नः" इति हि लक्षणं वक्तव्यम्‌ 1 तच्च सङ्कीर्णम्‌ “देवो बः सचितोत्युनात्वच्छिद्रेण चसरोः सूयंस्य रदिमिसिः" इत्ययं मन्नो यजे ( ते० सं ६।८।५1९ ) सम्प्रतिपन्नो यजुषां मध्ये पठितः 1 तस्य यजु

~

सामवेद्भाष्थोक्रमणिका ६७

प्रमरित, तट्‌ बाद्यसे खाविभ्यचं त्युक्त्येन व्यवहतत्वात्‌ “पतत्‌ साम माय- नास्ते (त° सखं० १।६।५।१) दति प्रतिक्ञाय किञ्चित्‌ साम यज्चवंदेऽद्गीकृतम्‌. “अक्धितमसि, 'अच्युतमसिः भ्ररसंशितमसिः इति चीरे (तै० सं १।६।५।९ ) यजंपि सामवेदे समान्नाततानि ( छा० उप० ३१७६ ) तथा गीयमानस्य सान्न आश्रयभूता ऋचः खामवेदे खमान्नायन्ते 1 तस्मान्नासित लक्षणमिति चत्‌? न, पाद्‌ादाोनामखकाणलक्षणत्वात्‌ | 1 "पादूवन्धनाथन चचोपेताः वृत्तवद्धाः मन्वाः ऋचः "गीतिरूपाः सन्नाः सामानिः चत्तगीति- जितल्वेन प्रिलि्रपठिता मन्ना यजंपिः इ्युक्ते कापि सङ्करः इति 1 रथन्तराव्दनिर्पणम्‌ धयदुक्तं गीतिषु सामास्येतिः तदैव चिशद्‌ीकन्तँ -“सक्तमाभ्यायस्य दितीयपादे स्थन्तग्शन्द्ो जिरूपितः “अदिदेश्यं विनिष्धेतं कवतीषु रथन्तरम्‌ गायतीत्यग्‌ गानयथ॒क्ता शब्दार्थो गानमेव चा दरति चिन्ता गानय॒क्ताः त्वभि व्वेत्यक्‌ प्रसिद्धितः ` लाघ्वादतिदेश्षस्य योग्यत्वाच्ान्तिमो भवेत्‌ ` . इदमान्नायते (क्वतीपु स्थन्तरं गायतिः इति, 'कया नश्चिज माुव- दिच्याश्चास्तिख चः कव्य; ( ता०त्र० १५1 १०) तासु वामदेव्यं सामाध्ययनतः प्राप्तम्‌ तद्वाधिवुं स्थन्तरं साम तास्वतिदिश्यते तचाति- . देशस्य स्वरपरं निश्चेतं स्थन्तस्णब्द्‌ार्थश्चिन्त्यते गानविशेपयनक्ता 'अभि त्वा श्र नोलुमोश्टतीयश्टग्‌, (पूर्वाचिकः २।५।१) रथन्तरमिव्युच्यते, कुतः ? अध्ये- तृप्रसिद्धितः 1 स्थन्तरं मीयतानिति केनविदक्ताः अध्येतारः स्वरस्तोभवि शेषयुक्ताममि व्वेत्युचं पठन्ति, तु स्वरस्तोभमाचम्‌ तस्माद मानवि शिरया छ्छचो स्थन्तरणन्दराथत्वमिति प्रापे, व्रमः, स्वरयादिविशेषाय- पर्वीमचस्वरूपग्रगक्चरन्यतिरिक्तिं यदू गानं तदेव रथन्ठर्शब्दा्थैः, कुतः ? लाघवात्‌ , किञ्च क्वतीष्तृष्चु गानमतिदेष्टं योग्यं त्तरृचस्तदोग्यतास्ति, कया नोऽभि व्वेत्यनयोचछचोँगपद्‌ध्वासधेयभावेन पटितुमशश्यत्वाहू तस्मादु गानविशेष एव र्थन्तरशव्द्‌ाथैः इति

सामवाच्दस्य गान- पुनरपि नवमाभ्यायस्य द्वितीयपादे प्रथमधि- मात्रवाचित्वप्रतिपादनम्‌ करणस्य प्रथमवरंके खामशब्दस्य गानमाच- वाचि्वं स्मारितम्‌-- “सामोल्लिवरददाद्यक्ती गीतायाग्रचि केवले गाने वा गान एवेति स्मार्यते सक्तमोदितम्‌ सामान्यवाची खामशब्दो विरेपवाचिनो बृहद्रथन्तसाद्िशब्द्‌ श्च गान माचरे चर्तन्ते, तु गानविशिष्रायाद्चि दत्ययं नियमः सप्तमस्य द्वितीय- पादे सिद्धः, सोऽत्र चद्यमाणविचासेपयागितया स्मर्यते इति

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६८ ˆ खायणाचायृता

सामणशब्दवाच्यस्य गानस्य स्वरूपग्यगक्षरेषु क्रष्टादिभिः ` खक्षभिः स्वरैः अक्षरविकायादिनिश्च निष्पाद्यते क्रुष्टः प्रथमो द्वितीयस्तृतीय- अतः पञ्चमः यष्श्चेलयेते सप्त स्वराः। ते चावान्तरमेदैर्वंडधा भिन्नाः स्वरस्य सामनिप्पाद्कत्वं छन्दोग्योपनिषदः प्रथमे प्रपाठके (८।३।४) प्र्नोत्तसभ्यामनन्ति “स॒ह शिलकः" शालावत्यश्चेकितायनं दास्मसुवष्च हन्त ! त्वा पृच्छानीति पृच्छेति होवाचका साश्नो गतिरिति ? स्वर इति होवाचः इति कारवा उद्धीथविद्यायां स्वरस्य सामसस्वन्धिखवंस्व स्थानीयत्वं शोभनव्णस्थानीयत्वं चामनन्ति - “तस्य हैतस्य साघ्नो स्वं वेद्‌, भवति हास्य स्वं, तस्य स्वर एव स्वम्‌ इति, “तस्य साश्नो यः सुवर्णं वेद्‌, मवति हास्य खवर्ण, तस्य वे स्वर णव . ( सामविण० ्ा० प्रपा० खं०) इति च।

अक्षरविकारादीनां श्रत्तरविकारादीनान्त॒ . सामनिष्पादकत्वं सामनिप्पाद्कत्ववणेनम्‌। नवमाभ्यायस्य द्वितीयपादे . एव ५अथकत्वादू विकर्पः स्यात्‌” ( मी०९।२।२६ ) इत्येतस्य सक्षमाधिकरणगतस्य सरस्य व्याख्यानावसरे शवरस्वामिना स्पण्रमु्तम्‌ “सामवेदे सदं गीत्युपायाः आहक इमे गीत्युपाया नाम ? उच्यते गीतिनांम क्रिया ह्याभ्यन्तरभ्रयल ` जनितस्वर्विशेषाणामभिव्यक्िका, सामश्ब्दाभिलप्या ला नियत भरमाणा, ऋचि गौयते तत्सम्पाद्नार्थोऽयस्गक्षरविकारो चिश्लेषो विकषे- एमभ्यासो विरामः स्तोभ इत्वेवमाद्यः सवं सामवेदे समान्नायन्ते-- इति तद्धिपये विचाये न्यायविस्तरेऽभिदहितः-- वि

““समुच्वेया विकट्या चा विभिन्ना गीतिदेतवः | आद्यः प्रयोग्रहणादर्थेकत्वाह्‌ विकल्पनम्‌

छान्दोग्ये तवल्कारादिशाखाभेदेषु विलक्षणा गीतिदेतवोऽक्षरविका- सादय आन्नायन्ते, ते सवं कमांडष्ठाने सखसुश्चेतव्याः कुतः ? प्रयोग- चचने सर्चेयां परिगरृहीतत्यप्त्‌ 1 मैवम्‌ , प्कैकशाखोक्तैरेवाक्षरविकायादि- निरध्ययनकाल प्व गीतिस्वरूपनिप्पन्ेस्तचनिष्पत्तिलक्षणस्य भ्रयोज- नस्थैकत्वात्‌ , ्रयोगवचनपरिग्रहीत्ता अपि बौ्दियववद्‌ धृद्रथन्तर- वश्च विकरपन्तेः इति

स्तोभस्य रक्षणनिर्वघः गीतिहैतणु स्तोभस्यात्यन्तधरसिद्धत्वात्‌ तल्ल- प्तणं तद््मिेव पादे एकादशाधिकरणे चिन्तितम्‌-- “स्तोमस्य लक्षणं नास्ति कि वास्ति चिवरैता अआयिक््यमप्यतिव्याप्तं विशिष्टं लक्षणं भवेत्त्‌ तावद्‌ विचणैत्वं लक्तणम्‌, वणेविकारस्य, .विपरीतव्ैत्वेन स्तोभ.

सामवेद्भाष्योपक्रमणिका ६६

त्वप्रसङ्गात्‌ 1 अश्च आयाहो ( स्ा० १1 १) त्यस्यास॒चि अकारस्य स्थाने ओकारं कत्वा गायन्ति “ओोग्नायिः इदि (गेयगाण्प्रप!०९. साम) अधिको वर्णः स्तोभ इत्युक्ते सति अभ्यासेऽतिग्याप्तिः "पिवा सोममिन्द्र मन्दतु त्वे- त्येतस्यास्रचि ( पू० आ० ५1१1८ ) दुत्वेत्यक्ञर-अयं . गानकाले ( गे० ग{० १०।२१३ ) चिरभ्यस्तम्‌ अतो विकाराभ्यासयोरतिव्याप्तेर्नास्ति -लध्च- -- णम्‌. इति चेत्‌ ? मेवम्‌, “अधिकत्वे सत्यग्विलक्षणवर्णः स्तोभः” इतिं चिशिग्रस्य तल्लक्चणत्वात्‌ ; लोकेऽपि सभायां विप्रलम्भकेनोच्यमानं -पक्ृता- र्थानन्वितं कालक्ञेपमाचदेतं शबव्दसशि स्तोभ इत्याचश्चते . तस्माद्‌-

लक्ष णम्‌? इति 8 वमेोपादीनो ८. ` गाने नां अक्षरविकारस्तोभादिवत्‌ बवरलोपोऽपि विषयाणां विचारः कचिद्‌ गीतिहेतुर्भवति, तल्लोपविषयश्च

विचासे नवमाध्याये प्रथमपाद स्या्यदशाधिकरणेऽभिहितः “हरा गिरा विकरपः स्यादुतेरेपा विशेषतः आद्यो मैवं चाश्पूवंमिराया विहितत्वतः ॥” ल्योतिष्ोमे श्रयते “यज्ञायज्ञीयेन स्त॒वीतः ( ताण्ड्य व्रा० ८] ६) दति ! ध्यक्लायज्ञ! इत्यनेन शब्देन युक्तायास्च्युत्पन्नं साम यन्नायज्ञीयम्‌ ( गेयगान १। ३२ ) तस्याखरचि गिराशब्द्‌ः पठ्यते शयज्ञा यज्ञा वो अश्नये गिरा गिया दश्चसेः इति (पृ आआ० १1४1१) 1 तत्र सामगा योनिगान- मधीयानाः सदैव गकारेण गायन्ति शगायिरा गिरा' इति बाह्ये (तारडय ८६) तु गकारलोपपूर्वकमाकारथकारादिंकं गानं विधीयते पर्‌ छृत्वोदूगे यम्‌ इति ! गिराशब्दे गकारलोपादिसशब्दो भवति इरायाः सम्बन्धि गानम्‌ परम्‌ तादशं कृत्वा श्रयोगकाले तद्वानं क्तन्यमित्यथैः 1 तत्र योनिगानव्राह्यणयोः समानवलत्वेन विरेपाभावात्‌ विकर्पेन प्रयो व्यमिति पापे, वमः ध्न गिसय गिरेति ब्रयाट्‌, यदू गिरा गिरेति ब्रूयाद्‌ आत्मानमेव तदद्धाता गिरेत्‌? ( ता० त्रा० ८। ६) इति गकारसहितगाने वाधकमुक्त्वा गकार- रहिंतमिरापद्रं गेयव्वेन विधीयते, तत्पददेरिकारस्य गाना्थमाकासे- यकार द्रकारग्येति जीन्‌. वर्णान्‌ प्रयते, तत (मायिराः इत्येव गातन्यम्‌ , ` ( उद्यगान प्रपा० १५ साम ) इति

- इरााग्दस्य गान- तत्रेवोपरितनाधिकारे कथ्िदू ` विशेषश्ि- विधानम्‌ न्तितः- “द्ररापद्‌ं गेयं स्याह गेयं वा गीत्यजुक्तितः गेयं गीयमानस्य स्थाने पातात्‌ प्रगीयते ब्राह्मणेन विहित इराशब्दो गातम्यः, कुतः ? परमिति शब्देन गीतः

">~ ~~~ ~ -----+---~-----~-~----------~----~---->-“-----------~-. नवव

७० खायणाचोर्य॑ङता

रलुक्तच्वात्‌ . पाणिनीयेन “विमुक्तादिभ्योऽण्‌ [अषा० ५1२1६।१] इति सजे रोयशब्दादण प्रत्ययो मत्वर्थीयो षिदहितः,{तथा सतीरापदोपेतं कत्वेत्ये- तावानेवार्थो भवति ! यदि परगीतेयपदसस्वन्धः तद्धितेन विवच्येत तद्‌ानीमाकासे यकार ईकारो रेफ आकारश्येतेः पञ्चयिवणेर्मिष्पनमायीरा- रूपं गीयमानेयशब्दध्रातिपादिकं भवति ताद्रणात्‌ प्रातिपदिकात्‌ पाशि- नीयेन द्ाच्छुः, [अष्० ४।२।१०४६] इति सूत्रेण प्रत्ययान्तरे सति, आयि रीयं त्वेति ब्राह्मणएपाठो भवेत्‌! तस्मात्र गेयम्‌ इति पाते, वमः-गीयमानस्य गिरापदस्य स्थाने इस पदं विधीयते इति पदमाचरस्य वाघ, :" न॒ वाध्यतेः किञ्च चिसुक्तादि [अष्टा०५।२। ६२९] सूत्रेणाण्‌ -.. ` पि, पूवैस्मात्‌ मतो चुः सुक्तसान्नो, [ अष्टा०५। २1.५९] इ. सूच्‌ समानुच्न्तेरेरं सामेत्यर्थो भवति, सामत्वं गीतिसाध्यम्‌ , यदा च॒ (तस्य विकारः [ अष्टा] ३) १२९ ] इत्यस्मिन्नथं अण॒ प्रत्ययः, तद्‌ानीमिराया चिकार इति विग्रहे यथोक्तं गानं ल्लभ्यते तस्माद्‌ गात म्‌" इति

{ सान्नां देवतास्तत्ति- ` वहुभिः परकारर्गानात्मकं यत्‌ ` सामस्वरूपं हेतत्ववणेनम्‌ निरूपितम्‌ , तस्यैव देवतास्तुतिदेतुत्वं ` नच- माध्यायस्य द्वितीयपादे ऽटमाधिकरणस्य प्रथमवरैके निणीतम्‌- ` ` “ऋक्सामाभ्यां चिकस्पेन स्त॒तिः साम्नेव वाधिमः1 पुरेव मेवम्डनिन्दालामप्राशस्त्यद्‌ शनात्‌ कचित्‌ कर्मविशेषे श्रूयते ऋचा स्तवते, सास्ना स्तुवतेः इति तज, पूर्वन्यायेन विकल्पः इति चेत्‌ ? मेवम्‌, ऋडनिन्द्ासामभ्रशंस्यो वाक्यशेषे ऽवगमात्‌ , भ्यद्रचा स्तुवते तदश्रा अन्ववायन्‌ , यत्‌ सास्ना स्तुवते तदेश्वुस नान्ववायन्‌, एवं विधान सान्ना स्तुचीतः इत्यु चं निः न्दित्वा साम प्रशस्य लिङुप्रत्ययेन साम विहितं, तस्मात्‌{सान्नेव स्तोत- व्यम्‌? इति साघ्नासचः प्रति तस्य सान्न; ऋचं प्रति संस्कारकत्वं तस्मिन्नेव संस्करत्वन्यवस्या पादे द्वितीयाधिकसर्ये निणीतम्‌ समच धरति मुख्यं स्याद्‌ गुणो वा वाद्यपाठतः सुख्यमभ्यसिठं पाटो गुणो गीताक्तरोः स्ततः रथन्तरं गायतीत्यादो यद्दानं विदितम्‌ तदेव सामशब्दा्थं इति ` धरतिपादितं स्मारित्च तदेतद गान्डचं रति पधानकमं स्यात्‌ , ङतः ? ` (पो सास्ना सौनिभूता ऋतवः छन्दसि आचिके पस्यन्ते तासां सामापरप्यायाणि

गाना{न यत्र शिय्यन्ते तदू योनिगानमित्याचक्षते बेदसाम, बेयमान, गेयमानमित्यपि त्र्यापरं नाम

+

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४७ १५

सामवेदभाग्योपक्रमणिक्रा 1 ७१

यागमरयोगाहू वदिः्ध्ययनकालेऽपि पट्दमानस्वात्‌ , गुणक्त्र॑त्ये ठु व्रीहिः प्रोत्तणादिवद साययध्पे पव गानमटदरतेत, दन्य श्रहिणनस्य विश्व- जिद्ादिवत्‌ फलं कल्पनीयम्‌ सथ्यकालीरगारं परखाजाद्दिवद्‌ासदुप- कारकम्‌ तस्मान्ुख्यमेतन्न त॒ युणकमं इति प्राप्ते, घ्रूमः--न तावहू वदहिः- पाटः प्रधघ्राचकम॑त्वं कल्पयितुं शक्तेति भूमिरधथिक्रद्युष्केचिन्यायेन प्रयोग पाटरचाय गानाध्ययनोपपत्तेः भूपिरथिको मरमां रथमाल्िख्याभ्यासं करोति, यथा चा छाः श्ुष्केण्ख्या प्रयोगपारवं लम्पादयति, तद्त्‌ )। ५नापि शुणकर्मतवे प्रयोजनाभावात्‌ धधानकर्मस्वमिति वाच्यम्‌, गानेन संस्छतै- रेगक्षरेः स्तचिखम्मवात्‌ ; "च्यैः स्वुचतेः "पृष्ठैः स्तुवते इति स्व॒ति- वेश्चानात्‌ ! तस्माद्रगश्चसणां स्वरविशिष्टव्याकल्यसिव्यक्िदटर्रं प्रयोजन. वित्यद्र्रस्याकल्पनीयत्याद्‌ गानं संस्कारकमं” इति

ऊदग्रन्धल्य पौस्पेयत्वा- यथोक्छस्रगश्चसणां संस्कारकं गीत्याममकं यत्‌ पौसपेयत्वविचारः साम ठेवदेकैकं छन्दोगा पएक्तैकस्याश्रुचि शवेद्‌- सामः नायके म्रन्धेऽध्रीयन्ते उमहलामके च्रन्थे पक्रं साम टृचेऽधी- यते सो ऽयमूहग्रस्थः तस्िमिकेव पादे प्रथमाधिक्ररणस्य द्धितीयवर्णके विचारितः--

ऊदट्न्थो ऽपतख्येयः पोर्पेयोऽथवःऽधिमः वेद्सामसलमानत्वाहू विधिखा्थैत्वतो ऽन्तिसः॥

सस्मिन्‌. त्रन्ये खाचगास्तृचे टचे सामकं गायन्ति सोऽयमृहन्नन्थो नित्यो त॒ पुख्परेण निमितः, कुतः ? जनध्यायवजनेन कचतुरस्मरणेनाध्याप- कानां वेदृत्वभसिद्धया वेदखलामनासकयोचिद्रन्थकतद्रत्वात्‌ ; इति चेत्‌ ? मवम्‌, अपोख्येचत्वे विधिवेयभ्यं प्रसङ्गात्‌ भ्यद्यान्यां तदुत्तस्योर्गायतिः इति विधीयते

ययमर्भः--अपोर्वेयत्वेन सखम्प्रतिपन्े वेदखामनामके अन्धे (कया ननि अग भुवत्‌; इ्येतश्यां ( उ्वराचिकस्य शपा०१ २सू०शल्‌० ) योन्यामेक्रकूस्यास्रचि यदू वामदेध्यचामकं' खासोपदिषएटं तदेवोतच्तस्यो- ऋछभ्योः "कस्त्वा खत्योमद्‌ा नाम्‌ (उ० आ० २।१२।२) “असी घु णः सखी- नाम्‌? (उ० अआ० ९।१२।२ ) इत्यतयोः दितीयनरनीययोर्ांदव्यम्‌ इत्ययं चिधिरूहघन्थस्य वेदत्वे व्यथः श्यात्‌ , '्वेद्टसाम' वदभ्ययनादेवं दत्सिद्धेः उपरितनश्छ्ये सामोहस्य पोख्वेयत्वेऽपि सामस्वहपस्य तद्राध्ार- धृतान्‌ त्िखणद्चयां वेदत्वाद्चध्यायाः चजैनीयाः, कर्च॑रस्मरणं जीरंद्धपारसादिष्विद विर्कादल्यवश्वानादुवप््वच््‌ } सस्थरणयदृलतैवाध्या- प्नां वद्त्वधद्धिद्िः यथा ददहचामध्यादका महर योण्टःलिप्यद्कःया- प्वलयननिमितं कट्पसनमएरण्यऽ्रीयसानाः पञ्चमसारण्यक्मिति वेदृत्यन

१०

७२ . - . सायखाचा्य॑ङूता

व्यवहरन्ति, तद्त्‌; तस्यापि वेदत्वमसत्वति वाच्यम्‌ , प्रथसमारण्यकेन पुनस्क्तत्वात्‌ , अथेवादराहित्येन ब्राह्यणसाद्रश्याभावाचचच तस्मात्‌ पञ्चमा- रण्यकवदूदः पोरूषेयः; पोरुषेयस्य न्यायभूलत्वात्‌ यज वचयमाणन्याय- विरोधस्तद प्रमाणम्‌, इति

एकं साम कृचे क्रियते स्त- तेव केचिढ्‌ विशेषास्तृतीयचतुथंपञ्चमपष्टा-

त्रियमिति विधानमूलको विचारः धिकरणेव॑हुवशंकोपेतैविचारिताः तन तृती- -

तृचे करणप्रकारश्च याधिकरणम्‌-

“"अंक्षैः सामक्चं छ्रत्स्नं वा परत्यचं तिखभिः श्चतेः

अशेमेवं स्तुतेरंशेरसिद्धेः प्रत्य चं भवेत्‌

पकं साम तचे क्रियते स्तानियम्‌ः इति, श्रयते; तच्च चधा विभक्ते

खामांनेषु एकैकोऽशः पकैकस्यासुचि गातभ्यः, कुतः ? पकस्य साम्नः तिख्‌- भिक्छम्भिर्गिष्पादनस्य श्रवणात्‌ ; इति घाते: ब्रुमः-स्तोचियमिति स्तुतिनि ्पाद्‌कत्वं कृत्छ्रस्य साप्नो विधीयते, तु खा्माशानाम्‌ 1 स्तुतिनांम गुण- कथनपरमेकं वाक्वम्‌ , तद्य वाक्यमेकस्याग्चि सम्पूर्णम्‌ ततः कत्स्नेन खान्ना तद्‌ वाक्यं संस्कार्यमिति पत्युचं सामाभ्यसनीयम्‌ तथा सति द्वितीयतृतीययोच्छरैचोस्तस्येव साल्ल आवत्तमानतया सामान्तरत्वाभा- वाद्‌ "छकमू्रयनिष्पाद्यत्वमविरुद्धम्‌ ; तस्मात्‌ भत्युचं कृत्स्नं लाम समा- पनीयम्‌? -इति

श्रठेदाविषयको चलतुथांधिकरणम्‌-

विचारः "तिखष्चष्टदितं साम विषमासु समासु वा। यथेच्छानियमादन्त्यः शर्लेशापय॒त्तये

विषमच्छुन्दस्काख समच्छन्दस्कासखु वा तिखष्वृक्षु स्वेच्छया साम गातन्यम्‌ , इत्थमेवेतिनियामकस्य कस्यचिद्‌ भावात्‌ दति चेत्‌ ? मेवम्‌ , शरलेशश्रसङ्गस्य;नियामक्रत्वात्‌ शरो हिसा, ठेशोऽस्पत्वम्‌ , चट हिंसखा- याम्‌ , (लिश? : अल्पीभावे, इत्येतद्धातद्धयद्‌ श्नात्‌ यद्यधिकच्छुन्द्‌ स्कायां योनौ उत्पन्नं साम, न्यूनच्छन्द्स्कयोगायेत, तद्‌ा सामभागेनेव तत्पूत्तंरव- निणए्सामभागाघ्रयाभावःद्धिस्येतः यदि योनेरप्यधिकच्छुन्द्स्कयो गीयेत,

तद्‌ साश्चोऽल्पत्वादवशिष्ट ऋग्भागः समरहितः स्यात्‌ ; तस्मात्‌ समा-

नच्छन्दं स्कास्वेवं गातव्यम्‌?-इति

छन्दःस्ययोरू्तरा- पश्चमाधिकरणे{प्रथमवरंकम्‌-- स्ययोववा च्स्वोरूढन- “छन्दः स्थयोरुत्तयास्थयो्वां गीतेरिदोदनम्‌ | मिति विचार अविश्तेपाद्‌ विकल्पः-स्यादन्त्यः सखंज्ञावलित्वतः सामगानाखक्पाठाय दौ अन्थो वियते, छन्दः, 'उन्तरा' -चेति तच दछुन्दोनामके ग्रन्थे नानाविधानां साम्नां योनिभूता पएवचः पठिता

सामवेदभाष्योपक्रमणिका 1 ७२

उन्चसात्रन्यं दृचात्मक्ायनि श्नि पठितानि पकरस्सिस्दचे दछुन्टोगता योन्यं व्रथन्रा, इतरे ढे उन्तरे # पतरं स्थते सति र्थन्तस्प्रत्तर्यार्मायति, यद्यस्यां ददुत्तस्योमयदी- स्यच द्विविध उत्तरे सम्भाविते, रथन्तरस्य द्ुन्टोग्रन्ध ऽभि स्वा श्वरेतीय्रग्‌ यानित्वेन परिता, तस्या उपरि त्वाधिद्धिहवामह इत्यदयः पृहदादिखा्चां योनयः परिता; [ प्र० ख० च्र०], उत्तराग्रन्थे "यि त्वा शरेति सूक्ते (1१४) तस्या उद्धशनत्वावा अन्या दिन्यो इत्येषा [१।११।२ साम्नः 'कस्याप्ययोचिभ्रता परिता) तच दछृन्दोय्रन्यापश्चया सामान्तस्यो्यानी (धन्वस्स्य स्वयोन्यचरे पवतः, उततयश्रस्थापेच्तया चृचगते द्ितीय- वरतवीव स्वयोन्युचर भवतः 1 तच चिदोपनियामकाभावाव्‌ ययोः कयो- ध्िद्धचस्योर्गानमिति चत्‌ ? मवम्‌, उच्चरति संला खदखा बुद्धिस्थ मवति प्रतियोगिनिग्पेश्चत्वाच्‌ 1 पर्वपरिवां योनिग्धचमपेद्य यदटुत्तयात्वं तद्धि्लम्बेन प्रतीयभानत्वादू दुर्वंलम्‌ इद्रशमेवोचरात्वं दृन्दसि पठि. तयोः स्त्रयोन्युत्तरभाचिन्योः सामान्तस्योन्योदधैयाचछरैचोः, टचगतयोस्तु द्वितीयवृघीययाख्चरत्वं सक्या वच॑त, अतस्वयोरेव गानम्‌ प्ययं खति पूर्वाधिकरण निर्णत सखमास्वव गानमयुग्दीतं भवति किञ्च तृचात्मकरु सेषु या पथमा योनिभूता त्नान्ना छन्दोग्रन्थस्य ध्योनि- ग्रन्यःः-दति अध्यापकानां समाख्या इतरस्य चचसद्ररूपस्य त्रन्धस्यो- परितनयोकछचोर्नामधेयन उच्चर" इति खमाख्या पव चन्रन्धः कर्माङ्ग- खमपरंकं प्रकरणं, पञ्चदश्तखन्रदशादिस्तोमानां चचेष्वेघोत्पन्वेः 1 तस्मा- दतच्तयाय्न्थस्थयोस्छचगतयाद्वितीयवृतीययोस्यसरहः"” इति

्रैगोकसामोदन" डितीयवरेकम्‌-- विचारः “वेशो ऽतिंजगन्यां 2 आनेय गीतये ऽथचा |

बृहत्या बादिमः खास्याचोत्तयात्वं श्रुतेवलात्‌

दादश चवुर्थंऽहनि चैशोकनामकं खाम [उहरप्र अद्द्‌] विदितम्‌, व्च विषाः प्रतना [५ १६1१1} इत्यतस्यामति- जगत्यापरुत्पन्नम्‌ ! तस्मिच्य ठृचे तस्या यौनेख्वरे ढे बृहत्यां नेमि यन्तीत्यादिकं { ५1१५२-३, | आान्नाते 1 तत्र ब्रहत्याञुगच्य तयो स्थने ढे उत्पचिसिद्धे अतिजगत्यं आनीय तासु विख गेयम्‌ ; तथा सति समास गानं पूवव निर्णातमल॒ग्रदयेत, धयति जगतीषु स्वुबन्तिः- दि [तारडघ्र जा० १२1१०] श्रूयमाणम्‌ भविजगतीवद्ुत्वम्‌ अन्यथा नोपप घेतेति चव्‌ ? मैवम्‌ , उच्तरयोर्गायतील्यु्तस्य संलारूपस्योच्तराग्रव्दस्या- धीयमानयाोर्वृदव्योर्संख्यत्वाच्‌ ., श्रुति वहूललिद्ाव्‌ "समास गालम्‌ः-उति न्याया चलीयखी यद्रेतदतिजगतीवटत्वं वड व्रदव्योः स्वीकार ्यप- पद्यते, पकषियास्तमस्याघ्र विदितत्येन तवसिद्धये घथमायाः अतिजगत्याः

8 दास्खचार्यक्नता

[न =

ल्ङ्ृत्व यावव्ंनीयत्वात्‌ ! तस्यात्‌

चश्राक्त साय दृहत्यारूहनायम्‌ः उति

विषनच्छन्दस््योख्वयो- धछठाधिकस्ट धरयमवर्णेकम्‌-- गान्प्रक्नारः ्ट्थन्दरे कङ्कट गादा अध्या वाद्यो ऽ्थैवत्वसः | पनःपदापरखियादेरत्त्या त्याऽश्ा ऽत्यन्न चान्यताम्‌ [1

= तारडच 515 श्ल = इदमाद्धचते ¦ ताडय 15. चं वृट्न्दस्येक्च्चुन्दः चच्तयोः पूर्वा | --£>

! जयपथयेः-च्रृद्द्रधन्तर तदतत्‌ खामद्यसितर- सामवदेकच्चुन्दस्कं अवतिः यस्मात्‌ क्ास्मात्‌ त्योवृंहदुरः 4

(40 ¢ ४.

4 (। ( ८५

[} १५. ^^ ]

साद्चारश्रवस्यृताच्छश्च चा दृहतष्ुन्द्स्क्य {२२२६ उर्‌ तः ~ नय नचन्नस् चामदेव्याटिकाम्ना [द = चां { {६ २] र! चदक्द्धन्र्> इनरक् चरामपटन्या = १44 (2 ५, (^ पक्च्छचस्वाः उन्तरायस्ये =) अस्नाता माध्य दच्च अवास्तव (च्चयः पक्त उत्तराद्रस्थं अस्नातः

|

सं्तरविललैपरिद्ाराय (तमास गायेतः-इति च्ययेन निरीं एव 1 इह वाचनिकं विवमच्छन्दरच्ाख्ु यानमिनि तच रथन्तरस्या्नच- तया ठ्चा चोत्तराच्रस्थे लमास्नातः, च्तिच्तहि ? म्रनाथ्स्तद्‌श्रयत्वेनास्नातः उाभ्यादन्‌भ्यां चिष्पचत्वास्‌ द्वा धवति, त्योख उयोच्छचोः भअन्ि त्वा गसेस्येया >>. प्रथमा,खा चद्ृहती 1 श्वत्वा चा अन्यो दिन्योः इत्येपा 1221२: छितीया, खाच पंचचिच्ुन्यस्क्रा ! तथ्या सत्ति तां पक्िच्छन्टच्ासपनीय तस्याः स्याने दाग्ततयीभते ढे

उत्पतिद्धङ्धमा चचां गृदीनव्ये, छवः > ज्॑वत्वात्‌ 1 उद््ातेन "ककुभाचु-

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न्तरे, इति वाक्त्वित र्थन्तस्खास्तः आाध्रयन्चन कङ्कभोविनिदयज्यमत्नयो

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१५९४

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चकद्र पप्तरश्चवन्य तात अन्यल्य उच्य स्यात्‌ क्च सास्ताताया

पलस्य प्रत्रः स्वाक्मर लति जछचाचयरत लायात्‌ चाम नृ [न्त्यिते स्वाचियम्‌ः-इदिं चचनं विख्ध्यत ! तस्मा्रयन्तस्लन्ति ढे कद्कधादुत्तरे सद्यीनव्व 1 ययमेव न्यायो बृहत्खासन्यपि योजनीयः इति प्राप्ते, तरनः- आस्नातयो्वंदनी पच्ल्योरेव कङ्कवु चथनीिया 1 दथाहि "धिं त्वा शरेच्येपा चृदती प्रथमा स्तोत्रिया, तस्यासविज्नतायामेव स्यन्तरं गातन्यम्‌ ¡ ततस्त- स्यावि चनुथं पादं पुनल्पादए्यात्तरस्या पृत्रिनि सह योजनी- यम्‌ , सेचनष्रविग॒त्य्षस तिपद्‌ा ह्ितीव्रा स्तोचिचा, खा चेका कक्प खन्पद्यने 1 तस्यां कदि चर्म पादं पंेदच्तराद्धंन खह पय्रथ्य वतीया स्तिया ्तेञ्या, लाच पठिता ककष सम्पद्यत 1 अन्रचनप्रक्ारेण डयो- ्न् चयाश्रातयवःः नृचानप्प्रत्तनास्यक् चन्नचसाध्वः 1 जस्मच् यथम पुनः पद्‌? उति शोत्तेचनितङ्गम्‌ , नथा = श्रूयते "पा परतिष्िता ब्रहती चा पुनम्पदरा तदू यत्‌ पदु युनरार्मन नस्मादु वत्सा नातर्मभिहिकयोतिः इदि! अयमः-यः वृतौ दुनम्पद्‌ः जयति, न्या भरतिष्िता स्थित वतिः

खामवेद्भाष्योपक्रमणिका -७५

पद चतुर्थः पादः, सो ऽष्युगन्तरसम्पादनाय पुनः पवयते, ततः सा वृहती पुनःपदा, सेयगरड्‌ः माता, तस्याः पादो चतसः; तश्रा सति यस्माद्‌ चतुर्थं: पादुद्वात्ा पुनसर्भते तस्ताहूू वस्सो मातस्मभिवीच्य हमिति शब्दं करोतीति क्रेवलं लिद्धमाथण प्रथनं, किन्तु दन्दोगानां प्रसिद्रयापि; ते देवं. , स्मरन्ति काकुभः प्रगाथः इति किञ्च परगाथशव्दाथंपर्यालोचनेनापि. प्रथनं शस्यते प्रकर्प॑ण ग्रथनं यत्र त्रगा्यः | प्रकरा नाम आन्नाताद्रक्‌-. पाटाद्राधिक्यम्‌ पूर्घाक्तरीत्या पाद्ाभ्यासपुरःसरशरगन्तरसम्पादनेनो- पज्ञायपे तस्मष्चोत्पविचक्रुभां प्रदीतष्ये, किन्ति ? भप्रथनेन दव उत्तरे कङ्को सम्पाद्य ताद तिखषु रथन्तर यातन्यम्‌ 1 तथा दददपि प्वं सति प्ते पाटः सार्थो भवतिः नचेवं ककुबुत्पत्तियैयभ्यैमिति शङ्कनीयम्‌ , वाचस्तोमे तदुपयोगात्‌ ; तस्मान्न कापि प्रम्रने भदुपपरत्तिः इति

्रतीविारपञक्त्मोः दवितीयं वरंकम्‌- ्र्रथनविरेपेण द्वयो शहत्योः '“योश्रोजये सेस्वे यृदृत्योरागमोऽथवा = £ < सम्पादनम्‌ अथनं पूर्ववत्‌ पक्नौ पष्िलिङ्गमिद्योच्यते

ददमाच्नायते भ्सौसत्रयौध्ाजये चाहते तृचे भवतः, इति [ ताण्डव त्रा ७1३] थयमशरैः सैरनामकं किञ्चित्‌ साम [ ऊहगान १।२] तथा, योध्राजयनामकमपररम्‌ [ उहगान १। २] तयोः सान्नोवंहतीच्छन्दस्कस्त्रच श्राघ्रय दति उन्तरात्रन्धे तु चस्य सामद्धयस्याध्रय पकः प्रगाथः आद्लातः, तरिमिशच प्रग्र शुनानः सामेत्यलावृक्‌ यथमा, सा बृहतीः "दुहान उर्दि व्यधिति दित्या, सा तु वि्रास्पंक्तिः 1 तामेतां विषटारपंक्तिमपनीय तस्याः स्थाते दत्पत्तिघृहव्यौ ढे ऋचो नेत्ये इति पूर्वपक्षः यृदतीविष्ठारपंवत्योः प्रप्रथनविग्ेण दव बृहत्याछत्तरे सम्पादनीये इति साद्धान्तः तथोभयन्न युक्तिः पूर्वन्यायेन श्रव्या लिङ्क सवेवरमा्नायते ध्ष्टिखिष्रभो माध्यन्दिनं सवनम्‌, इति, आथमः रोसवयोध्राजयनामकरे सामनी माध्यन्दिने सवने गीयेते ] तसिमश्च सचने त्रिरुपुदन्दस्का चः पष्िभधन्तीति, सेयं प्रपिसंख्या परग्रथनप्ते उपपयते तथाहि, माध्यन्दिने सवने पव- मान पकः प्ृस्तो्ाणि चत्वारि पमाने बचीणि सृक्तानि “उच्चाते- जातमिवयेक् सुक्तम्‌ , तत्र गनयन्यस्तिख ऋचः; पुनानः सोमेति द्वितीयं सुक्तम्‌ तच्च धरगाथ रूपम्‌ , ततर पवां वृहती उत्ता विषठारपंक्तिः ध्रतद्रव परि कोशमितिः ठतीयं सक्तम्‌, तत्र चिष्रुभस्ठिखः पृष्ट स्तोत्रेषु अभि व्वा शरेति' ्रगाथरूपं प्रथमं सुक्तम्‌ तत्र पूर्वा बृहती उन्तया विप्रारपकिःः ष्का रथिः दरति दवितीयं, तत्र तिखः गायन्यः तं बोदस्मणरृतीषहमिति ततीयं प्रगाधरूपं, तच वृहतीप॑वत्यौ (तयेभिरनो विददसुमितिः प्रमाथरूपं -चलु्थ, तापि बृदतीप॑क्त्यो पवमन्यस्मिन,

७६ ` सायणाचार्य्ृता

सवने सप्त सूक्तानि तेषु नव सामानि गेयानि भथमे सूक्ते गायत्रमाम- हीयवं चेतिः सामनीद्धितीवेःतोरवं योधाजयं च, तृतीये ओशनम्‌ , चतं रथन्तरम्‌ , पश्चमे, वामदेव्यम्‌ , षष्ठे नोधखम्‌ , स्मे कालेयम्‌ तच, प्रथमस्तस्य सामद्वयनिष्पत्तये द्विरचृत्तावाश्रयभूता चः षड गायत्यो भवन्ति, पञश्चमसूक्तगता वमदेभ्यसामाश्रयभूताः तिस्रः ऋचः सतदश- स्तोमसिद्धयर्थमावच्येमानाः सप्तदश गायत्रयः इत्येवं मिलित्वा चयो- विशतिर्गांयञ्यः 1 षष्ठे सूक्ते बृहती पडङ्कत्यो भ्ग्रथनेन बाहैतस्तरचो भवति, यथा सप्तमेऽपि, तघ्रोभयज सप्तदशस्तोमे सति चठुखिशदू वृहत्यो भवन्ति ; दितीयसुक्तेऽपि प्रत्रथनेन वाहैतं ठृचं सम्पादय समद्वयार्थमावृत्तो षड बृहत्यो भवन्ति चतठथसुक्तं स्थन्तरसामा्थं पू्ववरकोक्तरीत्या भत्र थने सति ककुभावुत्तरे मवतः; प्रथमा तु स्वतःसिद्धबृहती तत्र सपत- दशस्तोमे सति पञ्च बृहत्यो द्वादश कङुभश्च सम्पद्यन्ते तस्य स्तोमस्य विधायकं बाह्मणमेवमाम्नायते-"पञ्चभ्यो हिङ्कयेति तिर्भिः पकया पकया, पञ्चभ्यो हिङ्धरोति एकया तिसृभिः पकया, सत्तभ्यो हिङ्सोति कया तिख्भिः तिखभिः इति (ताण्ड २। ७) . अयम्थैः-पएका स्वतः सिद्धा ब्रहती, प्रथिते ढे ककुभाविव्येवंविधस्तृच- चिभिः पय्यायैरावन्तंनीयः, प्रथमे पययि जिव हती गातन्या, सकृत्‌ सकृत्‌ ककुभो, द्वितीये पर्याये सकृ हु बृहती चिवारमन्तरा ककुप्‌ सङृदन्त्या वृतीये पयाये सृ टु ब्रहती, चिखिः कङकभाविति हिद्कसोति दिङ्कारोपलक्तितं गानं कुयादित्यशः तदेवं वतीयसुक्तन्यतिरिक्तेषु षु सुक्तेषु चयोविशति- गायभ्यः पञ्चचत्वारिशद्‌ ब्रहत्यो ददश ककुभः सम्पन्नाः, तत्न ककुप्‌ अएाविशत्यक्तरा, तस्यां पोडशाक्चरे गायची पादद्धये योजिते चदश्चत्वारि- शत्यक्षण चिष्टुप्‌ सम्पद्यते अनया दिशा द्वादशानां कङ्कुमां चिष्टुपत्वस- म्पाद्नाय तावंशतिर्गायनीपादा योजनीयाः तथा सत्यौ गायत्यो गताः, पञ्चदश गायञ्योऽवशिष्यन्ते तासां पञ्चचत्वारिशत्‌ पाद्‌ाः, तांश्च तावतीषु बृहतीषु संयोज्य जिष्टुभः सम्पादनीयाः तत एताः पञ्चचत्वारिंशत्‌ ककुप्सु निष्पचनाः द्वादश 1 तृतीये सक्तं स्वतःसिद्धातिखः इत्येवं पग्रथनपत्ते षष्ठि खिष्टम उन्तराग्नन्थे समाम्नाता पएव लभ्यन्ते उत्पत्तिब्हत्यानयने तु प्रकर- णाम्नातानां तावतीनामलाभात्‌ परृतदहानाश्चकृतकल्पने प्रसल्येयाताम्‌ ।. तस्मात्‌ चिष्डुभः षष्िरित्येतट्‌ यृहती्रत्रथनस्य लिङ्गम्‌ 1 प्र्रथनप्रकारस्त्व- भिधीयते-"पुनानः खोमेत्यस्या ब्हत्याश्चतुथपादं पुनरुपादाय दिरभ्यस्य दान उधदिन्यमित्यस्या विष्टारपङन्तेः पूवान संयोजयेत्‌ , सा वृहती भवतति तदीयं चतुर्थं पाद्‌ द्विरभ्यस्योत्त सा्द्ध॑न योजयेत्‌ , सापि बृहती भवतिः तस्माद्‌ योधाजययोस्वयोवृ'दत्यो उच्चरे प्रग्रथनीये पच नोधस.

नपे

कालेययोरपि द्रष्टव्यम्‌” इति

७८ सायणाचार्यङता

जगत्यो भवन्ति, गाय्ीपादश्चातिरिच्यते 1 आर्भवपचमानवत्त तीयसवने यक्ञायक्ञीयस्तोजमेकमस्ति तस्य चाश्रयः यज्ञा यज्ञा बो अघ्मयेः इत्यसो प्रगाथः [ उ०्मा०९१।१९० ], तच पूर्वां च्रृहती उन्तसया विषरार पंक्तिः तयोः पत्र- यनेन कङकभावुत्तरे कन्तंव्ये तन्नेकविशस्तोमः तस्य विधायिका विष्ट तिरेवमाम्नायते-'सघ्षम्यो हि कोति सख तिखभथिः तिखभिः विखसिः, सप्तभ्यो हि करोति तिखभिः पकया तिखभिःः इति अयमर्थः- श्रथमायाः बृहत्याखिषु पययषु चरिवारमेकवारं पुनखिवारमिति सप चृ. त्यः, मभ्यमायाः कञ्कुभः प्रथमद्धितीययोः प्यांयोलिलिः पाटः, अन्त्ये सकृत्‌ , उत्तमायाः कङ्कभः 1 आदौ सत्‌ द्वितीयतृतीययोलिखिः, चत॒श ककुभः ता कङुप्छु ढादश्ताक्षसः मध्यमपादाश्चतुदश, तेषु सक्त पादाः सघ्तश्ु वहतीपु योजनीयाः, ततः सक्त जगत्यो भवन्ति, अवशिष्ट अष्टात्तराः कङकुभामादयपादा अन्त्यपाद्‌श्च, मिल्ित्वाष्ाचिशतिः। तेषु पडमिः पादः एका जगतीत्यनेन क्रमेण चतुविंशतिपदैश्चतखो जगत्यो भवन्तिः ये तु दादशात्तसः खतपादाः पूचंमवशिष्ाः तेषु पवमानशेषो ऽष्टाक्षरः पादो योजनीयः, कङकभांरेष्वेप्वष्राक्चरेपु चष पादेषु चत्वार्य्य त्षरारि योजनीयानि, ते 2 जगत्यो भवतः; तदेवं यज्ञायज्ञीयस्तोतरे जयोदश जगत्यः पूर्वोक्ताः पवमानगता पकाद्शेति चतुचिंशति्जंगत्यः, चतुरत्तर- वजिताश्चत्वारोऽष्टाक्चस्पादाः मिलित्वा क्ठुभेका भवति अनेन लिङ्गेन श्या- चाश्वसान्धीगवं प्रग्रथिततृचे गातव्यम्‌ , तु तथोत्पव्यनुष्वानयन- मिति स्थितम्‌ इति?

पादप्रप्रथने चुथैवणेकम्‌-- विचारः “चतुःशते प्रग्रथनसचः पादस्य वाथिमः [4 तृचे मुख्यत्वतो नेवश्ुगन्यत्वस्य वणेनात्‌

गवामयने ब्य साम विदितम्‌ "अभिवर्तो ब्रह्मसाम भवतिः इति तत्प्ररृत्य श्रयते "च तःशतमेन्द्ा चाहेताः प्रगाथाः' इति (लाच्याणस्‌०१०।३) चतुरुततर- शतसङ्ल्याकाः इन्द्रदेवताकाः बृहतीच्छन्दस्काः, ऋगृद्धयास्मकाः, तेप्वेकप्र- गाथगते दे ऋचो दविलीयभ्रगाथगतामेका्चं प्रत्रथ्य चच 'असिवत्तः नामकं साम गातव्यम्‌ 1 तथा खत्यास्नातानामविकतानामेव तिखणाश्चां लाभात्‌ वचस्य मुख्यत्वं भवति, पृर्वोक्तरीत्या पादधश्रथने तु विकूतत्वादमु- ख्यस्तृचः स्यात्‌ इति प्राते, ब्रूमः-भन्याः अन्याः चो भवन्ति तदेव सामे त्यचामन्यस्वमच चर्यते 1 तच पाद्‌धरग्रथने सम्भवति, छऋकधर्रथने त॒ येय- खक्‌ पवस्य तृचस्यान्त्या सेवोचर्स्य तृचस्यायेत्यन्यत्वश्रचः स्यात्‌ तस्मात्‌ पादस्य प्रग्रथनम्‌ इतिः

साम्रवेदभास्यौपक्रमणिका ५98

यदू योया चद्चतर्योरगायवी- तचरेव नवमदश्मयोरथिकरस॒योः अपरविद्रोपौ

ति विधानमृख्कोविचार- चिन्तितो नवमाधिकरणम्‌--

स्वथाकरणप्रकार आडमावो योनिवगादुचसवस्ततोऽथचा गीत्यर्थत्मादादिमोऽन्त्यो यर्णाभिन्यञ्ञकत्वतः

ध्यद्योन्यां दुत्त स्योर्गायतिः इति श्रूयते, तजर (कया न्िज आुवचव्‌? (० भ० १।१२।१) उत्यखावुग्योलिः ! तस्याम्रचि “कया इत्यक्चुरयमाद्ो पागः, नधि आस्वदित्यक्षरद्‌कं द्वितीयो भागः 1 तस्मिन्‌ अये दितीथाक्चरे चकार्स्यापरितनमिकारं विलोप्य तस्य स्थने आदभाव- “माचा गीतिनिप्पादिंता कस्त्वा सत्योमद्‌एनामिश्त्यनन्त्माविन्युच य, ( उ० १।१२।२ ) तस्यां योनिन्यव्रेन चलुराश्चरे तकारस्योपरितनं यक्खमोकारं लोपयित्वा तयोः स्थान आदमावः कायैः अमी पु णर सवपसो उ० आ० १।१२।३ ) 1 तस्यामपि चवुर्था्तरे णकार- स्योपरितनं खकारं लोपयित्वा तस्य स्थाने आद्रमांवः कर्चन्यः, अन्यथा गीविनागप्रसङ्गात्‌ इति परप, ्रूमः-नाच योनो वर्णन्वरस्यएगमः, किन्ति ? विद्यमान प्व चक्रारस्योपरिवनः इकारः खामप्रसिद्छया पक्रियया वृद्धः खन्नैकाये मवति, तस्य खन्ष्यक्चरत्वात्‌ , “धकारः पूर्वो भागः, ईकारः उच्तर भागः", तादु विष्लेषेख गीयमानं आडमावं प्रदिपदयेते, तथा सामगा यद्ध श्चद्धं तालन्यमाड्‌ भवतिः इति 1 तथा सच्युत्त स्योच्परथश्चरे नास्ति तालव्य दकारः इत्यादभावः क्न्कव्यः | "अभी घु णः खखीनामचित्ा जस्तिणाम्‌” इस्येतस्यामुत्तसायां उादृश्पाश्चस्गवस्य रेफस्योपरितनः इकारः पू्र॑वद्‌ाश मवति 1 तथा सोऽयमादमावः उक्तरीत्या वर्णांमिन्यक्चक्त्वादुचरा- गतवर्णवशेन कर्च॑भ्यः, गीव्यर्थत्वाभावेन योनिक्रमे . तेन विनापि गीतिविं नग्रयति दति” उन्तर्योः स्तोभाति- द्‌ शमाधिकरणम्‌--

देाकथनम्‌ स्तोभानात प्रदिश्यन्ते नागीतित्वेन बरीवत्‌ 1

स्वरादिवत्‌ परदिश्यन्ते गीतिकालोपयोगतः

वामदेव्यसाखः योनौ दयोखदयोर्मध्ये ओकारदयेन द्ोणव्देन हायि. शष्दरेन निष्पन्नः स्तोमः प्वमाघ्नातः 'यऽ३ हा हायिश्टति सोऽयं स्तोभः नो्स्योः श्रतिदिष्यते, कुतः ? जगीतित्वात्‌ चदूयोन्यां तदुत्तस्योगांयतिः दति गीतिमाचमतिदि्यते 1 चच प्रथमाया ऋचः वराः यथा नातिदिश्यन्ते शा स्तोभा अपि इति घातने, च्रूमः-स्वरो वणेविग्लेषो विराम इत्येते गीन्यु- पयोगित्वादू यथातिदिश्यन्ते तथा स्तोभा अपि गीतिकालपरिच्डेदकत्वा- द्तिदियन्तेः इति २१

२०. ` . , सायणाचा्यङूता

साम्पेदिनं सानैवा. अष्टमाधिकरणद्धितीयवखके कचिदत्पन्ना गानाभा चुष्टानकर्चव्यता- शड्म निवारिता- निरूपणम्‌ “गानस्य नियमो नोत विद्यते वहथ॒पस्थितो नाञ्नानद्यतोऽस्त्येव अकृतत्वाच्छ्ुतेरपि

ङुचित्‌ कमेविशेषे श्रयते--“अयं सहस्रमानव इस्येतया हवः यमुपतिष्ठतेः--इति असारुग्‌ संहिता म्रन्थे ( पू० आ० ५।८]८ ) समानाः प्रगीता गानय्रस्थे ( गोयं गान ९२।१।२६ ) ततो वह रूपस्थाने तस्यास्‌ गतं नियतं किर्तु विकल्पितम्‌-इति पराके, चभः-अस्त्येव निंय गने, कुतः ? सामवेदे गानस्येव प्रृतत्वात्‌, श्छ्चां -;हतं। ~ यानायेव, नद्याध्रारमन्तरेण गातुं शक्यते अथोच्येत श्रयं खष्टसखेः कभ्रतीकपूवैकेण बाक्येनोपस्थानविधानाद्‌ वाक्यस्य प्रकरणात्‌ प्रव त्वादरचेवोपस्थानम्‌ इति, तन्न भ्रक्ृतथ्रगीतमन्ञवाचिस्या एतयेति नामधुतेः पवलतरत्वाल्‌ 1 तस्मात्‌ प्रगीतयोरूपस्थानम्‌?-इति बरहत्पष्टादिषु ध्मसा- पञ्चद शाधिकरणादिषु धिषु धर्मसाङ्कयं चिन्तितम्‌

दूःयैचिन्तनम्‌ पञ्चदशाधिकरणम- बह द्रथन्तरेधैर्मेः सद्धीणं वा व्यवस्थिते पृष्टेक््यात्‌.सखङ्रे धमं निदेशदेन्यंवस्थितिः

उ्योतिष्टोमे विकल्पनं पृष्टस्तोओे विहितम्‌ श्हत्‌ पृष्टं भवति, रथन पृष्ठं मवत्तिः इति ! तचरोभयजन् धमाः श्चुताः-श्ृहति भस्द्ूयमाने मनसा मृद्धं ध्यायेत्‌ , स्थन्तरे प्रस्तूयमाने सस्मीलयेत्‌” इत्यादयः (ताण्ड्य ७1७) उभयचर सङ्कीयंरग्‌, पृरष्टसिद्धिलक्षणस्य कायस्य कत्वात्‌-इति चेत्‌ ? ` निर्देशमेद्‌प्त्‌, खाक त्ववैल्तरयेन बृहदिति स्थन्तरमिति डो निद नोपपद्येयाताम्‌; किञ्चाभयध्मेखादहित्यं विरुद्धम्‌ उच्चेगयं वल द्‌ गेयमि वृद्ध मेः ! नोचेगयं वलवदहू गेयमिति रथन्तरः तस्माटुभयो धेः ठ्यव तिष्ठन्तः इति

बृहदथन्तरयोधैमसयु- पोडश्ाधिकरणएम्‌ः--

प्वयकयनस्‌

तयोधैमाः खमुचेया चा कणूवस्थन्तरे दिस्थानत्वाद्‌ भाष्य आद्यो विसेधाद्‌ वात्तिकेऽन्तिमः

वैश्यस्तोमे 'करवर्थन्तरं पृष्ठं भवत्तिः इति श्रयते तत्न करवरथन्तर ख्यसान्नः पृ्स्तो्रसाध्नयोः प्राङतयोः बृहद्र थन्तर्योरुमयाः स्था पतित्वादुभयसंम्बधिधशः समुेतव्याः ये त॒ विरुद्धाः धर्माः उच्वेगे नोच्चर्गयभित्याद्यः ते विकल्पन्ताम्‌ , समुद्रध्याननिमीलनादीनां विर धामाचाच्‌ , परूताचिव निर्दृश्तसेदस्याचाभावाच्च समुच्चयः इति माण्यकारर

क्षामवेदसाष्योपक्रमणिंका

भतम्‌ ! विकदिपितयोरेव दयोः स्थाने पतवितत्वाद्‌ विरुद्धध्धैस्वार- स्याच्च विकल्प एव युक्तो, तु समुच्चयः इति वात्तिककारस्य मतम्‌ तनो भयञ्च तनत्तन्मतविपरीतः पूर्व॑पत्तः उच्ेयःःः

प्रषठशब्दस्य वैदिकनाम- सघदशाधिकसर्खम्‌-- सेयत्वकथनम्‌ द्विखामकते दयोधैम साङ्कर्यं बा व्यवस्थितिः मर, पृष्टेक्यात्‌ सङ्करो यैवं धर्माणां सामगत्वतः ~ गोसव उभे ` कुर्यात्‌ इत्यादिना गोसवादौ बृहद्रथन्तरसामद्य- | भ्यं पृष्ठस्तोतं विहितम्‌ तच्च पृस्तोचस्येकत्वेन धमैव्यवस्थायाः अस- \ (वात्‌ गरहव्युभयधमाः कत्तेब्याः, रथन्तरे ऽप्युभयधर्माः, इत्येवं साद्धर्यमि- “ति चेत्‌ ? मैवम्‌ नयते प्रष्टस्तोजभयुक्ताः धमाः किन्तु सामरयुक्ताः ! ततः “साघ्रो भेदात्‌ धर्माः व्यवतिष्ठन्ते? इति व्यवस्थितधमोपिताभ्यां बृहद्थन्तर- नामकाभ्यां सामभ्यां निष्पन्नस्तोचस्य प्रष्ठमिति वेदिकं नामधेयम्‌ , यथा तिचृच्छब्द स्याथों बेदप्रसिद्धो ग्रहीतः तद्धत्‌?

शिवरृत्‌! इति शाब्द. तिवुच्छब्दः प्रथमाध्यायस्य तृतीयपादे पञ्च विंषयको विचारः माधिकसर्णस्यान्तिमे वेके विचारितः-- “लौकिको वाक्ष्यगो वाथैखिन्रदादेः समत्वतः उभो विध्यर्थवादेकवाक्यत्वाद स्त्विहान्तिमः

“जिच्ुह्‌ वहिष्पवमानम्‌?, ( तारडय वा २१४ ) इति श्रुतौ चिश्च्छु ब्दस्य बेगुरायं लोकलिद्धोऽथैः वाक्यशेष द्र क्चयात्सकेषु सूक्तेष्ववस्थितानां बरिष्पवमालात्मकस्तोजनिप्पादनद्तमाणाम्‌ "उपास्से गायता नरः (उ० आ० १।१२।३ ) इत्यादीनां नवकसर्थः तत्र धर्मनिणये वेदस्य प्रवरूत्वेऽपि पद पदार्थनिणेये लोकवेदयोः समानवलवश्वात्‌ उथावौँ

, विकल्पेन गृहीतत्यो, इति चेत्‌ ? मैवम्‌, लोकिकाथस्वीकारपत्ते विधि वाक्ये अगुख्वमथः, अथंवादवाक्ये स्तोत्रियाणासुचां वकम्‌ , इत्येवं विध्यथैवादयोर्वेयधिकरण्यादेकवाक्यत्वं स्यात्‌ अतः एकवाक्यत्वाय स्तोधिथाणां नवकमेव विधिवाक्ये नियतोऽथः चिन्राशव्द्य नाम- पृष्टशब्दस्य नासधेयत्वं प्रथमाध्याये चतुर्थपादस्य

धेयत्वनिणेयः ठृतीयाधिकरणे चिजाशब्दवन्निणीतम्‌- “यचिजया यजेतेति तद्शुणो नाम वा भवेत्‌ चिघ्रश्चीत्वगुणो रूढेरशघ्रीषोमीयके पशो दयोर्विधौ वा््यसेदो वैशिष्ट्ये गोरवं ततः स्याचोम पृष्ठाज्यवदहिप्पवमानेषु तत्‌ तथा

"चित्रया यजेत पशुकामः” इत्याम्नायते तञ चित्राशष्दो नोद्धि हू-शब्दवटु यौगिकः, किन्तु रूढ्या चित्वं ल्रीत्वं चाभिधत्ते } ततो पूर्वन्यायेन नामत्वं

द्र स्ायणाच्ायेकता

तथा सति अश्ीषोसौयं पश्चुमालभेतेति विदहितपश्यागमय्रं यजेतेति नानूद्य तस्मिन्‌ पशो चि्रत्वस््रीत्वशुणो विधीयेते इति पासे ब्रूमः--चि स्रीत्वं चेति दावेतो गुणो, तयो्विधाने वाक्यं भिद्येत! तथा चोक्तम्‌- श्राप कर्मणि नानेको विधातुं शक्यते गुणः 1 अप्रा्े तु विधीयेरन्‌ वहवोऽप्येकयल्तः, इति भथ चाक्यसेद्‌ परिहाराय गुणद्धयविशिष्टं पशुद्रव्यरूपं कारकं रि येत, तद्‌ गौरवं स्यात्‌ ! तस्माचित्राशब्द्‌ः पूर्ववत्‌ यजिसामानाधि खयेन यागनामघेयं भवति, स्वि्त्वं तस्य विलत्तणद्रन्यद्ारेणोपपद दधि मधु घतमरापो घानास्तण्डुलास्तत्संखृष्रं प्राजापत्यम्‌ः-इति दीनि विचित्राणि प्देयदरव्यासि षडास्नातानिः ( तारुडथ २६ ) तदेते ज्ानामकस्य यागस्योत्पत्तिवाक्यम्‌ यागस्वरूपभूतयोः दध्यादि प्रजापतिदेवतयोः अनोपदिश्यमानत्वात्‌ ! उत्पन्नस्य तस्य यागस्य चिः यजञेत॒पशुकामःः-इव्येतत्‌. फलवा्यम्‌ पवं सति प्रता लम अस्ीषोमीयपश्वन्ुवादेन गुणविघाने परकृतिहानाप्ररृतथक्रिये प्रसज्ये ताम्‌ , ल्िङ्पघ्रस्ययस्य चानुवाद्कल्वाङ्गीकारान्पुख्यो विध्यर्थो वा तस्माचित्रापदं नामधेयम्‌

वहिष्पवमान दन्दादीदां यथा चिच्रशब्दे नामधेयत्वं तथा बहिष्पवमानः नामयेयत्वनिणैयः आज्यशब्दे पृष्टशब्दे तत्‌कम॑नामधेः

योजनीयम्‌ एवं दि श्रुयते (ताण्डय २०)-शिनर टू वहिष्पवमानम्‌ , पञ्चदः भ्याञ्यानि, सप्तदशानि पृष्ठानिः इत्ति अस्य वाक्यचयस्यार्थो विचिच्य सामगानाभरुत्तसय अ्न्थे तृचाट्मकानि सुक्तान्याम्नातानि तच 'उपां गायता नरः-इत्यां सूक्तम्‌ ¶द्‌विद्युतत्या ख्चाः-इति दितीयम्‌ 'पवमा ते कवेः-इति वृतीयम्‌ ज्योतिष्टोमस्य पातःसवनावुष्टने तेषु खृक्तेष्चु गायत्रं लाम गातव्यम्‌ तदिद्‌ सूक्तचयगानसाध्यं स्तोत्रं घहिष्पवः नमित्युच्यते तच्रावस्थितानाण्ुचां पवमानाथत्वादहिःखम्वन्धाच

तरिवृदादिस्तोमानां खलूविदं स्तोत्रम्‌ इतरस्तो्रवत्‌ सदोनाम स्वरूपनिरूपणम्‌ स्य मर्डपस्य मध्ये दुम्वर्य्या; स्तम्बशाखाः

सन्निधो युज्यते, किन्तु सदसो वहिः भरसपंद्धिः भयुज्यते ! तस्य वदिष्पवमानस्य तिच्रुनामकः स्तोमो भावति, तस्य स्तोमस्य विधाय जाह्यणवक्यमेवमाप्नायते ( तार्डय १-२ )-तिखभ्यो हि करोति भरयमया, तिद्भ्यो हिं कयोति मध्यमया, तिखभ्यो हि करोति उत्तमयोखयती िच्रृतो विष्टुतिरितिः

अयमथैः-सुक्तच्रयपठितानां नवानाग्ुचां गानं निभिः -पययिः कर््त्॑यः

सामवेदं ्राष्योपक्म्रणिका) ञ्‌

चच श्रयमपय्ययि चिषु खुकंघु थाद्यास्ति् ऋचः, दवितीय पच्यति मध्यमाः, च॒च्ीये ग्रययि चोचमाः। तिचभ्य उति वृत्रीयार्यं पञ्चमी, दि क्नरि नायती- त्यथः 1 खयं चयोच्छयरक्ाराववा गग्तिचिन्रदस्वेप्मच्य विनष्टिः स्त॒विरक्रार- विदेषः 1 च्याः विष्ट्वव्यती नामरति पत्रं पर्विखियी दलायिनीति विष्ट्दी ! तयोः पर्विविन्यत्रमाखचायत (ताण्डवय २।य)-'चिखम्यो द्द्‌ क्मेति सख पराचीयिः, विन्ध्यो हि च््यति पराचीभिः, तिन्चरभ्यो हि क्योवि पराचीमिः, परिविचिनी चिचत विष्डुतिःः-इति 1 गयच्रीभिः अचक्रमे- रान्नात्ताभिग््यिर्थः इलाचिन्यवमान्नायतर-निखभ्या हि त्राति प्रय- =ीयिः, तिथ्या डि च्व्येवि या भव्यमा चा यथा, या उमा खा मध्यमा, चा धथना चोचमः चिद्या हि क््यति चतचतमा खा पथमः, या प्रथन खवा मल्यमा;ः या मल्यमा खासा; ङलायिनां चिचत विष्टुतिः-उति। यच प्रयमदक्तें परक्रम प्यव, द्वितीय मल्यमोचमधश्यमाः, ठतीच तृच्तमयथम- मन्यम इत्यव व्यत्यत्रन मन्वाः नातव्याः 1 तदिदं विय्टुतिचयं विकल्पित 1 चिच्रच्छव्दस्यद्रष्ं स्तोमस्यस्यमर्यः, ठु चैगुरयमिदिं पूर्वपदे चि्णदिपर्‌ उचगाय्रन्य वचदिष्यवमानयृच्छेन्यः विश्य ञद्धं चत्वारि खक न्यान्नात्रानि-ध्यन्त यायादहि वीत्य ( उ० आा० 1 %) इत्याद्य घ्म ! धानो मरिचावद्णाः (उ० १।ए ) उति द्वितीयम्‌ श्ायादहि ष्मादित्ः (० 21 2 ) इवि नतीयम्‌. 1 न्द्राग्नीं आगतं तमः (उ० ०1७) इदि चनुथन्‌.1 तान्यतानि पाठःखवने गायचरसास्ना गायमानानि चत्वाच्याज्यस्ताचापपीत्युच्यन्ते 1 तनि्ंचन श्रचत-भ्यद्रासि- मीयस्वदाल्यानामाल्यत्वम्‌ः-उति (लागडव | २) तेष्वाचज्यस्तो्चघ पथ- द्रख॒नामकः च्तोमो धवति 1 वन्य स्तामस्य विग्डुतिरन्वमास्नायते-"पञ्चस्यो दि क्यैति तिभिः प्या प्तय, पञ्चय्यो हि क्येतिख ण्क्यान्च तिभिः पक्या, पञ्चभ्यो दि क्त्यति ण्क्त्या प्क्रया चिद्धभिःः दति (चारड़व्र 212) 1 पकं यृक्तं चिराचच्ना्यंः तच पथव्राच्रचं परयमाया रचनिर््याखः दिनीयाच्चां सथ्यमायाः } तुरनयाच्रचाद्चमायाः) सोऽयं पज्चदगस्तामः 1 उक्तन्यव्यदुध्यः गरभ्यः जन्डंमुतचयस्रन्थ चीणि माव्यन्दिनप्रवमाननच्ान्याल्लाय तव अब्रवं चन्वारिन्ृक्तान्याल्चातानि, नरप यर्थित्ना छर नादुमः (उ० धा० 212२ , उत्य्यम्‌- "क्या नित्रा भुव. (ड० आा० २1३२ ) उति 1 दवितीयम श्वं बो दस्प्चलीर्डतर्‌ (उ 1 २३} इतिं वचतीवम्‌. 1 नतयाधिर्वा विद्धम्‌ (० या०

1 १४) इति चतुर्थम्‌ पत्रानि कमस श्य्यन्तरः--( ऊ्ट० प्र सखा) चवाम्देव्यः (उ ५.खा) नाधखः ( उद पर > खा) चऋा्त्यः (उद खा) खामभिमव्यिन्दिनसवने

गीचमानानि यृष्स्वाचाणील्युच्यत 1 स्प्णचाव्‌ स्द््ठानीत्ययं निरुक्ति

(~ खायलाचार्य॑छृदा

1 1 तेषु स्तोत्रेषु खमदशस्तोमो चति, वस्य स्तोमस्य विष्रुति रेबमाद्रायते-"पञ्न्यो दहि क्यविं तिखिधिः पक्त्या प्क्याः पञ्भ्या हि च्यवति एकया तिदृभिः पक्त्या, पञ्चन्यो ह्‌ कसति पत्या तिखभिः तिखभिःइति ! अच पयमद्रुच्चां ग्रथना याः चः चि्म्याखः 1 दितीयच्रो मध्यमायाः } वतीयाच्रन्तो मध्यमो. नतमयोः साऽयं चघ्नदश्र स्तोमः! यच जिष्वपि वाक्येषु चिव्रुत्पञ्दमसत्त- दप्तस्व्दाः गरविध्ायक्तवेन सम्मताः, चदि वदहिप्पत्रमाचाच्यपृषटश्नच्दा सपि गुरविघाव्यक्ः स्युः, तदा प्युदादस्णम्‌। गुरखयविधाचाद्‌ वाक्यमेदः स्यात्‌ ¡ तस्माद वहिप्चमानादिष्तव्दाः स्तोचनामघेयानि, वैनामभिः कर्मार्यनृद्य िन्रुदादिंगुणाः विधीयन्तेः-इति

पष्ाद्ल्वोत्राां परघान- उक्तस्य प््ठादिस्तोस्य -शरध्रानकमत्वं द्ितीया- र्मत्वनिर्गयः व्याप्यस्य प्रथमपादे पञ्चमधिकस्ये निीतम्‌- “प्रग शांखतीत्यादौ युणतोत प्रधानता 1 ट्र श्रादेव स्प्रतिस्तेन गुणता स्तोचशश्खयोः स्प्रत्यर्थत्वे स्तोतिशंस्योधत्तिोः श्चौतार्थवाधनम्‌ 1 तेनाट्शसुपेत्यापि प्राघान्वं श्रुतये मतम्‌ 1 व्योतिष्टोम श्रयते-श्वररमं शंखतिः, (निष्केवल्यं शंसतिः, "माल्यैः स्तुवते, पष्टः स्तुचतेः--इति 1 पउगनिप्केवल्वश्तव्द श्ख्रवि- मेपनामनी, अाल्यपुषटगच्छ तु न्याख्यातों 1 अप्रगोतमन्रसान्या स्तत्तिः शचं, प्रगीतमन्यखाच्या स्त॒तिः स्तोचम्‌ तयोः स्व॒त- शुसयाोगयुकमत्य कतः 9 ठ॒पविमोक्द्‌ दर ष्र्थलामात्‌ 1 पल्यमानेघ मन्वे यदस्मरणेन देता सखंस्त््यते इति धति, त्रम तेषु अनुस्मरन स्तातव्यायाः देवतप्याः स्ताव्यः सखंवन्धकरीतनं स्तोतिशंखतिध्ात्वोव्योऽथः यदि सन्ववाच््यानि गुणसस्वन्धरासिधान- पराणि, वदा श्वात्वोः मुख्या्थ॑लयाव्‌ श्रुतिरहीता सविष्यति यद्रा ठु गणद्धर्लाचस्मरणीयदेवतास्वरूपय्रकास्नपराणि मन्ववाक्यानि स्युः, तदा श्रात्वोः मच्यार्था स्यात्‌ ! लोकते दि देवदचच्त॒वदासिन्लः" इत्युक्ते स्तुति प्रतीयते, तस्य वाच्यस्य शुखद्वारेण देवदत्तस्वच्पोपलक्षणपसत्वेन शुण- खम्बन्धपसत्वाच्‌ : यद्‌ ठु देवदत्तस्वरूपपरता ्यश्चतुवरंदी मानयः इत्यादौ, ` तच स्ततिध्रतीतिः, तस्य चतुवंदसम्चन्धद्ारेण देवदचस्वरूपपरत्वेन ` गणखम्बन्धपरत्याभावात्‌ 1 ततव्याल्येदवं ध्रकननियत , पृषंदवं प्रकारयेत्‌, इत्येवं विध्यर्थपय्य॑वसानाट्‌ ध्त्वोमुंख्यार्यो वाव्यत } ततो धवातुश्चतिमवा- धितं स्तोचथद्ययोः परध्रानकर्मत्वमभ्युपेतन्यम्‌ 1 द्रश्रं प्रयोजनं नास्तीति चतत्‌ ? ततोऽपृचमस्छु इति

सखा्रचदुभाभ्यापक्रनाणक्ा 1 भ्र

पवर्ताद च्य यान्वीय- चयेत द्वितीययपदे ढटगाधिक्त्य्लत चछामविेष- यानमान्यद्यरवोवन यय चकर्मान्वरस्वमभिदिव्म-

"उच्वाभ्निष्टतमदस्य चाग्््नवायसाप्र टि! र्तरताष्ठरन्चु छत्व श्तं पश्ुफललातय

यर्वा परवद यरः 1 नवतांचारपन्तायसम्वन्याच्यः भ्रद्युपद्‌ः वामनाय फसकमथ्यां खन्यन्य दाक््यमिद्ता) तनाक्तयुगान्वयुल्नस्यत कन्पाच्यतं पल

श्िनव्रदग्निष्ठमस्यस्य चायव्याद् चदय एक्विगान्निष्रेमसाम दस्ता तरह्ययरचचक्रामा यज्व (चारृडय् २७ 1 ७) इत्यस्य सन्निधो श्रयते ( ताण्डव ! "पतनस्य न्वतीघ्ु चाग्यन्तायमन्निग्रमखाम ऋत्वा पथुक्ामो दयेतन यत्तेर-इयिं यच्यायनयः-- यिष्य विद्धविदपः कथिदेकाद्य- दयिष्टना्यकः परस्वा चिवरत्स्तनयुच्तया चिवरद्विव्युख्यत | थि छरामक्याद्रीनां चप्रानं चमसंस्यानां मथ्य यचिष्राग्रचंस्यादपत्वाद्िष्रोन दर्यघ्युञ्यते ! यक्ना नृलीयखवने चार्मवपवमानस्यापरि ध्यडाय्कायंण खा चतरे, वेन शान्ता अचिष्ठामयागस्य च्माप्यमानत्वादचिष्ठोमखामेल्यु- च्यते { नच ्रह्धतो श्यढायदा चो यद्वः इत्याच्राग्नरयी्तृष्ु ( उ० या 1 ‰-३ ) गीयतेः अस्मिस्यचिन्टडतिं जह्यवर्चखक्रामेन वायचन्याच्चरधु च्च खामन गावन्यन्‌; चव यच्नाचिवकविग्रस्तमयुक्तम्‌ः पथुका- मरस्य तु न्रतीर्चः खथमाद्‌-उत्यगदिषु रेवनीच्चरश्मु (उ 2128 ) श्वारचर्दीवः साम गादिति 1 तच रवन्तानान्र्चां बारचन्तीयनामकरेच

न्ना यः चम्न्यः सोा-्यं पन्चुप्लल्नायाग्निष्टुति विष्वीयत्र "तस्येचति ग्रछ्दपरानर्मकनेवच्छब्देनान्यनव्यावरचक्नवक्रार्य चाग्निष्ट्तः खव्रप्यम्राण- च्छः यया प्ू्राध्रिक्रर्य इन्र व्लाक श्रतस्तद्धात दधिगलं वगुला विदितः वल्‌; इति पत्रः वनः-चिवमो द्रान्तः, दृष्नो द्यमजन- कल्यं शाने व्न्य, न्य लोकन च्वगन्तुं शक्यत्वात्‌ फलखम्न्थ प्क प्व शग्ल्रवोष्यः इतिं नच चाक्यमदःः इद तु न्वत्वुगाधारक- घारवन्वायखान्नोऽन्निष्टुनकर्मतायनन्वं फलसाधनत्वं चत्यु्यस्य . शान्चैकयोव्यत्वादर सवयि चाक्यभरदः 1 तच ययफलकं चथोक्तयुगाचि- दि्रक्मन्वि्मजर विधीयत 1 णवच्छ्दः पवक्ाय्छ वियीचमानकर्मान्दिस- धि्रयतया योतर्नाया इदि

# +

रिवनथिदेवार्मा ऋन्य- उन्न स्मिस्यधिक््ण निघ्नविनद्धेधाः काम्याः त्वयन विचारिताः--

~ खायराचाय॑ङृता, .

“नुष्टयन्रस्वगकामानां सौरभं स्तोघमीरितम्‌ ।.

निधनाद्यपि हीषुरं इति दृष्व्यादिकामिनाम्‌

फलान्तरं हि चृषयादि हीषाद्यीनासुतोदिते!

सोभरे फलसंसिचे निधनं विनियस्यते

फलान्तरं चतु्योक्तं उृषटिकासाय हीषिति 1

सोभरस्य फल बरष्िदीपि्युत्या विवर्धते

नोक्तं व्रप्य्यन्नकामानासन्यत्वं पत्यभिक्गया 1

नियमेऽपि चठ््यंपा तादश्याद्पपद्यते

यो बष्िकामो यो ऽन्ना्यकामो यः स्वगेकापः सोभरेण स्तुवीत, सवं कामाः सौभरम्‌, इति { ताडय २।८ ] खमास्नाय पुनः समाम्नातं-'हीपितिं चृष्िकामा निधनं र्यात्‌ , उगित्यन्नाद्यकामाय, इति स्वर्गकामायः इति। 'सोभरःः नाम सासविशेषम्‌ (उह ९।९६) निधनं नास पञ्चभिः सप्तभिर्वा मागे- स्पेतस्य सास्नोऽन्तिमो मागः तस्मिन्निधने हीषादयो विशेषाः सोभरसाम खाभ्यास्तोचफलेभ्यो ब्ुष्व्यादिभ्योऽन्यानि त्रप्य्यादिफलानि जनयितुं विधीयन्ते, ऊतः? दीषादिविधिवाक्ये ब्ष्िकामायेत्यादिना चतुर्थीभरवराद्‌; सा ताद्य याणां हीपादीनां वृष्व्यादिकामपुरषशेपत्वं गमयति, तच्डेष- त्वं पुरषामिलपितफलखाध्रनत्वे सत्युप्यते ततः सौभरस्य हीपीति विधनविशेधस्य फलभूते दे चर्मी भवतः, तदुभयमेलनान्महती वृष्टिः, इति भराति व्रमः-सौभरविधौ यो वष्टयादिकरामः एव हीपादिविधो भत्यभि- ज्ञायते ततः सोभरस्य फलभूता ये ब्ृष््यादयः एव हीपादिः शास्रेष्वनूयन्ते इति फलान्तरम्‌ ! अथोच्येत नूतनपलान्तयामावाव हीपादीनां नानाश्ताखाध्ययनादेव सोभरे प्राप्तत्वादनथेकोऽयं विधिः इति तन्न; फलत्रयकामानां जयाणामनियमेनेवं दीपादि मध्ये यस्य कस्यचि निधनस्वं प्राप्तौ विधे्ियमा्थैत्वात्‌ , तादृथ्यंन्तु फलान्तरामावेऽपि सोभर- चाक्योक्तन्र्टयादिफलसखाधने सोभरे हीषादीनां नियम्यमानत्वादु पपद्यते तस्मादयं निधनविस्चेपनियमः विधिः इति -

सामगान उदैस्त्वनीचै- ठतीयाध्यास्य ठतीयपादे प्रथमद्ितीयाधिकरणयो स्त्वधमैविचार सामगाने उच्त्वनीचत्वधर्मौ विचारितो तच प्रथमाधिकरणम्‌-- “"कर्तन्यमुचेः सामग भ्चासुपा्ु यदपेत्यमी 1

मन्ना वाथ वेदानां धमां मन्बगता यतः विष्युदेे मन्नवाचि शब्दाः मोक्ताः गादयः ग्वेदोऽग्नेः सयुत्पन्न इव्युपक्रमवेद्गीः असंजातचिसेधोऽतस्तद्वशादु पसंहतेः , ,.. . नयने खि वाक्येन ध्सांणां वेदगामिता ॥. ..

+

सामवेदमभाष्योपक्रमणिक् ८७

ज्यतिष्रोमे श्रयते--““उच्चेच्छचा क्रियते, उर्पाश यजुषा, .उश्वेः साम्ना? दति तत्र विधिवाक्ये भन्ववाचिनाणगादिशब्दानां प्रयोगान्मन््रधममाः. उच्वस्त्वाद्यः तथा सति यज्ञवेंदोत्पन्नाः अध्वर्युणा प्रयुज्यमानाः अप्युचः (४ (३ उच्चैरेव पठितन्याः, इति चेत्‌ ? मेवम्‌, असंजातविरोधित्वेन प्रवलमुपक्रम- मनुखत्य तदश्रेनोपसंहारस्य नेतभ्यत्वात्‌। उपक्रमे हि वेद्‌ शब्द्‌: श्चुतः-“चयो वेद्‌ असृज्यन्त, अयेक्रग्वेद्‌ः, वायोर्यज्वंदः, आदित्यात्‌ सामवेदः" (छा उ० ७।१६) इति अतः उपक्रमगतवेदाजु सारेण विध्युदेशगतानामण्यगादि शब्दानां वेदपरत्वे सत्यचोऽपि यजवेंदोत्पन्नाः उर्पांश्च पठनीयाः ननृप- क्रमोऽ्थवादत्वाह्‌ दुवंलः, उपसंहारो विध्युदेशत्वात्‌ भवलः, इति चेच्‌ ? वाढम्‌ लन्धात्मनो हि विध्युदेशस्य भावल्यम्‌, इद त॒ प्रथमतो बुद्धयु- त्पादकः उपक्रमः ! तदानीमलन्धात्मकत्वान्न तस्य वाधकन्वं, पश्चात्‌ चाक्येकत्वाय तद्विरोधे नैवात्मानं लप्स्यते तदेवभुपक्रमोपसंहारेक- वाक्यताबलेन निखेयात्‌ वाक्यविनियोगोऽयम्‌, इति द्वितीयएधिकर्एम्‌-- “यज्जुवंदस्थमाधानं तदङ्क साम तन्न किम्‌ उर्चैरूपांश्च वा गानमुच्चैः शोध्भरतीतितः उत्पत्तेर्भिनियोगोऽच, प्रवलोऽवसखतियंतः स॒ख्यस्याङ्गेन कतेन्या, तस्माहू गान उरपां्चता आधानस्यान्न मुख्यत्वं, गानस्य गुखताऽथवा विनियोगस्य शुख्यत्वसुत्पतच्चेगृणताऽस्त्विह॥ आधाने वासदेव्यादिसामान्यङ्घत्वेन विषितानि। तज यद्यप्येतानि यज्ञुवेद्‌- गतस्याधानस्याङ्गानि तथापि खमवेद तेषाम्भुत्पन्नत्वादुत्पत्तेश्च शीध्वुद्धि हेतुत्वात्‌ खामवेद्धर्मेण गेथानीति चेत्‌ ? न, विनियोगस्य प्रबलत्वात्‌ यज्ञ॒वद्‌ श्रुतः- “य एवं विद्धान्‌ वामदेव्यं गायति? इति गुणेन हि सुख्यस्याचुसरणं न्याय्यम्‌ को गुणः, किं सुख्यम्‌ इतिं चेत्‌ ? अन्राह्ित्वा- दाधानं मुख्यम्‌ सामगानमङ्त्वेन गुणः 1 तथा सति ध्वमः शिरः? इत्यादयः धानाङ्गमूताः मन्वाः यथोपा पटयन्ते, तथा सामान्यप्याधानायुखारेणोः पाश गेयानि; अथवा चिनियोगोऽचुष्टापकविधित्वान्घुख्यः, उत्पत्तिविधिरत- थाविध्त्वादू्‌ गुणः तस्माद विनियोगवेदाचसारेणोपांश गेयानि? इति एकविशादिस्तोमविचारः। पञ्चमाध्यायस्य तृतीयपादे चतुथं पञ्चमाधि- करणयोः स्तोमविचारः त्च चतुथांधिकरणम्‌- "“स्तोमन्रद्धो किमागन्तोमध्येऽन्ते वाऽस्तु मध्यतः द्ादशाहवदन्य् मध्यायुक्तेनं मध्यतः इदमास्नायते--“एकविशेनातिरातरेण श्रजाकामं याजयेत्‌ , जिरवेनोज- १२

प. सायणाचा्यङता .

स्कामं, जयस्जिशेन परतिष्ठाकामम्‌? इति तत्र प्रकृतो वदिष्पवमान- स्तोत्र चयस्तृचा भवन्ति-““उपास्मै गायत (उ०्य० प्र° सू० १-३अ०) इष्यादिः एकः 1 ^द्विधुतत्या रुचा ( उ० आ० प्र० सू० {-३ ०) इत्यादिः द्वितीयः “पवमानस्य ते कवे? (उ० प्र० सु० १-२ ) इत्यादिः तृतीयः तेषु त्रिषु त्वेषं गानेन चिचरत्स्तोमो मवति ( ताडय >)१-३ ) ) त्वत्र पञ्चदशसपदशस्तोमादीनामिवाचत्तगानम- स्ति। वहिप्पव्ानो विकृतावतिरात्े चादकेन प्राप्तः तच भिवृत्‌- स्तोमं वाधितुमेकविशादिस्तोप्राः विहिताः वहिष्पवसमाते थवृत्तगानाभा- चात्‌ 1 शष वचेष्ववस्थिताभिन॑वभिक्छरैम्भिरेकविशस्तोमपूराभावात्‌ ततपूर्णाय चत्वारस्तृचा आगमयितन्याः, जिणवस्वोमपूरणाय षट्‌ तृचा, जयखिशर्तोमपूरणाया्ठौ तचः, गागं चोपरि चचयते तेपां चागन्तूनां मन्त्राणं प्राङृतवहिष्पवमानमध्ये निवेशः कायः दादशाहे तददर्शनात्‌ , इति भ्रात घ्रूमः--ाद्शादहे हि वचनमेवास्नायते-“स्तो्ि-

यानुरूपो तृचौ भवतः, वृषरवन्तस्तृचा भवन्ति, तत उत्तमः पयांसः .

(तार्डय ११1६) इति अयमर्थः-प्रार्तानां वहिप्पवमानगतानां चयाणां तृचानां स्तोतरियोऽनुरूपः पयांसश्ेति अणि नामानि, तच चोद्‌कागत- योरनुरूपपर्थासयोस्तृचयो्ैध्ये चृषरवच्छृव्दयुक्तास्तृचाः कतंभ्या इति चेवमतिराते मध्ये निवेशनाय वचनमरसित। तस्मात्‌ क्लुक्रममवाधितमा- गन्तूनासन्ते निवेशः इति

आवापोद्दाप- पञ्चमाधिकरणम्‌-- विचारः ५ञार्मैवे साम्न आगन्तोरन्ते मध्येऽ्यचाऽ्त्रिमः। पूववत्‌ जीलि यक्ञस्येव्युक्ट्वा मध्ये निवेशनम्‌ पू्वोदाहतेऽतिरात्रे माध्यन्दिनाभैवपवमानयोष्योदकभाप्तो पञ्चदश- स्तदशस्तोमो वाधितमेकविशादिविद्रुदस्तोमो वचनाद्‌ उष्ठीयते ! तज चहिष्पवमानवद्रगागमनं सचति, किन्तु साभागमेन स्तोमपूरएमिति दशमे ` चक्यते ! तस्य चागन्तोः साम्नः पुवोँक्तानाद्चामिवान्ते निवेशनात्‌ पठितानां मध्ये तत्साम च्म तृचे गातव्यम्‌ , इति प्रे, व्रूमः-“अीणि वं यक्लस्योद्‌राणि गायनी, बृहती अनुष्टुप्‌ दछयचाऽऽवपन्त्यत एवोद्धपन्ति" ( ताण्डय 9३ ) इति हि विशेष आम्नायते 1 अयमथैः-- स्तोमस्य चिचरद्धये साम्न मावापः क्रियते, हासाय चोद्धापः ( १), ताघ्ुभावावापोद्पो गाय- अयादिष्वेव नान्यत्रेति "उवा ते जातमन्धसः! ( उ० आ० 1 < १-३ ) इव्येप साध्यस्दिनपवमानस्याद्यस्तृचः } स्वादिष्ठया ( उ० आ० १४६ 1 १-३1 } इत्येषः आर्भव पवमानस्य ! ताघुसौ गायत्री-

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( १) आवापशब्दस्य साक्षेपोऽयैः उद्वापरन्दस्य चोत्भेपः !

सामवेदभाष्योपंक्रमणिका ६६

च्युन्दस्कौ तयोयवएपः, ठु चिष्डुष्जगवीदुन्दस्कयोरम्ययोस्तूचयोः सामाऽऽवपनीयम्‌? इति |

तवेव पञ्चदशाधिकस्ठे स्तोमविचारःः--

अन्यगर्दस्य सवै “पकर्तोमेऽन्यशब्द्‌ः स्यात्‌ , वइुस्तोमेऽपिं वाऽच्रिमः।; विपयत्वकथनम्‌. , चिचृदन्येत्यथचाद्‌्नान्यमाचस्य सम्भवात्‌",

यत्र पूर्वोद्ाहतोऽन्येनेत्ययमन्यशच्द्‌ः प्कस्तोसके करतो वर्तेते, कुतः अथव देन तद्‌वगमात्‌ “यो चै चिच दन्य यज्ञक्रतुमापयते, तं दीपयत्ति, थः पञ्चदश तं, यः सप्दृश सतं, पकविशषः तम्‌-(ताण्डय१९।१) + इत्यर्थवादः 1. अस्यायम्थः-चिचरद्ादयश्चत्वारः स्तामाः अधिष्ठोमे.

वन्त॑न्ते, तेषु जिच्रत्स्तोमो चिरूतिरूपं यं यज्लमाप्रोति चिवृत्स्तोमः यज्ञं दीपयति प्रकाशयति सवतो व्याभोतीति स्तोमान्तरस्याध्रवेशाय चिन्त एच सखवंस्मिन्‌ यज्ञस्वरूपे व्यात्ताचयमेकस्तोमकः. कलुवति प्वं पञ्चदशादिस्तोमव्याधिर्थोजनीया तथा सत्यथवाद्‌देकस्तोमका- नामेव वुद्धिस्थस्वात्‌ एवान्यशब्देनोच्यन्ते ! पकस्तोमकाश्च पड्रा्ा- दिप्वाम्नातः-“शधिचुद्चिष्ोमो भवतति पञ्चदश उक्यो भवतिश््रत्याद्‌यः , तस्मात्‌ तद्िपयो ऽस्यशच्ः, इति प्राते त्रूमः--^ल तं दीपयति. इत्यं प्रकादाकत्वमाचनुच्यते तच्च व्यात्तिमन्तरेण सस्वन्धमाचादेप्युपपद्यते तस्मात्‌ अधिष्रामप्रतियोगितया बड्स्तोमेकस्तोमसराधारणत्वेन -श्रूय-

माणस्यान्यशब्दस्य सदोचहेत्पभावात्‌ सर्वविपयोऽयमन्यशव्द्‌ः?” इति

सन्व॑प्रप्ातिदैश्- = सक्तमाभ्यायस्य तृतीयपादे वृतीयाधिकर्शे सवंपष्टा- निणेयः तिदे शश्िन्तितः "विश्वजिद्‌ सवपृष्टः किम्रजुवाद्रो रथन्तरम्‌ बृहता चा खमुचेयं यद्वा पाडहिकानि पट्‌ अतिदेयानि त्रव्यो मादेन््धादिचवृष्टये पृ्टशच्द्‌्योद्केन सवंप्भिह सम्भवात्‌ समुच्चयो चा विपये सवेत्वं वहपेन्तया नत दयोरतः प्रण्णां पृष्डानामतिदेश्तनम्‌ 7 विश्वजित्‌ खचंपृष्ठो भवत्ति' (तारुडय &।३ ) इति श्रूयते सर्व॑पृष्ठ- , श्ब्दोऽखवाद्‌ः, कुतः ? प्राप्तत्वात्‌ तथाहि -ज्योतिष्योमे माध्यस्विनिपव- मानानन्तर्भाचीनि मादन्द्रादीनि चत्वारि स्तोचारसि सन्ति-“भभिचवा शर नोचुमः" (उऽघा० १।११), “कया नधि मास्ुचत्‌? ( उन्या०१।१२ ), "तं वो दस्मगखतीपहम्‌?(उ०अ०९।१२), तसोभिर्वो विददसम्‌ (उग्मा०१।१४) दव्येतेु चतुषु सक्तं तानि स्तोचाणि. सत्तदशस्तोमतामापाद्य `

&० खायणाचायेङूता

गीयन्ते! एकस्मिन्‌ सुक्ते विद्यमानानां तिखणाग्धचां बाह्यरोक्तविधनेने सप्तदशधाऽभ्यासः स्तदश स्तेमः! तर्षु स्तोषेषु पृरष्टशब्दः श्रयते-“सप- दशानि पृष्डानि"-इति 1 तानि पृष्ठानि विश्वज्ञिति चोदकपा्त्वात्‌ सर्वपृष्ठ शब्देनानयन्ते इत्येकः पश्चः रथन्तरपृष्ठबृहतप्र्ठयो््योतिशटोमे विकल्पि- तयोरसिदापि चोदकेन विकल्पभाघ्ो सवशब्देन सयुश्चयो विधीयते तथा सत्यनुवाद॑क्‌तं बेयश्यं श्विष्यति-इ ति तीयः पक्चः सवैत्वं वहमु मुख्यं . तु दयोः। तस्मादनेन सवपृष्ठशब्देन पर्‌-सङ्ख्यकानि पृष्ठान्यति- दिश्यन्ते 1 पडे प्रतिदिनमेकेकं पृष्ठं विहितम्‌ ! तानि पट्‌-पृष्ठानि स्थन्तर-इहटू-वेरूपं -वेराज-शाक्रर- रेवत -सलामभिः निष्पाद्यानि } यद्यपि विभ्वाज्जित एकाहत्वाद्‌ ज्योदि्ोमविरूतित्वमेव नं तं षडहविृति त्वम्‌ , तथापि सचेपृष्टोक्तिवलात्‌ तानि षट्‌ पृष्टात्यतिदि्यन्ते, इति

स्वरसामविकार- तत्रेव दश्तमाधिकरशे स्वरसामविकारचिन्ता- चिन्तनम्‌ “त विकारा विकास वा स्वरसामादयो, हि वेपष्णवन्यायतो सैवमनन्यगतिलिङ्गतः

गवामयने उयोमांसषयूकयोमेध्ये वत्तंमानं विषुचन्नामकं प्रधानभतमे कसहविदयते ! तच्च दिवा कीत्य॑म्‌ तस्मात्‌ पचीनाखयः स्वरसामनामकाः . अहर्िशचेषाः तथोपरिष्टादपि अयः स्वरसामानः तदेतदसिप्रेत्य श्रयते "अभितो दिवाकीत्यं चयः स्वरसामानः" (दाख्डथ 9४) .इति } तेषु प्रह सातत्याय सघ्रदशस्तोमादयो धर्माः विहिताः (दाण्डय ४1३) अन्यतर त्वेवं श्रयते -“पुष्ठयः पडो, दधौ स्वरखामानो,-इति तावेताचहिशेपो पूर्वोक्तानां स्वरसास्नं चिकाय, कुतः ! चैष्णवखमातत्वात्‌ ! यथा वैष्णवश्ब्दो देवतारूपगुणविधानेन सुख्यदचित्वान्न लक्षणया धर्मानतिदिशतिः तथा समविनचेपरूपगुणविधायकः स्वरसामशव्दः, इति यापे, त्रूसः-अनन्य- गतिलिङ्गवदाएत्‌ स्वरखामानो विकारौ भवतः 1 तथाहि-“षडदो, ढो स्वर

सामानो" इत्येवं योऽयमष्टाह उपन्यस्तः, तत्र॒ पषरूस्वह्छु क्रमेण "वित्तः 'पञ्चदश्तः, 'खत्तदशः, “कविः, 'चिरवः, वयसि, इत्येवं स्तोमषदकं चोदकेन प्रातम्‌ प्वं स्थिते वृतीयपष्टदिवसगतयो सखक्तदशा्यद्धिदशयोष्यैत्यार विधाय सप्तपाणटमयोरहोः सदरास्तोमं सिद्धवत्कृत्य अषु चर्मेप्वहःखु सतदशस्तोमनेरन्तयंमर्थवादे- नाञुवदति ! "यत्‌ ठृतीयं स्दश्वमहः तत्‌ अयखिशस्थानमभिपयां हरन्ति” इति न्यत्यासविधिः 1 “तरयाणां सप्तदप्तानामनवानताया? इत्यर्थ- षादः ] तज्ञ यद्यन्तयोस्ोः स्पदग्वस्तोमं स्वरसामशब्दोऽतिदिशेव्‌

तदा नेरन्त्यलुपपद्यते, त्वन्यथा तस्मान्न वेभ्णवन्थयेन गुरविधि किन्तु घम्ह॑णासतिदे्तकः” इति

सामवेदभाप्योपक्रमणिका 2४

श्लोकादिसाम्ना साल्य- दशमाध्यायस्य चतुर्थपादे .नवमाधिकरणम्‌-- धर्टादिल्तोत्रस्य सछ- “वाघ्यं गलोकादिनाऽऽल्यादि घाऽभ्ययः स्द्तिलिद्धतः च्चयनिर्ण॑य, देशसाम्नोविधां भेदे वेिटयाचु समुचयः

महावते श्रूयते-“श्रलोकेन पुरस्तात्‌ सद्‌खः सुवते, अयु शरलोकेन पश्चात्‌? (तार्डश्रः 12) इत्यादि ! तच पलोकाल्लोक्रादिनएयकैः सामभिः प्राकृतान्या- ज्यप्रष्ठादिस्तेचगतानि रथन्तरयामदेव्यादिनामकानि सामानि व्यानि 1 कतः ? `“स्त॒वतेः-इति प्रछृतिलिद्वदर्गनत्‌ धृतो “आाज्येः "स्तुवते,

पृष्ठैः स्तुचतेः-इति श्र॒तम्‌ नैतत्‌ खारम्‌ किमच स्तुतिमनृध् देशसाम-. गणौ विधीयेते ? किं चा गुणद्धयविरिषा स्विः ? नाद्यः, वाक्यभेद्‌ा- पचतेः द्वितीये कार्यभेदेन वाध्याभावाच्‌ सञ्नुचयः स्यात्‌? इति ` ` `

कौतसादिसाम्तः प्राकृत- तयेव दृद्ामे कोत्सादिसास्नः षाकृतसामवप्वक्त्वम्‌ याधकत्वनिणेयः "“समुच्चीयेत कौत्सादिं यदि वा प्राकृतवाधकम्‌ स्त्या भावाद्‌ादिमो °न्त्यो लिङ्कधकर्णद्धयात्‌

विकृतिविषेषे श्रूयते-कौत्सं वत्तिः “कारव भवतिः (ताण्डय १३६) दरति तदेतत्‌ कौत्लादिनामकं साम पाछरतेन साम्ना खचुश्वीयते कुतंः ? प्राकृतस्य स्त॒तिलिद्स्यापावेन कायक्यामावात्‌ मवम्‌ , पकरणात्‌ करत्वद्त्वे सति ऋगश्चरभिन्यक्तिसामध्यंलत्तरभ्राक्तलिङ्घेन कार्य्याः गमात्‌ तस्माटू वाध्रकरम्‌? इति

तत्रैव विदोप- पकादशे व्वेकायुक्तित्ः प्राकर ववाश्रकत्वम्‌-- व्यवस्था “तत्‌ खववाधकं सवेमेकद्वयादयुक्तितोऽथवा अविशेपादरादिमोऽन्त्य पकादयुक्तिचिशेपतः

तत्‌ पूर्वोक्तं कौत्सादिखामचिपयः तच, किं "कोत्खंः साम धाङृत- स्व॑सामनिवन्तं कम्‌ , कार्मपि तथ्या इच्येकैकस्य सवं निर्व॑ततंकत्वंमुच्यते आदोस्विदेकचचनान्तनिर्दिष्मेकस्य निवर्तकं, द्विवचनान्तनिर्दिष्यं छयोः, बहुवचनान्तनिर्दिष्ानि व्ह्नाम्‌ ? तवर नियामकाभावाद्‌ादययः पक्वः प्राञ्मोति पकादिवचनरूपाणां श्रुतीनां नियामक्रत्वादन्त्यः पक्चोऽभ्यरपेयः तथाहि-“कौत्सं भवतिः, “वस्तिष्स्य जनित्रे भववः*(ताख्डय १४।११).“को खानि भवन्तिः (तारड् १६।३)-इति निचचेकेषु श्रथमाणानि प्कदिवहवचनानि

निवत्त्यांनां तत्सङ्ख्यावत्यं प्रत्यासत्या वोध्रयन्ति, किञ्च पवं सति अवाधित-, खामविपयग्धोद्‌को ऽनुगरहीतो भवति छृत्स्नवाध्रे त॒ सवंश्चोद्को नि~ `

ष्वते | तस्मान सर्ववाध्रकःः' इति

[१

&२ ` . खायणाचायैकृता

स्तोमब्रद्यवृद्योः दादे स्तोमव॒च्यवृद्योः प्रारृतवाधिका-~ प्राङृतनाधकत्व- “स्तोमस्थयोचरच्छवृख्योः प्राकृतः किं निवत्ते निणैयः अचरद्धावेव वाऽऽयः स्यात्‌ सामोत्पस्युपयोगतः अच्रद्धाुपयोगाय प्राङृतस्य निवत्त कम्‌ चृद्धो पू्ोपयोणित्वात्‌ वृद्धौ तु निवत्तंकम्‌ ` सन्ति चद्धस्तोमकाः अचरदधस्तोमकाश्च विङृतिरूपाः क्रतवः, तत्रो- अयत्रापि यानि समान्युपदिष्टानि तैरतिदिश्नां साम्नां निवृत्तिः स्यात्‌ , अन्यथा सामोत्पत्तिवेय्यात्‌ दति पूवः पक्षः सिद्धान्तः स्पश्टाथः" इति

छन्दोविशेषत आवाप. योदश स्तोत्रे छन्दोविगचेषतः आवापः-- कथनम्‌ शक्रापि स्तो चि कापि स्यादावापस्तथोटुधरतिः। पवमानेषु गायन्यादिष्वेवोताविश्षेपतः आद्यो नो परिखिङ्ल्यानाद्च देवेति तद्धिधेः विध्यन्तसाशेषरूपमपूवं तद्धिधोयते अच द्धस्तोमकेषु भ्राकृतस्यातिदिष्टस्य सास्न उद्वापः, भत्वक्षोपदि- ष्ानामावापः श्द्धस्तोभकेष्वावापः एवः इति स्थितं पूांधिकर्शे तावेतावावापोद्धापौ यस्मिन्‌ कस्मिचित्‌ स्तोत्रे यस्यां कस्थाशिद्रचि स्याताम्‌ कुतः ? नियामकाभावात्‌ इति पूवः पश्चः नो खल्वेतद्‌ युक्तम्‌ एवकारेण प्रकृतपवमानव्यतिरिक्तेष्वान्यादिस्तोभेषु .गायतीबृहत्यनुष्टुष- ग्यतिर्किस्छर्षु आवापोपोदापयोः परिसङ्खल्यातत्वात्‌ . . . एवकारश्यैवमास्नायते-“त्ीणि वे यज्ञस्योदराणि यदू गायती बृहत्य च॒ष्टुप्‌ अचर दयोवावपन्ति अत एचोद्धपन्ति” इति ननु मा भूतामन्यः- ाऽऽवापोद्धापौ विवक्तितदेशेषु ऋथं पाप्नुतः ? इति चेत्‌ अनेन वाक्येन तद्विधानात्‌, इति प्राप्ते, तरूमः-नचायमथेवादः, अनन्यगेषत्वात्‌ नान्यनुवाद्‌ः, छ्रपूर्वार्थत्वात्‌ तस्मात्‌ पवमानेष्वेव ` गायज्यादिषु आवापोद्वापौ

कण्वरथन्तरं स्वयोनावैव . चतुर्विंशे तु करवस्थन्तरं स्वयोनावेव-- इति निरददारणम्‌. शवुहद्रथन्तरेकोययोनो कएवर्थन्तरम्‌ रथन्तरस्येव योनो किं स्वयोनाबुताऽधिमः चोदकस्याविशेषेण द्वितीयो नामसाम्यतः . . , अनङ्गत्वान्नातिदेशः स्वयोनो पटितत्वतः | वैश्यस्तोमे पृठस्तोते सामविशेपो विहितः--“कण्वरथन्तरं पृष्टं भवतिः ( ताणडथ १८।६ ) इति प्रकृतो पृष्ठस्तोत्रे वृहद्रथन्तस्सामनी विकल्पिते, (्वाभिद्धि हवामदेः (पू० आ०.३-१-५-२) इतीयग्रदः कृहतो,योनिः.1 अभि त्वा शूरः (पूण्मा० ३-१-५१) इति रथन्तरस्य ! “पुनानः सोमः (पुण आ०.

सामवेदभाष्योपक्रमणिका ९३

५-१-२१ ) इति करवरथन्तरस्य 1 तत्र वुहद्रथन्तरयोरन्यतरस्य साम्नो योनो कण्वरथन्तरं गेयम्‌ 1 कुतः.? चोदकग्राछ्योविभ्तेपनियामकाभावात्‌।

यचा स्थन्तरस्यैव योनौ गेयम्‌ ! कुतः ? स्थन्तरेति नाएम्रखाम्यस्य धर्मात्ति- देशा्थैत्वेन नियामकत्वात्‌ नैतद्‌ युक्तम्‌+ वद्रथन्तरखास्नोरेव ्कृतावंङत्वेन विधनम्‌, त्द्योन्योः ! थतो नास्ति तयोः अति देशतः घ्रातिः तस्मात्‌ ““स्वयोनं गेयमिति" परिशिष्यते प्रा्िश्च खाम- गानायुचसात्रन्थपाटादवगन्तन्या णवं सति श्रुतहान्यश्चुतकस्पने न.विष्यतः"

पद्य्वियो विदोष- पञ्चरविश्े तु करवर्थन्तरं स्वक्ीययोरेबोत्तस्यो्गयम्‌- व्यवल्था “सन्देहनिर्णयो पृर्ववदेवोत्तस्योच्छ चोः योनित्यागः समब्येचन तृचश्चब्देन बाधनात्‌

“पकं लाम तृचे क्रियतेः+-इति श्रुतेः कण्वरथन्तर्साम्नः चां जय - माश्रयः ! तत्रैका स्वयोनिः इतरे स्वयोन्यच्तरे पं वुदद्वथन्तरसास्नो- दर्व्यम्‌ तच बहदुचस्योः र्थन्तरोत्तस्योर्बां अतिदेश्चप्रास्यविश्रेपेण स्वेच्छुया गेयमित्याद्ः पष्टः नामखाम्याद्रथन्तसयेचस्योरेव गेयमिति द्वितीयः प्त ग्राकृताच्रचोः साक्चादङ्कत्वाभवेऽपि सामद्धारकमङ्गत्व- म्धीकत्य चोदकप्राघ्या पक्चद्धयोपन्यासः योनिवदुत्तस्योर््रन्थपरित- त्वात्‌ स्वयोन्युत्तय्योर्गयमरिति तृतीयः पश्चो राद्धान्तः वृषद्रथ- न्तसेत्तस्योः स्वयोन्य॒त्तस्योर्वा गीयताम्‌ सर्वथापि स्वयोन्यकूत्याग ऋग- न्तरपसि्रहश्च खमानः ।! तथा सति चोदकोऽच प्रापकः इति पूच~' प्तिणोऽभ्यधिका गशद्ा तृचशव्द्‌ः खमानच्छुर; स्कानामेकदेचत्याना- सचां त्ये प्रस्लिद्धः ! अतस्तृचश्चुव्या प्रत्यद्लया चोदकप्राप्तस्य वाधः दति राद्धान्ताशयः इति

तिख्प्वित्यभिम- पञ्च मपादस्य दितीये ऽधिकस्ये तिखष्वित्यग्रिमस्तृचो तृचन्यवस्या विवष्धितः “^तृचाद्याश्ु तृचे चाऽप्दये दिखप्वित्युच्यते ऽभरिमः ! छन्दसत्वात्‌ पाकृत स्यात्‌ क्रमाद्‌ ठृचोऽखिलः पकखद्वायाखिसद्ययाश्च व्यतिपङ्गविधानात्‌ 'एकञ्चिकन्नामकः कथित्‌ कऋतुर्मैवति चैचं श्रुयते-“अथेप एकचिकरस्तस्यैकस्यां वहिप्पवमानं, तिखषु दोतराज्यम्‌ 1 प््कस्यां मेचावरुणस्य, तिखषु, बह्यणाच्ं सिनः 1 पकस्यामच्छावकस्य चिखृषु माध्यन्दिनिः पवमानः" दति सन्ति घरङ्तो सध्यन्दिनपव्रमानस्य अयस्तृचाः-'उचचा ते जातम्‌ , शत्यं ( उ० आ० 1 १-३-) प्रथमो यायचीच्छन्द्स्कः "पुनानः सोमः, इत्ययं . ( उ० आ० १! & 1 १-३) द्वितीयो वचृहतीच्चुन्दस्क

९8 सायणाचार्य॑कता

श्र तु द्रवः इत्ययं ( उ० आ० १९} १०1 १-३ ) ततीयस्ििष्टुपृडधन्द स्कः-.1 पतदेवासिप्रत्य श्रतम-जिच्छन्दा आवापो माध्यन्दिनः, (ताण्डय ३।७) इति! एवं सति एकचिकस्य माध्यन्दिनिपवमाने तिखष्विति यदुक्तं तत्र याणां तृचानामा्यास्तिखरः शछचो आद्याः ? किं वा प्रथमत्‌चस्थाः क्मपटिता- स्तिः ? इति संशयः जिच्छुन्दस्त्वश्युत्या प्रवलथा दुवे पाटक्रमं वाधि- स्वा प्रथमपक्ष श्राद्धः इति प्रासे, भभिधीयते--यदेतत्‌ चिच्छुन्दस्तवं तदेतत्‌ प्राङृतम्‌ तत्र न्दख्रयोपेतस्य ठेचत्रयस्योपदिष्त्वात्‌ विङतावपि तत्स- चंमतिदिष्टमिति चेत्‌ ? वादम्‌ अत एव पाटक्रमोऽप्यतिदिष्टः, तथां सति ्रकरान्तगायजीचन्दस्कस्य छचस्य समाधौ सत्यां पश्चाद्‌ वुहतीच्छुन्द्स्के तचे प्रथमायाः ऋचः प्रारम्भावसरः चारम्भरसितिखषु इति विशेष- विधानेन वाध्यते तस्माद्‌ स्तो निखिलो ग्राह्यः"

धर्गानस्येकल्यावचि तृतीये धूरगानमेकस्याश्घचि कन्तव्यम्‌-- . कनतैन्यत्वमिति “तृचे स्याटूचि वेकस्यां धूर्गानं प्रङताविव , निणैय तृचे भवदिरैकस्यां श्रत्याऽऽदत्तिविधानतः पकञ्चिक एव क्रतो भ्यतिषङ्गरौकस्यां तिखघु स्तोत्रेषु खस्पा्यमानेषु यद्ध- गानं तत्‌ कि तचे स्यात्‌ ? उतेकस्यास्यृचि ? इति खशयः तत्र चोद्‌केन तृचे भवेदिति पराप्ते, व्रमः--इहैकचिकक्रतो पकस्याखचि धूर्गानं भवेत्‌ कुतः “अवृत्तं धुषु स्तवते» इति आष्त्तिविधानात्‌। नब तृचे गानेऽपि सास्न- चि राचत्तिर्भवेत्‌ ? न, आचरते: स्तुतिविशेषरत्वात्‌ गुणसद्कीत्तंनपरः पद्‌- समूहः स्तुतिः तच ऋगावरत्ति चिना तिखप्वक्षु सिध्यति तस्मादेकस्यां घूगानम्‌?'

गमात्‌ स्तोमवधेन- षष्ठे सतोमबरद्धिरागसाद्‌ भवेत्‌ प्रकारनिदेश “स्तोमवृद्धिः किमभ्यासाद्‌एगमाद्वाऽिमो यतः तत्‌ करप्यमश्चुतं मेवं सङ्ख्याऽऽवापादिलिङ्गतः

विचद्धस्तीमकः क्रतरेबमाम्नायते,-“पकविशेनातिरात्रेण प्रजाकामं याज्- येत्‌ , चिरवेनोजस्कामम्‌ , चयसखिन्नेन भ्रतिष्ठाकामम्‌? इति ्रकृतिगतेभ्यः विवृतप्चदशादिस्तोमेभ्यो विच्द्धाः पकविशत्िणचच्रयस्िशस्तोमाः तेषु कि भाङृतार्नां सास्नाम्‌ अभ्यासादू ब्रद्धि्भवति? कि वा सामान्तरागमात्‌? इति संशयः। भश्रुतस्य सामागमस्य कल्पयितमशक्वत्वाह्‌ मभ्यासाहू बुद्धिः इति प्राते बरूमः-अभ्यासोऽपि सात्ताच्छुतः, किन्त्वेकविशादिखङस्यापृर- णाय कटप्यते, सङ्ख्या उन्यगता, भिनदरव्येरोे पूयते त्वेकद्व्या- रत्या 1 नद्य्रूत्व पकघटमानीय “म दुगे सन्त्यठौ धराः इति व्यव्टरन्ति। ततः स्तोमावयवद्रभ्यगता सङख्या तदवयवभूतानां साम्नां पदार्थानां भेदं गमयति 1 सर भेदः सामान्तरागमलिङ्गम्‌ “मच्र द्ये वाव पन्ति" इत्यावापो

सखामवेद्रभाष्योपक्रमणिका ९५.

देेन देटाविगेयचिधिरपरं लिद्गम्‌ खामान्तरोत्पच्यर्थत्वमन्यलिह्गम्‌ ¦ तस्मा- दागमेन घ्रद्धिः वदिप्पवमानव्रद्धौ खन्तमे वहिप्पवमानवृद्धाच्रच आगमः-- क्त्व आगमः “किं घहिप्पवमानर्द्धी सास्नर्चा चाऽभिप्र्णम्‌ खाम्ना पृ्वक्तितो मेवं खामेकत्वपराक्त्वतः

श्रद्धा प्रातःसवने वदहिप्पवमानस्य अचिन्रृद्धः स्तोमः, तस्य विकृतिषु तद्धा शत्यां पवक्तिरीत्या लामान्तसयगमे पपे, च्रमः-- यकं हि त्र सामः दरति वददिप्पवमानं प्रकृत्य सामेकल्वमाम्नायते 1 अतो खामान्तसगमः खम्भवति एवं तद्य॑भ्यासेन खड्ख्यापूरणमरस्तु इति वाच्यम्‌ , “पराम्‌ चदिष्पवमानेन स्त॒चन्तिः इतिं पराकराब्देनाभ्यासप्रचिपेध्वाच्‌ ; तस्मा दरगारामः

पकरस्य साम्नस्व्रचे प्रटपादस्या्येऽधिक्रस्ये प्प्कं साम वच गेयम्‌- गेयत्वनिणैयः “सखामेकस्यां तृचे वा स्याद्‌एऽऽदयः स्वाध्यायवटू भवेत्‌ वचनाचिद्कसंय क्तात्‌ स्तोञे खाम तृचे भवेत्‌

पवमानाल्यपृष्टादिस्तेचपु यद्‌ विदितं ग्थन्तग्यहदुवेरूपादिसाम प्येतारः पकस्याग्रच्यधीयते, तत्‌ किः स्तोचभ्रयोगकालेऽप्येकस्याग चि गेयम्‌ कि घा वन्चेगेयम्‌ ? इति संशयः अध्ययनस्यालुष्टानाथेत्वाहू यश्य. ध्ययनमेकस्यान्रचि खाम्नः छतं तथैकस्यामेव खाम गेयमिति पपक्ष "अघ्रमराश्चरेण धथमाया न्यः भ्रस्ताति, इयक्षरेणोचर्योःः इति तिख- ष्तर्च पर्तोचा गातन्यमागो निरूप्यते, तदिद्‌ चचस्य लिङ्गम्‌ “ऋक्‌ सामो- वाच त्रिथ्नीसम्भवावः इत्यादौ ऋगृदेवताखामदेवतयोः खम्वादरूपेऽर्थ॑वादे खामदरेवतैकास्रचं ढे रचो पत्याख्याय विचः कचोऽङ्गीचकार तदिदं अपरं लिङ्गम्‌ 1 वाभ्यां लिङ्गाभ्वाप्युपवंहिताद्‌ “शकं खाम तचे क्रियते स्तोचि- यम्‌? द्रति धचचात्‌ तचे मातव्यमितति

स्वच्टव्दस्य मीट्ना- द्वितीये स्वद्रंकडाव्दो मीलनावधिः वधित्वकथनमर्‌ “स्वद्रंकदन्दे वीक्षे कि स्यादङ्काद्धिताऽथवा | मरीलनावधिताऽऽ्योऽस्तु चिन्चचाक्रयेन तद्धिध्रेः॥ प्रतिद्धाब्देलावधिरि द्योत्यो वाक्यं भिद्यते | सस्यवं मीलनस्यापि विधिर्नत्तस्योर्भवेत्‌ यसित रथन्तरसाम्नो योनां श्वि त्वा श्युरः इत्यस्याश्चि स्वद्व॑क्‌ श्व श्श्नानमस्य जगतः स्वट्रश्ाम्‌ः (उ० १० १1 ११ १) इत्याम्नातः 1 अस्ति चोद्धातुः कर्चता तृचे “थन्तरे प्रस्तूयमाने सम्मील्तयत्‌ , स्वरं प्रतिवी्नेत (तार्डंय व्रा०-ॐ1७) इति श्रुते; ! तच संदाय ! कि स्व कू्ाव्दोचार्णएवीक्षरयो- शद

दे : सलायणाचायेकूता

रङ्काङ्धिभावोऽत्र विधीयते ? कि वा . विधीयमानसस्मीलनावधित्वेन स्वद्रक्‌- शब्योज्ारणं निर्दिश्यते, इति ! तत्र संमीलनवाक्यात्‌ वीत्तणवाक्यं भिन्नम्‌ ततो मीलनावधित्वेनान्वयः लभ्भवतीति किश्चं यीक्तेतेति लिङ्गपरत्ययो ¶्तर विधायकः श्रयते 1 ततः स्वदूक्राब्दोचारणं वीत्तणाङ्गम्‌ , वीक्षणं वा तदङ्गम्‌ इत्यङ्गाङ्गिभावोऽभ्युपेयः तथा सति स्वद्रकशाब्दरदितयोरुत्तरयो रौचोगीयमाने र्थम्तरेऽपि विहितसम्मीलनाुवृत्तिः फलिष्यतीति पूव पक्षः। - धसव प्रतिः” इत्यनेन प्रतिशब्देन स्वरं कृशब्दोश्चारणस्य मीलनकालाधित्वं चोत्यते चात्र भिच्नवाक्यत्वम्‌ , एकवाक्यत्वसम्भवात्‌ तथाहि विसो श्रपरिहाराय स्वत एव प्राघत्वात्‌ वीक्षणं विधेयम्‌ तथा सति स्वहकशब्दोचारणात्‌ सम्मीलयेदिव्येकं बयं खम्पयते एवं सत्युतच्तसयो ऋचो्मरीलनविभ्यमावः फलिष्यतीति राद्धान्तः"

चद्रथन्तरयोदिन- वृतये वृदद्रथन्तरयोर्दिनेदेन श्रयोयः--

भेदेन प्रयोग- “गवामयनिके पृष्टयप्रडरे परत्यं दयम्‌

निर्णयः बृहद्रथन्तरं चोत भवेत्‌ किञ्चि ऊचिदहिने दन्दगर्भवडुनीदेसयोऽन््येऽपि समो ह्यसो 1

अन्योन्यनिरपेत्तस्य चोद कादन्तिमो भवेत्‌

द्वादशाहे पृष्ठयः षडह उत्पन्नः त्र पण्णामप्यहां कमेण रथम्तरबृहटू- चेरूपवेराजशाकररेवतानि सामानि. विहितानि गवामयने तु चिकति- रूप्रीयः पृष्टयः प्रदहः 1 तच श्चयते-““पृष्टयः पडद्धो बृहद्र थन्तरसामः, इतिं चोदकग्राक्षयोः बृददथन्तस्योः पुनविधानात्‌ वैरूपारिनिचृत्तिः ततः शिष्य- माणं बृहद्रथन्तरं सासद्धयं कि पत्यदं करैन्यम्‌ ? किः चा केषुचिददःु गृहवत्‌ , केषुचिद्रथन्तरम्‌ ? इति संशयः ! धृहच्च रथन्तर बृहद्रथन्तरे ते सामनी यस्य इति उन्द्रगभिते वहुन्रीहावितरेतस्योगदन्द्ेन साम्नो साहित्यं धरती यते ! ततः प्रत्यहं खामद्यम्‌ इति पूवंपश्चः ते सामनी यस्याहः इत्यहो यद्यन्यपद्‌र्थत्वं तदा भवड्ुक्तमेव स्यत्‌ , इह त॒ षडदोऽन्य- पदार्थः तथा सति प्रडहे दयोः साम्नोः साहित्यं सिद्धान्तेऽपि समानम्‌ प्रकतौ सान्नोरल्योन्यनिरपेच्त्वादिदहापि निरपेश्चत्वमेव सामचोदकेना- तिदिश्यते तस्मात्‌ केषुचिदहःु फिञ्चित्‌ साम शति साद्धान्तः" |

स्धरष्टस्य यथोक्ते पञ्चमे स्वपृष्ठे यथोक्तदेशे पृक्तानि-- विदितस्वनि्णैयः “कि स्पृष्टे सर्वाणि पृष्ठदेशे यथोक्ति चा 0 पृष्टशब्दात्‌ पृ्देशे वचनात्‌ व्यवस्थितिः “विश्वजित्‌ सवेपृष्ठः? इति पडे परस्वहःसु क्रमेण 'रथन्तरं वृहट्‌ वेरूपं इत्यादिभिः प्रडभिः सार्धः पृष्ठस्तोघं, निष्पा- दितम्‌ तानि सर्वाणि पृष्ठसामानि यस्मिन्‌. विष्रवज्ञिति. खोऽयं सर्वं

सामवेदभाप्योपक्रमणिका &, पृष्ठः, तत्र पाध्यच्िनपचमानमेवायश्णसाश्नोरन्तसलभूते प्रष्ठस्तोजदेशर कि सर्वि प्ृष्टलामःनि - कार्याणि ? किः वा यथाचचनं देशुव्यवस्था इति संशयः पृषटकाय्णेगमकेन पृष्टशब्देन पृष्ठदेशे परा, वचनेन देश. चिश्चेषो व्यवस्थाप्यते वचनं चैवमास्नायते--“पवमाने रथन्तरं कसेत्या- भवे बृहन्मध्य दतससि वेरूपं होतुः प्रष्टं वैराजं व्रह्मसलाम शाक्वरं मेरा . घरुणस्य रवत्तमच्छावाकस्य?-दति वचनं हि न्यायाद्‌ वलीयः, तस्मादू- देशचिशेषो व्यवस्थित

वेस्पत्रराजयोरक्थ्य- पष्ठ वैरूपवेराजे उक्ध्यपोडशिनोः पृषएटगते-- पोदशिप्रषटगतत्व- “कारस्य वेरूपवे सजे उक्‌ध्यपोडशिनोखत निर्णयः र्ट स्यात्‌ क्रतसंयोगादाऽऽ्योऽन्तः पृष्टलिङ्गतः = , माम्नायते-'उक्थो वेरूपसामंक्चिश्शः पोडशो वेसजसामेत्तिः तत्र छररस्ने उक्थ्ये “वेरूपं” साम, करप्स्ने प्रोडरिनि चेणजम्‌” (वेरूपंः साम सिमिन्युक्थ्ये कतो-'वेराजंः साम यस्मिन्‌ पोडरिनि कतो, दस्येवं क्रतु- सम्बन्धः प्रतीतेः मेवम्‌ प्रकतौ श्थन्तस्सासा प्रहस्लामा इत्येवंविधस्यं निवृ शस्य पृषटस्तो्नविपयत्वद्‌ शनाद्चापि तनिरदेशेन प्रष्टलिद्धेन प्ष्टकाय्यं वैरूपं वैराजं भवितुमर्हति कतुसभ्वन्धरस्तयो; पृशह्ारेणो पपदते" चिघ्रदमिष्ति त्रिघ्रत्‌- खमे निच्रदश्चिष्रस्तोम पव- धाब्दस्व स्तोमत्व- “चिचुद्‌ा्चिष्दिव्येतत्‌ सक्च स्तोम एववा! निर्धारणम्‌ आद्यखरेगुण्यवाचित्वादन्त्यस्तोमेऽस्य रूढितः

पतं श्रूयते-“चिचृद्िष्रदधिष्टठोमः” ( तारडय प) इति कि भिचरत्वमार्चिषटति क्रतौ सवपु साधनेषु सम्बध्यते ? कि घा स्तोममाच्- सम्बन्धि तत्‌ ? चिचरद्रज्सित्यादो चिचच्छृष्दस्य त्रेशुरयत्याचित्व- दश्नाद्चापि क्रतृसाध्रनेघु चा या सङ्ख्या श्रयते सा सर्वा चिघृत्वेन चिचि- यते इति प्रापे, ब्रूमः--ययपि चिच्रच्छुब्दोऽचयचभ्रसिद्धवा लोके चेगुएयं रते, तथापि वेद रूख्या स्तोमघाचक्रः, चिचुदू वदिप्यवमानः इत्युक्त्वा स्तोच्चियाणां नवानाद्धचामदक्रमरेन स्तोमविपयमेव त्रिचृ सखम्‌”

ससवादैः अष्टमे संसवादो प्षटत्वम्‌- ्रष्ठत्वनिणैयः “संखवादो दयोरेकं पृष्टं यडा खमुच्धितम्‌

पकः प्रङ्तिवदू चिश्नजिदहदन्य् चेतरत्‌ वचनाद्‌ चिण्वजिय्येते साम्नी दे स्तोत्रयोर्॑योः नेहादित तत्‌ पृष्ठ प्व साहित्यं स्यात्‌ पुनर्विधरेः द्द माम्नायते-- “ससव उभे कुर्याद्‌, गोखच उभे कुर्या हू, अभिनजित्ये काटः उभे ब्रहद्वथन्तरे क्यात्‌? इति किमत्र पृहद्रधन्तस्योरेकं प्रठस्ततौ

३४ सायणएचाय॑रूतां . इतरद्न्यस्वतौ स्यात्‌ ? कि वा सभुच्चितयुखयं पृषठस्त॒तौ.? इति -संशयः। भको इयोर्विकल्पितत्वादेकस्मिन्‌ प्रयोगे एकस्य पृष्ठत्वाद्न्यज्ापि तथा- त्वं युक्तम्‌, तथा सत्यवशिष्रं साम ॒सवेपृष्ठविश्वज्ञिन््यायेन स्तोऽान्तरे भयोक्तन्यम्‌ इति पूवंपक्षः ताद्रग्बचनाभावेनात्र विश्वजिहुवैषम्बात्‌ प्रहृतिवदू विकल्पे सति पुनविध्वानवैयभ्यौत्‌ समुखखचयः इति राद्धान्तः

इृहदूयवलादिराणां स्मपादस्य षोडशाधिकरणे बृहटूयवखादिरा नियताः- नियतत्वकथनम्‌ “वह दूयवः खादिर्च विकल्प्या नियता उत विकरप्याश्चोदकभ्रापतेनियताः स्युः पुनविधेः कचिदू विरतो श्रूतते-शृहत्‌ पृष्ठं सवतिः इति ! अधातवीये श्रूयते- "यवमयो मध्यमः इति 1 वाजपेये श्रूयते-'खादिे युपो सवत्तिः . इति तत्र बृहद्रथन्तरयोः ब्रीहियवयोः खादिरतल्वादीनाश्च प्ररतो विकल्पित- त्वादच्ापि चोदकेन विकल्पितः इति चेत्‌ ? पुनविधानवेयथ्यति परिसंख्या तु दत्वा शङ्क्या तस्मान्नियताः कोख्यन्तरं त्व्थांनिवतेतेः अष्टमपादस्य षष्टाधिकस्ये विधगानं विकल्पितम्‌-- ` बर्मसास्नो विकल्पि- “न्नेयो बह्मगानस्य निषेधो चिहितस्वुतिः। तत्वकथनम्‌ विकटिपतो वा शन्योऽपि वपोत्वेद्‌ इव स्तिः विध्यनन्वयतोऽस्तोजं बह्मोद्वाता तथा सति विपयेक्या्‌ विकल्पोऽजन पोडशि्रहवन्मतः आधाने वामदेग्यादिसास्ना गानानि विहितासति 1 आधान एवेद्म- परमाम्नायते--'उपवीता वा एतस्या्चयो सवन्ति, यस्याग््याधेये ब्रह्मा सामानि गायतिः इति 1 उपशब्दः सामीमण्यं तरते 1 बीताः विगताः कल~ चिलम्बमन्तरेण परैस्त्यक्ता इत्यर्थः 1. अनया निन्दया बरह्मणः सामगान- निषेध उन्नीयते, निषेध उद्वातुर्विहितं वामदेव्यादिखामगानं स्वति 1 नयु ब्रह्मणः खामगानमभ्रखक्तम्‌ ततस्तच्निषेधोऽत्यन्तमसम्भावितत्वाच्छश- विपारवच्छन्यः, नहि शन्ध्यापुचरो वा तदुबधो चा खम्भावयितुं शक्यते तथा सत्ति ताद्वशेन कथं स्तिः ? इति चेत्‌ चपोत्वेद्वदिति नूमः- आत्मनो चपामुदखिदत्‌ः-इत्यनेनात्यन्तासम्भावि ताथंन यथा प्राजापत्य स्य तूपरस्य ^ अजस्य विधिः स्तूयते, तदत्‌ इति मर्ष, ब्रूमः-नेद्‌ वामदेव्या- दिसामविधीनां स्तोचं भवि तमति, विधीनामनेकत्वेन स्वस्वसन्निधि- परितैर्थैय द्रै्िराकाङ्श्षत्वेन तदन्वयायोगात्‌ का तयस्य वाक्यस्य ( ९) तूपरस्य शृह्घविदहीनः पञ्चथः अजातश पतितश्ड्नो वा भवति 1 तथाहि ताण्डयवादणस्य चतुप्रथमे-पताः सवेमन्नायमाप्ठुवंस्ता एतास्दपराः इत्यस्य ताः “पतित श्वाः गावः स्व॑तुभवमन्नायम्‌ सअदनीयम्‌ सन्नं प्राप्नुवन्‌ ता गावस्तूपराः शद्गदीना दृश्यन्तः" इति भाप्ये तूपरशब्दस्तयैव व्याख्यातो भाप्यकारेण ॥ि

क्षामवेद्भाष्योपक्रमणिका द&

गतिः ? इति चेत्‌ , -उच्यते-ब्रह्मशब्दोऽज विप्रत्वजातिद्धापरेणोद्धातारं न्ते यस्य गाने तस्मिचरिषेधे खति विधिनिषेधाभ्यामेकविषयाभ्यामुद्धातु- गानं विकर्प्यतेः

पयैभिकरणे ब्रह्मसाम्न एकाद शाभ्यायस्य द्वितीयपादे इादश्चेऽधिकरणे उत्कषविधानम्‌ ब्रह्मसामन्युत्कषः # ` ` “पर्य्चिकरणे व्याग आलम्भो बह्यसखामनि 1 ` `. कर्मशेषनिषेधश्च कर्मान्तरविधिर्भवेत्‌ ~. - - कि वोत्कर्षोऽवरि टस्य ह्याररयोक्तिवद्‌ाऽऽदिमः ! ` अट एटवाक्यभेद्‌ाषेद्धन्यमेदेन चान्तिमः

वाजपेये "सप्तदशे पाजापत्यान्‌ पशून्‌ स्तुतेः शति भरङृत्थं श्रूयते-- "तान्‌ पर्यिरूताचत्दजन्तिः इति, -'्रह्मसास्न्यालभतेः इति तेषु सप्तदशसु पश्घु पय॑ञ्चिकररेऽनुष्िते सत्यत्तरकालभावो कर्मशेषं उत्सर्गशब्देन निपि भ्यते अश्वमेधे "पस्य्चिङूतान्‌ आरएयावुत्खजन्तिः इत्यत्र कर्मशेषनिषेधस्य प्रतिपन्नत्वाद्‌त्रापि ठथात्वेन सष्चद पशवः पयंधिकरणान्ताः समाप्याः। आलसतिना ब्रह्मसामकाले कर्मास्तरं विधीयते इति परापे, व्रमः-कर्मान्तरविधो सप्तद्शपश॒जन्याद्रष्टाह्‌ भिन्नं किञ्चिदद्रषठं कल्प्येत, वाक्यभेदश्च प्राप्चुयात्‌ 1 किञ्च "्रह्मसास्न्यालसतेः इत्यच्र द्रव्यदेवतयोर्रवणात्‌ कर्मान्तरविधिः सस्भवति 1 तस्मात्‌ पयंिकरणानन्तरमेव कायस्य स्तद्‌ शपश्ुनामलम्भा- दिशेषस्य ब्रह्मलामकाले उत्कर्षो विधीयते, तथा सति अर्थभ्राक्तः,. पर्यचचि. करणानन्तरभाविकर्म॑व्यापारोपरम उत्खगशब्देनानू्यते

सन्त्रलदहणमारभ्य ब्रह्मखामोत्कर्षपर्यन्तेः१ पूव॑मीमांखागतैः दिष्टि संख्याकैविचारैः सामवेदस्य क्रतष्ूपयोगो विस्पण्ीकृतः अतः ध्रयो- जनवस्वपदुग्चेदएदिवदेवएवश्यं ्याख्यएतव्यः

सास्ना्गाश्रयत्वात्‌ नन्वस्मिन्‌ सामवेदे बाह्यणभागस्य व्याख्यातुं योग्ये- तेषां व्याख्यानयोग्यत्व- त्वेऽपि मभ्भागस्य ज्याख्यानयोग्यतासिति,

प्रतिपादनम्‌ तजत्यानां मन्बाणां गौीतिसाचत्मकत्वाद्‌ !. खद्धुं प- द्वाक्छ्यन्यतिरिक्तायां स्वरस्तोभादिसाध्यायां गीतो क्रियाकारकयोजना-

सिन्यङ्गयः कथ्चिदर्थोऽस्ति, यस्याभिव्यक्तये भवता गीतिर्व्याख्यायेत | यत्त स्वरादिलक्षणविशेषकथनेन गीतिब्यएख्यानं तत्पूवाचा्येरेव तरल्लत्तण- मन्जग्रहशेषु सस्पादितम्‌-इति तत्र त्वया यतितव्यम्‌ अतः कथं भवतः मन्लसागव्याख्यानम्‌ ?

( १) चतुषष्टितमघ्ष्ठादारस्य नवनवतितमप्रष्ठपर्थन्तमन्नत्यो ग्रन्थांशोे साधवाचाय- प्णीठजञेमिनीयन्यायमाला विस्तरस्य तत्तदुभ्यायादुदूधुचोऽन्र विद्यते इति स्फुटमकपेयम्‌

१४४ , . खाथणचार्यृतां `

अनोच्यते-न तावद गीतिनिराश्रया, तस्याः छच्याधितत्वात्‌ अतं एव छन्दोगा उपनिषद्येवामनन्ति--तस्माद्ूच्यष्युदढं साम॒ गीयतेः-इति (० उप० १।६) गीत्याश्चयभूता सेयश्चगपि सन्बर प्व नतेषासरग्‌ यजा- ्थवशेनपादभ्यवस्थाः इति मन्यविशेषत्वेन सूचितत्वात्‌ (जे सू०२।१।३२) ऋगातमकस्य तु मन्नस्य क्रियाकारकान्वयामिन्यङ्गयोऽर्थो विद्यते) क्रनुष्ठानकालेऽदुस्मच्चेव्यः इति ऋगन्यास्यानमवभ्यं कत्तव्यम्‌

मन्तरैरथानुस्मरणत्व- मन्बैर्थाजुस्मरणं तु प्रथमाध्यायस्य द्वितीयपदे चठुथां निणियः धिकरणे निर्णीतम्‌--

“सन्ना उरु प्रथस्वेति किमट्ष्टेकहेतवः

यगेषुत पूरोडाराग्रथनादेश्च मासकाः

बराह्रेनापि तद्वानान्‌ सन्ताः पुरयैकहेतवः

तहुभानस्य द्त्वात्‌ हृष्टं वरमद्ष्टतः

उरु प्रथस्वेत्ययं कथिन्मन्तः तस्यायमथंः-मो पुरोडाश, सवं उर विपु-

रता यथा मवति तथा प्रसरः इति एवमादयो मन्त्राः यागप्रयोगेषूचाय्ये- माणाः अद्र्टमेव जनयन्ति स्व्थ॑भ्रकाङानोय तदुचारणम्‌ , पुरोडाश- ग्रथनलक्षणस्यार्थैस्य ब्ाह्मणएवाक्येनापि पाप्तत्वात्‌ “उरू प्रथस्वेति पुरोडाशं ` प्रथयतिः इति हि ब्रह्लमणवाक्यम्‌ नतेद्‌ युक्तम्‌, अथप्रत्यायनस्य ट्र ्प्रयोजनसम्मवे सति केवलाट्रश्टस्य कत्पयितुमश्तक्यत्वात्‌ तस्मात्‌ श्यमानार्थाजुस्मरणमेव यपगध्रयोये सन्बोच्चारणस्य प्रयोजनम्‌ ब्ाह्यण्‌- वाक्येनार्थाचुस्सरणसम्भवे मन्बेणेवाचुस्मरणीयमिति यो नियमः, तस्य टृ ्टासम्भवात्‌ भद्रं प्रयोजनमस्तु” 1

मन्त्ररथायुस्मरणत्व- अस्मिन्नेवएधिकरणे मतान्तरेण" पूर्वोत्तरपक्षावाह-- विषये गुरुम॑त- “मन्नबराह्मणयोयंद्ा कलो विनियोजने विमेचनम्‌ ` मन्बलिङ्कसिद्धाथमयुवक्तीतरदू यतः भस्य मन्त्रस्य लिङ्धेन विनियोगे नाह्यणवाक्यमविवक्निताथं स्यात्‌ , वाक्येन विनियोगे मन्वलिङ्ग बिवच्येत, दइत्युभयोनिरोधादभामाण्यं चोदनायाः इति पूर्ध पक्षः ! नायं विरोधः, भरवलेन लिङ्गेन विनियोगसिद्धो वाक्यस्यालु वाद कत्वादिति साद्धान्तः” ( ज्ञे न्या९ वि० २१२1४ )

इति सामवेदस्य माप्योपक्रमणिका समाप्ता

----- ~< र~

( ) प्रभांकर॑स्य सतेनेति भावः!

` शुञ्चयजुर्वेदान्तर्मतायाः # @ काण्वस्ाहतायाः सायणाचार्यकरुता भाष्यभूमिका

शुछ्यदवैदान्तमतायाः

काण्वसंषहेताया भाप्यभूमिका

भण ~ ~>

वागीणाच्याः सुमनसः सं्र्थनामुक्रमे मं नत्त्रा कृतकृत्याः स्युस्तं नमामि गजाननम्‌ ग्रस्य निः भ्वितं वेद्रा यो ब्रदेभ्योऽखिं जगत्‌ निर्ममे तमद चन्दे विद्यात्तीथेमहेश्वरम्‌ यत्कदान्तेण तद्रूपं दश्वद्‌ वुक्कमदीपतिः॥ श्ादिशव्‌ सायणाचार्य वद्‌थंस्य प्रकाएनं २॥ म्र प्र्घोच्तिग्मीांसर ते व्याल्यायाऽतिसंग्रहात्‌ छरपालुः सायणाचार्य वेदां व्याकरोत्‌ खलु £ छभ्यजुःसामवेदा वरे व्याख्यातास्तेपु त्ज्चुः | ष्णं शुक्रमिति दधे तन्‌ छरप्ं तच्िमीयकम्‌ वं शम्पायनरिप्येण याक्ञवल्क्यन यद यज्ञः अधीत्य बास्तमाच्ायैकोपसीवन यागिना ६॥ शदः यिप्यमवाचच्थं कटः केनाऽपि हेतुना धरत्यर्पय मदीयां व्यं चिद्यानित्यर्थयत्‌ सच ॥७॥ यागसामश्यता चिदया मृती छृच्वाऽवमत्‌ तद्‌ ) शररद्धीत तद्यर्वान्तमित्यन्यान्‌ गुख्रत्रवीत्‌ ; < यन्य तिचिर्यो भृत्वा किञ्चित्‌ तानप्यभक्षयन्‌, प्रवर्तितः खणडशस्तेनं सम्यग्‌ वध्यत नृभिः &॥ वाध्वरयंवं कचिद्‌ दाचं कथिदित्यघ्यवस्थयः वुद्धिमालिन्यदवुत्वाह्‌ यज्चः कृष्णमितीयते १० याववच्क्यस्ततः सूर्यमायध्याऽस्मादश्रीतवान्‌ | व्यवरियतश्रकरणं यञ्चः शुक्लं तद्रीयंते ११ पराणि कथामत चेदव्याख्यान आदरात्‌ 1 यदि शन्मद्यमरव्चायाः श्रुतावपि मया श्चतम्‌ १२ कारवयेद्‌गते विद्या वंशत्राद्यण धर्यते यजुपि शुक्लान्यादित्यन्मुनिः ध्राचत्यपि स्षटुटम्‌ १३

९०४ सखायलाचायकृता

व॑गव्राह्मगापक्रमः अश वंशः पाोतिम्रायौपु्ः कत्यायनीपुव्ाद्‌ इत्यारभ्य, परमष्रा ब्रह्मणो व्रह्म स्वचम्भत्रह्मये नम इत्येतदन्तं काराववेद स्यान्तिमं बश- ब्राह्मणम्‌ 1 पात्तिमपधुत्रः कथ्िद्धदसंपरदायपवर्तक्ो सनिमप्यासां गरः क्रात्यायनापुजाद्‌ वेदमध्रीतवाव. परमेषरीशव्येन सत्यलोकधचर्तो चतुमुखाऽथध्रायत व्ह्मश्रन्देचाच देना, श्र्नारं बद्यः, "सत्यं ज्रानमचन्तं रह्म! माया तु अ्रह्नत लद न्मप्येनं तु सदेश्वरम्‌? (वेता ° उप० ४११०} इत्यादिवद्‌ वाक्यप्रसिद्धः . परमेश्वरे .विविक्चतः तस्य इतरेपामिः वोत्पत्यथ वेदाऽब्ययनादिन्यतव्रह्मराय वा पारतन्त्यं, तत्‌ स्वयम्पूृश्व्येन निव्रायते तथा श््रेताश्वतया आमचन्ति- तस्य कायं करणं विद्यते तत्समञ्ाभ्यधिक्छश्च द्रश्यते ! पराऽस्य शक्तिचिविषेव श्रयते स्वामाविकी ज्ञानवलक्रिया तस्य कथित्‌ पतिरस्ति लोके चिता नैव तस्य लिङ्गम्‌! कारणं करणःधिपाधिपो चास्यं कथ्िखनिता चाऽधिपः॥ ( श्वेता उप० ६!८,६ ) ] यो व्रह्मारं विदधाति पूर्व योवे वेदाश्च अरहिणोतिं तस्पै।

[५२

तं दरवमात्मवुद्धियक्रारा मुमुचे शरणमहं परपचे ( शवेता० उप० ६।१८ ) नमः शब्देन चाऽस्य ब्राह्मणस्य गुरूपरम्पराविपयनमस्कारं धरत्यज्ग- मन्तत्वं चोत्यते ! खा गुखनमस्कारखूपा गुरुसेवा वेद्‌ाध्ययनतद्‌ थैविचार- तद्युष्नानां सरापठट्याय संपद्यते ! त्था स्पृत्तिः गुखमुख्याः क्रियाः सर्वां भुक्तिमुक्तिपफलयपद्‌ाः तस्मात्‌ सेव्यो गुखुनित्यं मुक्त्यथ शुखमादहितेः

य॒च्यङर्वदल्य गराखा- दरश चाऽस्मिच्‌ वंदात्राह्यसु बाक्यमेवमान्नायते- विषयक्रो विचारः थादित्यानीनामानि शुक्लानि यज्तृपि वाजसनेयेन यात्तचल्क्येनाख्यायन्त इति थदिव्येनाध्यापितत्वादादित्यान्युच्यन्ते वाज इृत्यन्रख्य नामधेयम्‌ ! “अन्नं वै वाजः” दरति श्रुतेः वाजस्य सनि दानं यस्य मदर्प॑रस्ति खोऽयं वाजसनिः तस्य पुत्रो वाजसनेयस्तस्य याज्ञ चस्क्य इति नामधेयम्‌ तेन याज्ञवल्क्येन तानि थुक्लयजृंपि महपिभ्यः पञ्च- द्भ्य आख्यायन्ते समन्तादुपदिश्यन्ते एवं सति याक्ञवस्क्येन प्रवतिताः श॒ङ्गयद्ुत्रिपयाः शाखाः पञ्चदरा संपयन्ते ! तच्छाखाऽध्यायिनच्रणव्युहा- दिम्रन्ये कारवादिभिः पञ्चदशसिर्नासमिरित्थं व्यवहियन्ते-काण्वाः १॥ माघ्यन्दिनाः शारयः २॥ तापायनीयाः कापलाः ५॥ पौरृडवत्साः दा यावरिकाः ॥७॥ पर्मावरिकाः ॥८॥ पासाद्ायाः वेश्याः 1६०॥ वचनयाः ।॥९१॥ वोधयाः २२॥ गत्ता: ॥१३॥ वेडवाः॥१४॥

कालत्यायनींयाश् १५ इति पञ्चददय नामानि च० च्यु० कं०)॥

कारवसंदितायाप्योपक्रमणिक्रौ ] १०६

२3 + महिमा लय इ. च्ङर्दविेध छग्वसंदित्त्यभि्ान- सच क्मर्‌वाधिधन मदयिणा लव्धा यद्चकंदचिद्रोषः स्याश्निच्यग्न्‌ कारवः तल्लायच्य स्मर्चते--

युगान्तऽन्त्दिताय्‌. यदाच चतिद्याखान मह्यः 1 $ ह्‌. लभिरे तपसा पृर्व॑मचकाताः स्वयस्घुचा

यद्यप्यं वद्रुः स्वर्यम्धूपरमेष्ठयादिपस्स्पस्या यान्न आद्वित्यदिष्यसु. याठवच्व्यन वहुभ्यः पिष्यस्य उयदिएटस्तथापि महता तपसा वष्रस्यद्वर- सत्याध्ग्रदात्‌ कार्वखभ्वन्धितयैव खोक प्रख्यायते 1 तमेतं ऋारचवेदमष्ी- यत विदन्वि वति च्युन्पत्या क्राण्वटिष्यग्रदिष्यादिंपरर्पसययां वर्तमानः स्रऽपरि काण्वा इच्युच्यन्त 1 पं कात्वा कारवाद्धिषु द्रष्टव्यम्‌ 1

तदं काण्वचद्‌ाच्यं शुकं यजः पूर्य व्याख्यातं, ज्जिव तैत्तिरीयाख्यं छष्युं यद्रे व्याख्यातम्‌ त्स्मादिदानी क्रारव-चाखः व्यश्च्यायते | यद्यम्यनयोः द्ाखयोखाष्वर्यव एव ध्रयोगः प्रतिपाद्यते, तथापि मन्यपाट- विैः भयोगविेवैर्मदान. भदः! चाचुष्टानृभेदन व्यवस्थितविपय- च्वाच्न विकल्व्यवे अत एव, “स्वाध्यायाऽध्वतस्यःः ( ते० आ० २।२५ ) दति स्वर्कीयदाप्छाप्ययनमयुषानविगेपाय विदितम्‌ 1

धस्वाव्यायोथ्येतव्वः = अचंतद्ू चिन्तनीयम्‌ 1 किमेवत्‌ स्वविधित्रयुचं इत्यस्वायव्रिचारणायां मागव्रक्राध्ययनन्‌ ? उतऽध्यययनविधिप्रयुक्तम्‌ ? प्राकरनताषन्याखः इत्ति ! तच पभाक्ररो मन्यते--स्वाध्यायोऽध्ये्तव्य इत्यथविधिर्वर्मुयनीतं साणवकमध्ययन अवर्तचितं परभवति" यनधीततदुख्य तद्धिधिवाक्यपाटास्ावादूुः बा्त्याऽ्थक्तानं व्याकरलादि,

प्रडद्नाघ्ययनरदितस्य दृखप्रतम्‌ बा्क्रीडाद्छु निरन्तर्मासक्तस्यानुष्टाने

भरच्रचिराणद्धितुमप्यगक्रया तस्माच्च विधिः प्रवतेकः नु पिक्ाचार्या- दिभिः गिरधितो माणवकः कडाथ्च उपरतः पिचादिमुखार्देव वथयोक्त-

[4 ~ [न तिचा = वाच्त्यार्यमवगस्वाघ्ययने अचरतिष्यत इति चत्‌ णवं वदि पिच्चायदिकर्द- काऽध्यापनप्रनुचं मार॒वकाध्ययनं; त्वभ्ययनविधिप्रयुकनिच्येताट्रशम-

(न

स्मद्(यमव यत्तं अचताऽव्यङ्कीच्तव्यम्‌ ।! अध्यापनस्य तु विधिर्वमा- घ्नाच्ते-“जष्रवर्षं जाह्यरात्ुपनयी तः इति न॒ पृर्वा्तिष्ययनविध्राविवेत- स्मिचव्यापनविधचवि चोम्योऽधिका्यं खा्ताच श्रूयते ततोऽध्यवनसिद्धौ ` तत्पयुचछिरय्वध्ययनस्य दुछभति चव्‌ 1 मैवम्‌ 1 उपनयीतेव्येतेयाव्यनपदे- नाचार्यन्वक्ामस्याधिक्यसिलिः अतीचमानन्वात्‌ 1 खंमाननोत्सच्ननाचार्य-

[1

करररगच्य

करगंत्यादिना स्रगाऽऽचार्यकरणविवश्नाया, नयतिधावोराव्मनेपदं विद्धि. नम्‌ 1 एवमप्यु्रनयन पवाधिकारिखिद्धिर्नं व्वध्यायन इति चेव ? मैवम्‌ उपनयीत तमय्यापयीतेत्युपरनयनाव्ययनयोयक्ययोाचत्वावयमात्‌, 1 अयये- वार्या मलना स्मर्यत--

१४६ खायसाचार्यकृता

उपनीय गुरुः शिष्यं वेदमध्यापयेच्नरः सकल्पं सरहस्यं तमप्वायं परचक्षते ( मुः २।९४० ) आचायत्वकामेन पिचादिनाऽचुषटेयम्‌ अध्यापनं मारावककर्तकाभ्ययन- व्यतिरेकेण सिध्यति ! पाचयति याजयतीत्यादौ ` सर्व॑ धात्वर्थन्यति- रेकेण रिच्प्रत्ययार्थादर्णनात्‌ 1 अतः पित्रादिभिरयुष्टेयमध्यापनं मारवका- भ्ययनस्य भरयोजकम्‌ एवं तदहि, 'स्वाध्यायोऽध्येतन्यः" इत्यस्य चिषे; का गतिरिति चेत्‌ ? बह्मयज्ञाभ्ययनमनेन विधीयते इति च्रूमः अत एव, तैत्ति सीयत्रह्मयन्ञेन यच्यमाणः प्राच्यां दिशि ग्रामादित्यारभ्य तस्मिन्नेव प्रकरणे स्वाध्यायस्य महिमानम्‌--अपहतपाप्मा स्व ध्याय इत्यादिना वहुधा ध्रप- ञ्च्य तस्मादेवमामनन्ति-तस्मात्‌ स्वाध्यायोऽध्येतन्यः, यंयं क्रतुमधीते तेन तेनास्येष्ं भवतीति तस्मादध्यापनविधिपरयुक्तं म(णवकाभ्यायनमिच्येवं प्रमाकरमतम्‌ #

पूर्वाक्तस्य प्राभाकर- अघ्रोच्यते नित्यस्य ग्रहणाध्ययनस्य काम्येनाध्यापनेन , मवस्य समीक्षा प्रयोज्यत्व संभवति प्रहणाध्ययनस्य निव्यत्वम- करणे प्रत्यवायस्मरसाद्वगतन्धम्‌ तथा स्मर्य॑ते-

योऽनधीत्य द्विजो वेद्‌ानन्यत्र कुरुते श्रमम्‌ जीवनेच शुद्रत्वमाश् गच्छति सान्वयः (म स्पर० २।१६८) अध्यापनं तु कुटुम्बपोपणाय गुखदक्षिणाकामेनायुषएठीयत इति तस्य काम्यत्वम्‌ पतदपि स्मयंते- पर्णा तु कमेणामस्य ्ीणि कर्माणि जीविका याज्ञनाध्यापने चैव विशुद्धाच्च प्रतिग्रहः (म० स्म० १०1७द). यजनयाजनाभ्ययनाध्यापनद्‌ानपरतिप्रदेषु षट कर्मसु यजनाभ्ययन- ` दानानि त्रीण्यटरष्टा्थानि याजनादीनि त॒ जसि जीवनाथानि, त्वद्र्ठा- रथानि यस्तु गुरुदज्निणएमनपेद्य माणवकान्‌ अध्यापयति तस्याध्यापनं विद्याद्‌ानूपत्व द्‌ दृषट्थमस्तु चेत्ताचता प्तस्य निषिद्धत्वात्‌ सिध्यति ` दानस्य शध्रनवस््रादिना सम्पादयितु शक्यत्वात्‌ 1 इत्थमनित्यम्या-- पनं यद्‌ पिघ्ादयो नायुतिटन्ति तद्‌ नित्यमध्यापनप्रयु्तं माणवकस्या- ध्ययने निष्पद्येत तस्मान्नित्यं अहणएाध्ययनं स्वचिधिध्रयुक्तमेवेत्यवग- स्तन्यम्‌ नेषु ~ स्वाध्यायोऽध्येतन्य इत्यस्य वेद्‌व्रह्मयक्ञविषयत्वाह्‌ ग्रहणा- ध्य्रयननस्वविधिनं लभ्यतेति चेत्‌ ? ब्राढम्‌ अतं पव परकाशात्माचाय- विवरणब्रस्थे तमध्यापयीतेत्यस्य माणवकाध्ययनविधिपरत्वयुक्तम्‌ अघ ध्यापयीतेत्ति पदे, धात्वर्थो, शिच्प्रत्ययार्थो, विधायकविभक्त्यर्थयेति त्रयोऽ्थाः प्रतिपायन्ते तेपु णिच्प्रत्ययार्थ॑स्य जीचनकामनयेव प्राप्त्वा- श्ाऽसो व्रिधेयः। अतः प्राप्रं तमनृथ् ध्रात्वर्थोऽग्रा्तोऽसिमिन्‌ चक्ये विधी.

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कण्वसदितामाण्योयन्रमर्णिका १०५.

चते ।-यथ्वा, थयिदहोचं छुद्यीवीवि दमं विध्राय, दध्ना छदहोतीति वाक्ये ध्रादोमाण्वद्धेनाष्यघ्तो दधिगुणो विददिवस्तदढत्‌ 1 तस्मान्मारवकक्रर- काध्ययनविधिपसमेवद्वच््यन्‌ तच तद्वाचकत्वं योऽवर्पो जाद्यणस्नुप- गच्छत, साऽ्ीयीतव्येवं परिरचव्यम्‌ 1 च्ञ सर्वान्न स्खतिपु बदह्यचारि-- भकर्णऽव्ययनविधद्र्त्वात्‌ ठन्त्रूललभूताच श्रुतिषु विद्यते पवाव्ययनविधिः स्त्य मीयत तस्मात्‌ स्वविधिग्रयुक्तमध्ययनम्‌ 1 तच मारा्रकस्याग्रतर- छचस्वऽपि पि्ादिद्विक्चया वदनां ष्यति धा वेदाध्ययनात्‌ य्रागरव पि्रादििश्षया खन्ध्यावन्दनसमिदादय्याययुषानसिद्धिस्तदत्‌ तस्माच्‌ स्वाघ्यायोऽध्यत्तव्य इत्ययमेव विधिः करवद्धिष्यान्‌ च्वद्ाखा- . वि्तेषाऽभ्ययने श्रवर्वयर्तीति घि -

स्तराघ्यायान्ययनस्य इद्‌मपरञ्जिन्त्यत किमेवदन्ययनमदट्रष्थमुच द्रष्रार्ध- दष्ार्याच्छार्थल- गिति ? तच उद्ाऽयष्व्रादारनिद्रादिषु वेदिकविष्यदणे- द्राङ्न नाद वेदेन विद्दितस्याऽध्ययनस्य खन्ध्यावन्द्‌नादिंव- सारि गव्य दटरशार्थत्वं युक्तम्‌ “स्वनामा ज्योतिष्रोमेन यजेत इत्यादिष्चिवेतत्कामाऽश्रीयीतच्येवमट्र ए्रखाध्यफललविप्धेषो श्रूयत इयि च्‌ ? दि अध्ययनत्वखाम्येन बह्ययनाध्ययनं श्रयमाणं ध्रृचक्रुस्याद्विफलमचातिदिग्यताम्‌ व्रह्मयक्ञप्रकस्ण देवं श्रुयते-“यट्रचा- ऽ्रीवे पयखः कुल्या यस्य पिवन्‌. स्वध्रा अथिवहन्ति यद्युपि घ्रृतङ्कस्या, यत्‌ खामानि लाम एभ्यः पवत, यद्धं चाद्धिस्खा मधोः छुल्या" (तै आ०ग्ध० ) इति तदवदू व्रह्मयक्तरूं ब्रहसाध्ययनऽतिदेखन्यम्‌ चाद्र्चऽतिदेदा इतिं वाच्यम्‌ 1 जमिनीययाः सघ्नराष्रमाघ्याचयोरतिद्‌- दास्येव वहुधा चिस्ववत्वात्‌ 1 तच कमराङ्गानामेवातिदेख्तो निरूपितः श्रुत- कुल्यादिवाक्यं त॒ कर्मा्गाचवोधकं कि फचकथनेन स्तावकोऽथंवाद्‌ः शदरदयास्यातिदेद्यो कापि द्रष्ट इति चेच्‌ ? रवम्‌ 1 वेयासिके गुणोपसंहार पाद्‌, "दाना तुषायनखध्दरग्येषत्वात्‌० (व° खू० २।२६) इवि खे तस्य दग्र त्वात्‌ 1 तथादि ! कोषीदकरिनो वह्यविद्ा पर्त्यक्तयोः चुक्ृवदुप्करतयो- रितरेतरेरय॒क्रलैः पतिच्रलेच् स्वीकारमिष्टमामनन्ति, त्वितसरस्वीकारम्‌ तद्रीयं वाक्यमेत

तद्‌ विद्रान.पुख्यपापे विच्य निस्वनः प्रमं खम्यमुपेचीति 1

तत्र यवान्‌ वाद्खचणः कापिचक््ताखायां श्रुतस्यतस्स्वीकारस्या- धर्बणश्ाखाचानुचखंहारं निर्याववान. स्तोऽयं फलवाक्यदपत्याऽथ- |

` वादस्यातिदेश्तः 1 तद्वद्‌ श्रुत्धस्यादिक्त्मरविदि्यताम्‌ 1

यथवा विष्वजिन्न्यायन स्वर्गा ग्रदणाध्ययनपठलत्वेन करपनीयः तथार्दिः "वरि्वजिक्ता यजतः इति यागविधिरेवास्नाता तच फलयिषनेषः

१०६ खा्यणाचायरतां

तथा सत्यधिकायभावाद्नयुष्ठने घाते तत्समाधानं भगवान्‌ जेमिनिरसूत्- यत्‌-“ल स्वर्गः स्यात्‌ सर्वान्‌ धत्यविशिष्रत्वात्‌? (जे० सु० ४।३।१५ ) इति अस्या्थैः--अधिकारहेतुत्वेन योऽयं फलविशेपोऽपेक्षितः सोऽयं स्वगोऽत्र भवेत्‌ इतः ? 1 फलकामिनः सर्वाय पुरुषान्‌ प्रति स्वगांख्यफ- लस्यसाधारणत्वादिति स्वर्गो नाम सखाऽतिशयः तथा च,

दुःखेन य्न संभिन्नं ग्रस्तमनन्तरम्‌

अभिलापोपनीतं खं स्वगं पद्‌ाभिधम्‌ `

अतोभ्जापि अनेनैव न्यायेन माणवकाध्ययनस्य स्वर्गः फलमित्यदृष्टा-

थमध्ययनमिति प्राप्ते ब्रूमः--इषटफलसम्भवे सत्यदर एकट्पनमन्याय्यम्‌ अन्यथा, बीहिनवहन्तीत्य्ापि तरडलनिष्पत्ति क्षणं द्रएपफलं . वहुपरयास- ' साध्यत्वादुपेच्य सङृन्मुसलय्रहाररूपंप्रयाखरदितमवघातम्‌ अद्रषएटाथ पुर- पोऽवुतिषटेत्‌ तथा सति शाख्ीयतर्डलामावेन पुरोडाशसिद्धो यागविधयो दाध्येरन्‌ तस्माद्‌ टदरएफलसखरम्भवे तदेवादरणीयम्‌ सम्मवति ह्यध्य- यनस्याऽक्चरप्रासिरूपं द्रएफलम्‌ नन्वक्षरप्राभिरूपं दृएटफलं गरुपूवेकाध्य- यनन्यतिरेकेण लिखितपाठेनापि लभ्यते आयुवंद्‌ादिमन्वपाठेषु तथा दश नात्‌ तथा सति किंमनेनाध्ययनविधिनेति चेत्‌ 2 उच्यते नियमद्र्टा- पोऽ्यमभ्ययनविधिः यथा तरडुलनिप्पत्तिरूपस्य द्रएटफलस्यं विक्रिय- नखविदलनादिनापि सिद्धो नियमाद्रर्थोऽवधघातविधिस्तदयत्‌ तस्म द्षरप्राक्षिः प्रत्यद्छोऽभ्ययनविधिरिति सिद्धम्‌

एतद्विषये म्र तदिदं शङ्कख्णंनाएनुखारिणं मतभखदहमानो भदगर गुस्मतयो- मन्येते ।! भवत्यध्ययनस्याक्षरप्रािः फलं, तथापि भव- सूपन्याखः तामपि विधिने , पर्यवस्यति किन्तु प्रा्तेरत्तरेर्योऽय मर्था ऽववोधस्तस्सिन्‌ विधिः पयेवस्यति अ्थाववोधे- नाच्ठाने निष्पन्ने अति पुरषाथस्यातरिहोचादिफलस्य स्वगस्य सिद्धः अक्चरघराप्निमावेण तं अथिदहोत्रायचुषएानफलं सिध्यति तस्मात्‌ फलव- दर्थाववोधरेऽध्ययनविधेः पयवसानमवगन्तन्यम्‌ यदययपिविदहितस्वाष्या- याध्ययनमानादीद्‌नीन्वनेषु स्वेप्वध्यापकेषु अर्थांवयोधो दप्रस्त- थापि निगमनिरुकन्याकसर्खाद्यङ्गपरिशीलनचत्सु . द्रष्ट पतार्थाचवोधः ] व्याकरएादिपरिःीटनमातरेणाथप्रतीतिमार सत्यपि तियो लभ्यते | ( १) तथा तन्नत्यं शवरभाप्यम्‌-एवं जातीयकेषु एतत्‌ समधिगतम्‌, एकं फरमि ति! इृदमिदानी' सन्दिद्यत-किं यत्‌ किञ्चित्‌ उत स्वग इति यत्‌ किंचिदिति प्राप्तम्‌ वि. शेपानभिधानात्‌ तत उच्यते स्वम: स्यात्‌ सर्वाम्‌ प्रत्यचिरिष्टत्वाव्‌ सवं हि पुरूषाः स्वगेकामाः ऊत एतत्‌ ? ग्रीतिटि स्वैः सर्वश्च प्रीति प्राथयते किमतो येवम्‌ अवि- धएवरचनः दल्दरा तरिभप च्यवल्यापितां भत्रिप्यति यजत ऊुर्यादिति 1 तस्माद्‌ स्वरगंफट मर्वंजातीयकमिति )

कारवस्ंदिताभाष्योपक्रमणिका १०६

रक्ताः शुकस उपदृष्रातील्यादिवाक्येषु कन द्रव्येणाऽक्ता इत्यादेः संदेह स्यानपगम्रादिति चत्‌ } ध्वं तर्हि निर्णायक मीमांसाशाख्मनेनाध्य- घनविधिनाथनिरंयाय स्वीक्रियताम्‌। यथाऽवघ्रादविधिस्तरड्टनिप्पन्ति- फलसिध्यर्थोऽववातस्याघ्रूत्ि स्वीकरोति तद्त्‌ 1 तस्मात्‌ फलवदर्थाववोधे पयंवस्यत्ययमभ्ययनविधिनं त्वक्चरप्रातिमाच उति भर चरमः

किम्रयमर्थाववोधः स्वयमेव बृख्वार्थस्य स्वगहेतः 2 उताऽचिद्ो्ा- यनु्नद्रारेण नाऽघ्यः ! थनु्रन्येयर्यप्रसद्भात्‌ छितीतरे यथार्था. वचौधस्यानुटानदेताः परम्पय्या पुरुवार्थटेतृत्वम्‌ पवमर्थाववोघहेतुभरता- या ध्तरप्रात्तस्पि परम्परया वृरुषार्थहेवुत्याद्विधिग्रपरासौ पर्यवस्यतु 1 किन्धालग्रनद्ारस्वर्गफलोपतेऽर्थाववःप्रे विधिपर्यवस्ाचं वदतः छृत्स्नवेदा- प्ययनं सिध्यत सजसूयाऽ्वमेध्रादरावनधिकारिणो ब्राह्यणस्य तत्फल- त्वपूर्यन्तार्थावचोध्रासंभरवात्‌ धश्नसपात्िफलवादिनम्तु छृत्स्नवद्‌ाध्ययनं खिध्यति धत्तररातरि््रह्ययत्रे जयपदेतुत्वात्‌ 1 तत्र वराह्यणोऽपि सजघ्ूया- एवमेधघ्रादिवद्‌ विमाने मागोचरत्रद्ययक्रजपं कसेत्यव विध्ररर्थाचवोध्र- पर्यन्तत्याऽ्यावे क्रथमर्थाचवोधसिद्धिरिति चेत्‌ ? काच्यनाटकादि्नन्थेषु वैद्रिकविधिप्रन्तयेणा यथा भर्थाववोधस्तद्रद भविष्यति विध्यर्थाभवे ऽर्था- चचोघध्रयक्तमद्रं किञ्चिदपि सिध्यतीति चेत्‌ ? मेवम्‌ वर्थाचवोध्रस्या- ध्ययनविधिष्रयुक्त्यभावेपि विध्यन्तस्रयुक्तत्वन टदस्याद्रण्स्य सि विध्यन्तरं चचमाश्नायते-्राह्यसेन निष्कारणो धर्मः पडड्ो वेदोऽध्येयो त्रेयच्यःः |

"योऽर्थ इत्सकलं भ्मरयुते 1 नाकमति कानचिधुतपाप्ना?ः ( नि० ११८ )

तस्मादन्ययनविधिः पाटमाचपयंवसायी अथांववोधस्तु विध्यन्त्रर-

प्रयुक्त इति सिद्धम्‌

वदस्य धिषयविभाग- अधद्रनी विदहितार्थाचयोध्रसिद्धये काण्ववेदो व्याख्या- निरूपणम्‌ यते कचरसंचन्यच्च वेद्‌स्यपूरव॑मव प्रसिधः प्रदर्शितः कराचसखंवन्धिशाखाया वदत्वं चाऽलाकिकःधुषख्पार्थोपायवेद्‌ नदेतुत्याद्‌वगन्त- व्यम्‌ तथा चोक्त-- प्रस्यक्तेणाऽच॒मिव्या वा यस्तृपायो बुख्चते पतं चिदन्ति चदन वस्माद्‌ वेदस्य वेदता

तस्मि चदे दौ कारडो- कर्मकाण्ड, बद्यकाण्डच् बृदद्रस्यकाऽऽ्य्यो ग्रन्था घह्मक्रारडस्वद्धयतिसिक ए्राचपथत्राह्मणं संहिता चेत्यनयोग्रन्थयोः कर्म॑ - काण्डत्वम्‌ तव्रोभयत्राधानाचिद्योत्दणेपृरमासादिकर्मण प्त प्रतिपा. य्त्यात्त. बृहदारण्यक तु वतीय्रायध्याय्रघु रद्य प्रतिपप्यते अनतः कर्मासि

११० सायणाचार्यकृता

वेदस्य विषयः तदवबोधः प्रयोजनम्‌ बोधाथों चाधिकारी तच प्रयोजनं `चिषयेण जन्यते अधिकारिविषयोस्तु प्रयोजनद्वारेणोपकार्यो पकारकत्वसं- . ` वन्धः इत्थं चिषयप्रयोजनाधिकारिसेवन्धरूपस्याऽचवन्धचतुष्टयस्य वि- यमानत्वात्‌ तदीयभ्रामार्यस्य जेमिनिना प्रथमपादे भ्रपरञ्चितत्वा्च वेदो- व्याख्यातं योग्यः कमैकाण्डस्य व्यार्यनि- तस्मिश्च वेदे कर्मकाण्डः प्रथममाम्नातः यद्यपि ` प्राथम्ये वोग्यत्व- ब्रह्मणोऽभ्य्हितत्वाद्‌ = बह्मकाण्डस्यव प्राथम्य विचारः। मुचितम्‌ तथापि कमेमिः साध्यां चित्तश्॒द्धिमन्तरेश पुखषस्य बह्मकाण्डेऽधिकाराभावादधिकार्देतुकर्मरतिपादकः कारडः प्रथमं संमान्नातः कर्माणि चतुर्विधानि नित्यं, नैमित्तिक, काम्यं, निषिद्धं चेति! तच निव्यनेमित्तिकयोरनयुष्टानाननिषिद्ध सेवनाच प्रत्यवाय उत्पयते तथा याज्ञवल्क्यः स्मरति- विहितस्याननु्टानाननिन्दितिस्य सेवनात्‌ अनिग्रह ष्ेन्द्ियाणां नरः पतनगरुच्छुति (या० स्मर० ३।२१६) तेन भ्रत्यवायेन वबुद्धिमान्ये सति नित्यानित्यवस्तुविवेकवैराग्यादी- नामचद्‌यात्‌ बह्मविविदिषा पुरुषस्य जायते तस्माद विधिदिषाहेतुत्वं नित्यनेमित्तिकमणां बृद्‌ाररयके खमामनन्ति- तमेतं वेदानुवचनेन बाह्या विविद्पन्ति यज्ञेन दानेन तपसाऽनादाकेन = तद्‌ नुष्ानेन तमोगुणरूपे चित्तमाक्तिन्य अपगते सि सत्वगुणरूपस्य नर्मस्यस्योद याद्‌ विवेक्वैरग्यादिसंपत्तौ सत्यां परमपुरुषार्थरूपे जह्यतत्व- वेदनेऽभिरचिजायते “कारी्ां च्ष्टिकामो यजेत्‌? , “चित्रया पशुकामः दव्यादीनि तु काम्यकर्माणि पस्मपुरूपाथंसाधनाऽभावेऽपि स्वाभाविककाम- म्रस्ताना पुरुषाणां वैदिकमागं फलसंवादेन श्रद्धासुत्यादयितमेवान्नायन्ते तस्मात्‌ तानि वेदे पासङ्गिकानि पर्मतात्पर्यं तु वेद्‌ स्य नित्यकरमस्वेव तस्मात्‌ कर्मकाण्डगतयोः संहिताह्तपशथत्रन्थयोः प्राधान्येन नित्यकमारया- प्नातानि। यङुदुस्याध्याय- त्न शतपथत्राह्मणस्य॒मन्तव्याख्यानरूपत्वाद्‌ भ्या- गता विषयाः च्येथमन्तिपाद्‌कः संहिताग्रन्थः पूच॑भावित्वात्‌ प्रथमो भवति तस्मिश्च संहिताग्रन्थे चत्वारिंशद्ध्यायाः तेषु प्रथमद्धितीय- योरभ्याययोद॑शंपूणैमासोौ ठतीयेऽन्वाधानाः दोत्राग्नयुपस्थानचातुमा- स्यानि ।चतुथैपञ्चमपषटसप्तमा्टमनवमेषु परस्वचिष्टोमः दशमे चाजपेयः। पकादशे राजसूयः दादशमारभ्य विशान्तेपु नवस्वच्चिचयनम्‌ पकविश- दाविगतयोचिशेषु भिषु॒सौामणी चतुर्विं शपञ्चविशपड्विशस-

कारावसंहिताभाष्योपक्रमणिका . १११

विशेष चतुर्वश्वमेधः 1 अष्टाविशमारभ्य चरयलिशान्तेषु षयूु तत्र तजन विग्रकीणां लिङ्गविनियोज्या अनारम्याधीता मन्नाः चतुखिशपञ्चनिदायो पुरुषमेश्वः प्रयूतरिशे शान्तिः 1 सत्तजिशावितैकोनचत्वारि शेषु भरवम्यैः चत्वारिंशे व्रह्मविद्या 1

संहितारम्मे दुर्बपूर्ण- नञ्ज संहिताया आदौ कर्मान्तरं परित्यञ्य मासेष्टिनिरूपणस्य प्रणैमासेष्िरेव कुतः प्रतिपाद्यत इति चेत्‌ ? ग्रऱृति- ओौचित्यविचारः त्वाननिरपेत्तत्वाष्वेति व्रमः प्रकपैणाऽ जो पदेशा यत्र क्रियते सा भरति; कृत्स्नाङ्गविपयत्वमुपदेशस्य भक्षः विकृतिषु तु वि शेषाङ्गमाचस्यो पदेशः क्रियते ! अङ्गान्तरासि तु प्ररृतेरतिदिश्यन्ते अतः उपदेशस्य प्रकर्षाभावः भ्ररकृतिखिविधा--अिहोचम्‌ , इष्टिः, सोमध्चेति चिष्वप्येतेष्वन्यनैरपेच्येण स्वाद्गजानं स्व॑मुपदिषएटम्‌ तत्न सोमयागस्य स्व- रूपेरएन्यनेसपेच्येप्वप्यङ्घेषु दीश्चणीयादिषु दश॑पोर्णसासेषखापि्तत्वाह्‌ पूवेभावित्वं युक्तम्‌। श्टेस्त॒ सोमयागनेरपेच््यात्‌ सोमात्‌ प्राचीनत्वं युक्तम्‌ यद्यप्यञ्चिहोचस्य स्वरूपाङ्गेषु नास्त्थन्यापेश्चा, तथाप्यद्ििद्यपेक्ञत्वाद्‌ आहवनीयादस्मीनां पवमानेिखाध्यत्वात्‌ पवमानेषएटीनां दशंपूख॑मास- विकृतिस्वात्‌ परम्पर्याधिदोच्रस्य दशेपूरौमाखपेश्चाऽस्तीति प्रथमभोचित्वं युक्तम्‌ दर्शपृणेमाखयोरञ्चिखाध्यत्वादच्चिसाधकमाधानं प्रथमतो चक्तञ्य- भिति चेढू्‌ ? मेवम्‌ नाधानमाच्रेणाञ्चयः सिध्यन्ति किन्तु पवमानेषटिमि रपि ता्ये्रयो दशंपूणेमासविरकृतित्वात्‌ साक्षादेव दशपूणेमासावपेक्षन्ते दरशपरणेमासो त्वश्चिद्धाय पवमनेष्टिसपेत्तावपि साक्तात्‌ पवमनेष्टीर- पे्ेते अतो निर्पेक्षत्वाङ्‌ दशेप्रणेमासेष्टिरेव प्रथमं वक्तव्या ऋग्वेदसाम- वेद्योखदौ दशंप्रणेमासेष्िनांश्चातेति चेत्‌ ? वाढम्‌ यञ्खुवंदमपेक्य दशे- पृर्णमासयोसदित्वमुक्तम्‌ कमेकारडविषये यज्ञुवंदस्येव प्राधान्यात्‌ मातु पर्वया कर्मणां स्वरूपं यज्चुकदे समाम्नातम्‌ तज तच्च विशेषापेक्षायामपेक्िता यास्यापुरोनुवाक्यादय ऋग्वेदे समाम्नायन्ते स्तोत्रादीनि सामवेदे तथा सति भित्तिस्थानीयो चञ्चद्‌; ; चिच्रस्थानीयावितयो तस्मात्‌ कर्म यज्ञक॑दस्य प्राधान्यम्‌ तस्मिश्च दर्शपूर्णमासेष्टियदो समाम्नाता तस्यां चेष्टौ, शपे त्वाद्यो मन्त्राः

मन्त्रस्य सामान्य- तेपां मन्नाणां सामान्यलक्षणं न्यावविस्तयाभिधे लक्षणनिरूपणम्‌ भ्रन्थे द्वितीयाऽध्याये प्रथमपादे दाभ्यामधिकरणा- भ्यासित्थं विचारितम्‌- “अदे चुध्निय मन्नं मेः इति मन्नस्य लक्षणम्‌ 1 | नास्त्यस्ति वाऽस्य नास्त्येतदब्याप्त्यादेरवारणात्‌ ` १५

: ११२ सायणाचा्यङूता

या्ञिकानां समाख्यानं लक्षणं दोपवज्ितम्‌ तेऽचुष्टास्मारकादौ मन्वदा्द्‌ युस्ते

आधानप्रकरण इदमास्नायते--“अहे वुध्निय मन्तं मे गोपाय? ( तै० व्रा० १।२।१।८६ ) इति तत्र मन्स्य लक्षणं नारित कुतः ? अन्याप्त्यति- .व्यास््योरवांरयितमशक्यत्वात्‌ 1 "विहिताथस्याभिधायको मन्त्रः, इत्युक्ते, , वसन्ताय कपि्चलानालमते० (वा० सं २४।२०) इत्यस्य सन्रस्य विधि- ` रूपत्वादव्याप्िः 'मननहेतुर्मन्नःः इव्युक्ते, त्राह्मणेऽतिन्याप्तिरिति चेत्‌ ? मेषम्‌ याक्िकसमाख्यानस्थ निर्दोपलक्तरत्वात्‌ तच्च समाख्यानमयष्टान- -स्मारकादीनां मन्तत्वं गमयति “उख भ्रथस्व, इत्यादयोऽचुष्ठानस्मारकाः ] .(अग्निमीके पुयोष्िवम्‌, ( + १।११ ) इत्यादयः स्त॒तिरूपाः ! शपे त्वाः (वा०सं० १।९ इत्यादयः शाखाकेदनादिस्मारकाः। "अग्न मायाहि वीतयेः .( खा० सं० १।१ ) इत्यादय आमन्त्रणोपेताः पवमन्येऽप्युदाहा्यः शदरशेष्वत्यन्तवि जातीयेषु लमाख्यानमन्तरेण चान्यः कथिदद्गतो धमोऽस्ति यस्य लक्षणभुच्यते तस्मात्‌ समाख्यानं मन्वलक्तएम्‌ ( जे० न्या वि० २।१।७ )

चादीनां निधाना गादिलठन्तणं पूर्वोत्तरपक्षादाह-- मन्त्राणां विशिष्ट. ऋकक्चामयज्ञुषां ख्चम साङ््यादिति शङ्किते लक्षणनिदेशः पादश्च गीतिः परशिलिष्टपार इत्यस्त्वसङ्करः

इद्मास्नायते-“अदेबुध्निय मन्व' मे गोपाय यथ्रपयस्त्रैविदो विदुः ऋचः समानि यञखूषि' इति बीन वेदान्‌ विदन्तीति चरिविद्‌ाः। निविद्‌ सम्ब्न्थिनोऽध््ेतारस्मरेविदाः ते यं मन्वभागश्रुयादिरूपेण निविधं वदन्ति तं गोपयेत्ति योजना चिविधानाम्‌ ऋक्सामयज्पां भ्यचस््थितं लक्षणं नादिति कुतः ? साङ्कयेस्य इुप्परिदरतवात्‌ अध्यापक- परसिद्धेषवृषेदादिषठ पठितो मन्त्र छछगादिरूपः इति दि वक्तव्यम्‌. तच्च सङ्ीसैम्‌ तथाहि 1 अग्नये शण्यमानायाच्रू दि, हविधांनाभ्यं भोहयमा- णाभ्यामनुत् हि इत्यादीनि यजंम्य्बेदे समाम्नातानि “देषो वः सवि- तोत्पुनात्वच््रेण पवित्रेण वसोः सूय॑स्य ररििमिभिः” ( वेग्सं° १।१।५।१ ) इत्ययं मन्ो यञेदे सम्धरतिपन्नयञ्धपां मध्ये पठितः तस्य यज्ष्टुव- मस्ति ऋग्रूपत्वेन तदुव्ाह्मणे भ्यवहतत्वात्‌ सावित्रयचंति हि ब्राहय- रम्‌ “पतत्‌ साम गायन्नास्ते” इति हि प्रतिज्ञाय, हाउ इत्यादिकं साम यजुवद गीतम्‌ `अश्चितमस्यच्युतमसि भ्राणसंशितमसि, इति चीशि यजंपि सामवेदे ( छा० उ० ३।१०६ ) समाम्नायन्ते तस्मान्नास्ति लच्ण- मिति चेच? न, पादादीनामसद्भीखेलक्षणत्वाच्‌ पदेवाद्धैचंनोपेता वृत्त.

कारावंखंहिताभाव्यीपंक्मणिकां १९१२

वद्धा यन्ना च्चः [गीतिरूपा मन्या खामानि | चरचमीतिवसिततव्वन प्रल्छिश्र- पठिता मन्ना यङंपि रति व्यवस्थितं खश्चलरम (ं०न्या० वि० २।६१।३६२)

मन््रानामचुष्य्या- प्रथमाध्यायस्य द्वितीयया मन्तेपष्वन्यद्धिचारितम्‌-- स्माच्््वप्रति- %मन्ना उद्धे प्रधस्वति किमट्र्ेकदेतचः 1 पादनम्‌ याचे छचपुसोडाश्रयनादेथ्च आसक्ताः त्राह्यरनापि तद्धानान्मन्माः पुरायंकदटतवः तद्धानस्य द्रष्रत्वाह्‌ द्रं वरमट्रष्रतः॥

“उद यश्यस्वः इत्ययं कच्थिन्मन्वः तस्याऽयमरथः-मो पुरोडाद्य त्वमुठ विपुलता च्या भवति तथा कपालघु ग्रलरः इति दीद्या मन्वा यागप्रयोनेबरू- च्वाय॑माणा अद्र्रमेव जनयन्ति, त्वथ॑ग्रकाग्ननाय तदुचारणम्‌ 1 पुमतेडा्त

थनलक्षाच्यंस् त्राह्यरावाक्यनापि मासरमानत्वात्‌ उर प्रथस्वेति पुरो- डां प्रययतिः इति हि जह्य णवाक्चमिति चत्‌ ? पतद्युक्तम्‌ थ्थप्रत्या- यनस्य द्र्प्रयाजचस्य सम्भव चति केवलादरण्टस्य कल्पयितुमदराक्यत्वाद्‌ तस्माद्‌ द्र्मथचिस्मरणमेव यागत्रयोन मन्बोचास्यस्य प्रयोजनम्‌ बाह्य - स॒वाक्यनप्य्याचुस्यरगसम्धव यन्वरोवानुस्मरणीयमिति यो नियमस्त- स्याद्रघ्रं परयाजनमस्तः ( जय स्या० वरि० १२ ) ]

नु मन्नायाचुष्रेयाधेस्मायक्त्वं कचिद्‌ व्ययिचरितस्‌ ! तथाद्ि- दिवा वा विष्ण उत्त चा परथिन्या मह्य वा चिग्णद्रुत वाऽन्तरिश्चाव्‌

हस्तां प्रणस्य बहभिकलुभिराप्रयच्छं दक्षिणादोत सनभ्याच्‌ 1 इत्यस्मिच्‌ मन्व धनस्वास्ते इत्ययमथः प्रतीयते अचुषटेया्थस्तु शकट-

वित्पस्यापनायाऽऽघास्भृ्काषस्थापनं, तन्तु वाद्या विधीयते "दिवो चा विष्ण उत चा पृथिन्याः इत्या्तीरेवयर्चा दत्तिणस्य हविर्धानस्य मेदं निहन्ति 1 नाऽयं दोपः अस्याधिकरणस्य लि ङ्धविनियोगविषयत्वाच्‌ उदाढतस्लु मन्यः श्रुत्या विनियुज्यते 1

मन्त्र्थरान ऋषिच्छन्दरो- पतेऽथस्मरणाय पयोच्तव्या मन्व खन्ति, तेषु द्वत्रानामाज्च्चकं सवप्ठ्रस्यादिकं वेदितव्यम्‌ अत एच दन्देगा वदनम्‌ छष्याद्यवद्ने वाधमभिधाय तदेदनविधिमामन- न्ति-भ्यो द्‌ वा अविदितावंवच्छन्दोदवतवाह्यरोन मन्य याजयति च्नरा- ऽध्यापयति बा स्यार चच्छँंति गतं चा पयते? इत्यादिसेदने चाधः तस्मा- देतात्रि मन्न विद्यादिति चद्नविधिः। था कात्यायनाऽऽचायिम्यरह--"“पतान्यविदित्वा योऽधीतऽचत्रते जपति यजते याजयत तस्य व्रह्म निर्वीयं यातयामं सवि ! जथ विकायै तानि योऽघीते तस्य वींवदू, अथ योऽथैवित्‌ तस्य चीर्यचच्तरं चचत्ति

११४ ` क्ायशाचार्यङतं -

जपित्व! इ्वेषरा तत्फलेन युज्यते” इति अस्यास्तु मन्तर्रोह्यणात्मिकायाः कारवश्चाखायाः सर्वस्या अपि स्वयम्भुत्रह्मारभ्य पोतिशाखापर्यन्ताः सम्ध- द्‌ायप्रवर्तका ऋषयस्तरिषु वंशब्राह्यणेषु मन्वधिरेषेषु स्पष्टमाम्नाताः 1 कार्ड- विशेषेषु भन्जविशेषेषु चाऽपेक्षितास्तत्तद्रषिविश्चेषा ब्राह्यणगताख्यायि- काभिरनुक्रमणिकादिग्रन्येश्चाचगन्तम्याः। तदक्ञानेऽपि वंशोक्तानाखपीणा- भवगतत्वादवेद्नप्रयुक्तो वाधो नास्ति 1 ऋषिविशेषाणामपि वि्ञाने फला- धिक्यमरि त। भत पव वीयंवत्तरं भवतीति कात्यायनवाक्यंपूर्वमुदाहतम्‌ छन्दस्तु मन्नाणाम्‌ इषे त्वादीनामनियताक्चरत्वाचास्त्येव ये तु यज्ञुष- मपि छृष्द इच्छन्ति, तैः कात्यायनोक्तसर्वांनुक्रमणिकायां पञ्चमाऽध्याथम- भ्यस्य दुद्धारेण तत्तन्मन्बच्छन्दोऽयसन्धेयम्‌ देवता तु मन्तप्रतिपादा सा मन्वलिङ्भादवगन्तव्या येषु मन्वेष्वद्यीन्द्रादयश्चेतनाः प्रतिपायन्ते तेप्वग्न्यादीनां देवतात्वं विस्पशम्‌ येषु तु मन्बेषु पलाशशाखावरहिंजुहा- दयोऽचेतनाः प्रतिपाचन्ते तेष्वपि शाखादिशब्द्ाभिधेयाः तत्त दद्रस्याभि- मानिनश्येतना देवता अवगन्तन्याः अतत एव भगवान्‌ वादरायणो शद्‌- बवीषापोऽनरुवन्नित्यादिष्वचेतनद्रग्येषु चेतनोचितव्यापारमुपपादयितम्‌, 'अभिमानिन्यपदेशस्तु ( वे° २।१।५ ) सूचयामास एवश्च सति, इषे स्वादीनां मन्त्राणाम्‌ ऋषिच्छन्दोदेवता यथोक्तनी्या ुवोध्राः 1 तस्माद्‌ ग्रन्थवाहुल्यमीरुभिरस्माभिः प्रतिमन्वं नोद्‌।हियन्ते विनियोगज्ञानाय तु प्रतिमन्ं कात्यायनसूजवाक्यमरुदाहियते मन्चार्थज्ञानाय काण्वसस्वन्धि- व्राह्मणं तत्र यत्र. यथासम्भवमुदाहसमः तद्थांववोधद्‌ादूयांय हाखान्तर- विषयमप्याऽऽपस्तम्वसुत्रं, बोधायनसु्, रैत्तिरीयत्राह्यणं कचित्कचि- , दुदाहरामः

दुशैयागात्पू्रं नियमेन दशयागं चिकीषुंरमावास्यायां भातनित्याथिदे्ं विधेया अनु्न- कृत्वा ततो दशैयागार्थ, "ममर वचं" इत्यादि भिमन्मे- विधयः वंहिष्ु समिदाधानरूपमन्वाध्रानं कृत्वा वत्सापाकरणं छर्या््‌ किमिदं वत्खापाकर्णमिति चेत्‌ खन्ति दशंयागे जीणि प्रधान- हवींपि, आग्नेयोऽष्टाकपाल, णेन्द्र दधि, रद्र पयः इति तर प्रतिपदि दधि होत्रं तस्य दध्नः संपाद्‌नायाऽमावस्यार्यां रात्रौ गावौ दोग्धन्याः। तदोहनाथं प्रातः काले लोकिकदोहनादूष्वं स्वमातृभिः सहं सश्चरन्तो वत्सा मातृभ्यो अपाकरणीयाः तदिदं वत्सापाकरणम्‌! एतश्च करवो महर्षिः स्वकीये तराह्यरे विधातुभिद्‌ वाक्यं पठति--“स वे परंश(खया वत्सानपाकरोति, इति तदेतटुपपादयितुम्‌ अथैवादे गायचीकृतं सोमारोहरममिधाय तद्‌ा-

{ १) जस्य सूत्रस्य शाद्भरभाप्यं सपतददाप्ष्ठ वमेवोपन्यस्तमल्मामिः तञ सनाद भिस्तग्रवात्रखोक्रलीयमिति ~“ - "^.

कराण्वसंदिवामाष्योयक्रमणिका ११५

हर्णवेलायां पञ्चिरूपाया गायन्याः प्रक्षचिशेपः सोमवर्ल्याः प्रण भूमा . चपरतच्‌ 1 तयोरन्यतय्त. पणंनामकः पलाग्वन्रक्ताऽश्रूत 1 अतः सोम- सम्चन्धाद्‌ गायचीसम्बन्धाच पलाशश्च: धशस्य इत्यभिधीयते 1 टं विधि . मेवमपसंहरति 1 पणं प्रचिच्छेद गायन्या वा सोमस्य वा रान्नरतत्‌ पतित्वा पर्णोऽमिवत्‌ तस्माच्‌ पर्णो नाम यत्‌ तत क्रिञ्चित्‌ सोमस्य त्यक्तं, तस्मात्‌ पर्शाखया चत्छानपाकरोतीति ! गायन्याः सोमादर्णं, कद्र वें सुपणा चेत्यादां तचिरीयत्राह्मणगता लवाके, "सोमो वे राजा गन्धवप्वासीत्‌ः इत्याद] वदव्रुचनत्राह्यण॒ प्रपञ्चि- तम ! पलागवृक्षस्य सोमसम्बन्धिपणां दुत्पन्नत्वेन च्रक्षजातिषु वाह्मणवत्त- तया प्रदास्तत्वात्‌ तदीयशाखया वत्सापाकरणं तित्तिरिः स्वकीयत्राह्मरोऽपि ए्पग्रमिव्थम्नवाच-~-“चतीयत्याभितो दिवि सोम आखीत्‌ तं गायच्यादहस्त्‌। नस्य परमच््यित्‌। तस्य पर्णोऽमवत्‌ तस्य पर्णस्य परत्वम्‌ व्रह्म पर परीम्र 1 यत्‌ परशाखया वत्सानपोकरराति बह्यरुवेनानपाकरोतिःः इति चाऽ सोमयच्स्याः पचमाचस्य कथं चक्षस्य सम्पचिरिति चिस्मेतन्यम्‌ चेधधातरीध्वग्स्याऽचिन्त्यशक्तित्वाच्‌ अन्यथा वीजादु चर्च इत्यापि, कछ रील, क्व वा च्रृश्च इत्ययं विस्मयः केन वायव सच पणभ्यो दृक् (खर्ज्यतेत्ययमतिन्रसङ्धो ऽपीश्वर्सखद्कल्पाभावेन परिहरैन्यः सङ्कल्पः ्रर्थैकसमधिगम्यः तस्माद्धेदाथं कुतकनं चोदनीयम्‌ तस्याः पर्णवर्- गाखायाण्टेदनेन पथममन््ं कात्यायनः स्वक्रयस्ूच इन्थं विनियङक्ते- र्णदराखां दिनच्ति शामीली येये व्वेत्युजं व्येति वा दिनद्मीति बवोभयो ताकाद्भव्वात्‌ खन्चम्रयामीति वोत्तर इति अस्याऽयमथः-पलाश्रशासखा 7मीगाखा चाऽत्र विकल्पिता तच्ैदने, श्ये वव््पँंजे त्वेति चेतौ मनवो वेकलिपततौ तयोद्मयोः क्ियापद्‌ाकःद्भत्वाद थाववोधाय दिनद्यीति दमव्यादर्वन्यम्‌ 1 सखोष्यमेकः पद्चः। दये त्वति छदना ऽर्थो मन्तः ऊर्जे परेति सन्रमना्या मन्यः 1 सखच्रमनग्नुजकरणम्‌ चदिद्‌ं पक्तान्तरमिति मूच ब्रौधायन उभयोर्वाच्ययोरेकमन्चत्वमाधित्य तं मन्नं ददने विनियङन्ते-- तामाद्िनचीषे त्वो व्वेतिः 1 आपस्तम्बस्तु तद्मिसन्धाय मन्तभेद्‌पश्चमपि तश्चिद्‌ाधित्य विनियोगमेदमाद-“खन्रयतः पलागश्नाखां शमीशाखां घा {रति द्रे त्वोजं व्वेति चामच्छिनत्यपि वेषे त्वेत्याच्छिनत्यूज त्वेति संनम- त्ययमारि वेति? खच्नयतः सान्नायनामकं द्धिरूपं दविः कुर्वत दत्य; कारवरिष्यास्त मन्वथदं चिनियोगभदं चाधरिव्येत्थमामनन्ति-तामा- व्छनचीये चेति वृष्य तदाद यदिषे ्वेत्यूर्ं व्वेव्यजुमाष्रि यतूचरष्ट्या ऊक सा जायते तस्मा एतदाह तस्मादष्दाजं त्वेतीति अस्यायमर्थ॑ः-तां शाखाम्‌ , उपे त्वेति मन्त्ेएाध्ययः साक्ल्यन दिन्यावत्‌ 1 दद कालेऽध्वर्यं पे त्चति यदू वाक्यमाह तद्वाक्यं बरृशिलिद्यम्‌ अधिकेनादरेण सेवते

११६. -धायंणचार्यङूतां

ऊजे त्वेति मन्तरेण वां शाखामयुखरज्यात्‌ अचुमाजेनमायुलीम्येनं तस्यां सं- लद्धरल्याद्यपनयनम्‌ यदि मभूताया वृष्टेः सकाशाद्‌ नीहियवा्यभिवृद्धिहे- वंरूजंशन्दाऽभिधेयः समीचीनजलात्मको रसो ज्ञायते, तदा प्राणिनासुपकारो भवति तदथमेवाऽध्वयुरेतदद्‌ क्िमादैत्याशङ्खय, तस्मादारोजं त्वेति बाक्येन तदेव स्पष्टीक्रियते इति 1 कारवाभिमत घव मन्वरभेदपक्चो जेमिनी- येरपि द्वितीयाध्याये प्रथमपादे इत्थं नि्णीतः- “दषे त्वादिर्मन् एको भिन्नो चैकः क्रियापदे असत्यथाँस्मारकत्वादेकाःद्र्टस्य कल्पनात्‌ छेदने माने चेतो विनियुक्तो क्रियापदे अध्याहृते स्मारकत्वान्मन्तभेदोऽथैमेद्‌तः ( जे० न्या० वि०२।१।१५) रषे स्वजं स्वा? ( वा० सं० १।१) इत्यत क्रियापाद भावेन “उस प्रथस्वः दति मन्नवदथैस्मारकत्वाभावाद्‌, द्रष्टा सत्येकाटरष्टस्य कल्पने लाधवा- देक एव मन्न इति चेत्‌ ? मेवम्‌ कारवव्राह्मरे चिनत्यलुमाट इति विनि- योगसेदश्रवणात्‌ , तदनुसारेण दषे त्वा लिलन्नि ऊजं त्वाऽजुमार्मि इति क्रियापदेऽध्याहते सति, अर्थद्वयस्मारकत्वाह्‌ भिन्नौ मन्त इति

इति शक्लयजुवेंदान्तमंतकारवसंहितायाः सायण॒ङृता भाष्योपक्रमणिका खमाप्ता

अः कन्तु + संहि

धरवर्वदसहतायाः सायणाचा्यदरता माव्यभृमिका

अथवेवेदसंहिताया भाष्यभूपिका

वागीशाद्याः सुमनसः स्वांर्थानासमुपक्रमरे

यं नत्या छृतच्च्याः स्युस्तं नमामि गजाननम्‌

यस्य निःध्वसितं बद्धा यो वेदेभ्योऽखिं जगत्‌

निर्ममे तमहं बन्दे विद्यातीर्थमदेश्वरम्‌

अविद्याधाद संतप्तो विद्यारख्यमहं भजे

यद्‌कंकरतक्षानामरण्यं प्रीतिकार्णम्‌

तत्कयाक्तेण तंदुदपं दृश्वतो वुक्कभूपतेः

अभृद्धरिदिसे राजा क्तीरज्धरिव चन्द्रमाः॥

विजितासतिघ्ातो बीग्श्रीदरिदहिरक्षमाध्रीशः

धर्मतरह्याध्वन्यः कलि स्वचयरितेन कृतथुगं र्ते साधयित्वा मदद सर्व श्रीमान्‌ हरिदरेभ्वरः

डने बहुविधान्‌ भोगानसक्तो रामवत्‌ खश्वीः

विजयी दरिदिस्भूपः समुदहन लकलमू भारम्‌

पोडगश मद्धान्ति दाचान्यनिशं सर्वस्य तृप्तये कुर्वन्‌ ७1

तन्मूलभूतमालोच्य वेदमाथवं राभिध्म्‌

धादिवात्‌ सायणाचायं तदर्थस्य धक्राश्नने॥ ८1

यर पूर्वोत्तस्मीमांसें ते न्याख्यायातिसंग्रहात्‌

करपरालुः लायणाचार्यो वेदां वच्म्यतः } £

व्याख्याय वेढचिचयमासुप्मिकफलप्रद्‌म्‌

पेदिकासुप्मिकफलनं चतुथं अ्याचिकीषति १०

तरम ^ = [ख्य चि (4 दधि क्रत्येपश्षितस्य क्रियाकटापस्य नच “यज्ञं व्याख्यास्यामः | सर चिभिवैदेविधी चग्यद्ुःसामवदरैसर सिद्ध- यते [ सत्या० सू०१।१] इति स्मरणा

त्वात्‌. श्तथर्ववदृस्य अम्यज्चुः साच्नामेव फलवः्कर्मशेषत्वम्‌ अवसी नास्त्येव उाकाेत्ति यते प्रदुमचोऽपि चयासामेच श्रूयते "रयो पूर्वः पक्षः चेदा अजायन्त, ऋग्वेद एवाग्नेरजायत, यच्चु-

वेदो व्रायोः, शामवेद्‌ वादित्यात्‌"” [ पे० त्रा० ५। ३२ ] इति ! “ऋचः समानि जक्िर ! यज्ञ॒स्तस्मादू जायत” [ १० ! &० 1 & ] इति

[3 ५॥।

१२० सायणाचार्यक्रता

संख्यानियमच श्रूयते “वेदैरशूल्यख्िभिरेति सूर्यः [तैण्व्रा० ३। १२। & 1 १] 1 “यम्‌ चछपयसखयिविदा विदुः चः सामानि यजुषि [ तै० ्रा०१।२) १२६] इति॥

धमविश्रेषश्रवणाच अत्वम्‌ अवगम्यते “उच्चैक्रौचा क्रियते उपाशच युपा उच्चः सन्ना” [सत्या० सू० १। १] इति "यदु वै यज्ञस्य सास्ना यजुषा क्रियते शिथिलं [ तदू ] यद्‌ ऋचा तद्‌ ढम्‌” [ तै° सं° ६।

५१०३ ] इति ते ऋणद्यो विस्तरेण व्याख्याताः अस्य तु वेदस्य

च्रयीन्यतिरिक्तत्वेन कमंशेपत्वाभावाहू व्याख्यानहिता

अथोच्यते ऋग्वेदेन होचमेव प्रतिपाद्यते, यज्ञुषा आध्वर्यवम्‌, साना ओद्धा्म्‌ इति बेदजयस्य रतिनियतभ्रयोगभ्रतिपादनपस्त्वात्‌ भवशि्र्ह्य-

व्यतांप्रतिपादक्श्चतथो बेदौ व्याख्येयः तदमावे यक्षशरीरस्य अनि. ष्पत्तेरिति मेवम्‌ उक्तेरेव निभिवंदः क्रत्वपेक्षितस्य ब्रह्मकतेन्यस्यापि सिद्धः 1 तथा एेतरेयनब्राह्मणे “यद्‌ ऋचेव हों क्रियते यञ्चषाऽऽध्व- यवं खाद्वा्रीथं न्यारब्धा चयी विद्या भवति 1 अथ केन ब्रह्मत्वं क्रियते इति अस्या विद्ययेति व्रयात्‌" [ एे० बा० ३३ ] इति स्मर्यते च-

“ऋग्वेदेन हाता कयोति सामवेदनोहुगाता यञवंदेनाघ्वयँः सरवे- रहा" इति

अतश्चतर्णौ होघ्रादीनास्‌ ऋस्विजाम्‌ अपेक्षितस्य क्रियाकलापस्य च्यैव सिद्धत्वात्‌ चतुर्थस्यं बेदस्याकाङ्ासिति कुतस्तस्य व्याख्यानचिन्तेति

ब्रहयकरव्यप्रतिपादनतात्पयैतया अवोच्यते ! होम्‌ आध्वर्यवम्‌ ओद्धाचमिति भवत्येव आकाट्धा व्याख्यान- समाख्यया चयाणामपि वेदानां प्रतिनियत- योग्यता चाथवैषेदस्ये- दोकादिकतंब्यश्रतिपादनपरस्वावगमात्‌ त्युत्तरः पक्ष ्रह्यकर्तव्यध्रतिपादने तात्प संभवति

यथा अन्यपरस्य यज्ञुव॑दस्य टदोवक्तव्यतायाम्‌ , यथा वा तथा- विधस्य श्रृश्वेदस्य अचिदहोते एवं च्य्यां त्न तच प्रतिपादितं यर्‌ ब्रह्मत्वम्‌ तदू श्रथवैवेदसिद्धमेव लेशेनोक्तम्‌ इति अतात्पयेविपय- त्वात्‌ भश्घत्स्नसवाच नादर्ीयम्‌ अक्खत्वमेव अभिप्रेत्य श्चाखान्तयोक्तं

हों नाचुणेयम्‌ इति आश्वलायनेनोक्तम्‌ “तद्ये केचन छान्दोग्ये वाध्वयेवे.

वा होजामर्शाः समा्नाता तान्‌ ऊु्याह्‌ भशृत्लव्वाद्धोचस्य” [आशव० & 1 १२] इति 1 अत एव वाङ्मनसनि्े्य॑स्य यक्ञशरीरस्य अर्ध॑मेव चिभि.- वेदेिष्पा्यते अर्धान्तरं तु अश्वंवेदेनैवेति श्रुयते “"प्राज्ञापति्य्ञम्‌ अतनुत ! ऋचैव हौत्रम्‌ करोहू यज्ञपाध्व्वं साश्नोद्धाचम्‌ अथर्वा द्वियोभिक्यत्वम्‌” इति पकरम्य “स वः पप िभिचेदेयन्ञस्यन्यतरः प्च संस्क्रियते ! भनसेच ब्रह्मा यक्ञस्यान्यतरं पक्षं खंस्करोति” [गो० त्रा० ३।ग]

खथच॑वद्‌भाप्यभूमिका १२१.

दरति पतरेयव्राद्यणऽपि चयीचिप्पाद्य पकः पश्चः मनोनिष्पार्यः परः पच्छ दति श्रवम्‌ } “ययं वे यक्षो योऽयं प्रघते तस्य वाच्च मनश्च वर्तन्यौ |.चाचा दहि मनसा यक्ोऽवर्तत | धर्यंवे वाम्‌] अदो मनः तद्र वाचा ध्रय्या चिद्ययेकं प्नं संस्कुःवंन्ति मनसव चह्या संस्करोति” [ ए० चरा ५। ३३} इति प्यवदेवाभित्रेत्य गोप्यत्राह्यसे पृचभामे पश्न्कम्‌ अथव॑विद्‌ ~ प्व ब्रह्मत्वम्‌ आश्चातम्‌ “अध [ | प्रजापतिः सोमेन यदयमाणो वेद्रान्‌ उवाच कं घो दयतारं च्रणीयम्‌ कम्‌ यध्वर्ुम्‌ कम्‌ उद्धातारम्‌ | कं ब्रह्माणम्‌ इति ते अनुः 1 ग्विदमेव दोत्तारं वृणीष्व ! यज््चिदम्‌ अध्व म्‌ लामविदम्‌ उद्वातारम्‌। वथर्वङ्येविदं दल्लाणम्‌ तथा दास्य यनः चतुप्पात्‌ प्रतितिरतिः? [गो० त्रा० २1 २४] इति तत्रैव वचिपच्तवाध्रथ्च श्रुतः ) ध्यश्चेदू नेवंचिद्‌ व्रह्माणं चरते दक्चिण॒त प्वेणां यक्रो सिच्यते [गा०्त्रा० २। २] इति शयथकरपान्‌ पुरूषो यन्‌. अनुभयचकरोवा स्था वतमानो भरेच च्येत्ति पवम्रेचास्य यचा भ्रेषं न्येति? ( मो० त्रा० २।२ ) इति 1

धस चिभिवरदर्विधीयतेः" इति स्छरतिस्तु उद्‌ाहतश्रुच्युलारेण सुख्यस्य अश्व विद्धोऽसम्भव्रे तत्तच्दुखास 'यावद्ुच्त्ह्मव्वमाचेणापि कतशसीर- निप्पन्तिर्बयति दव्येवमभिध्राया “चय्या चिचययेति व्यात्‌? (देग्ना० ५।२२) ट्र्ति श्रतिस्पि ग्रक्रवभ्याट्तित्रयापश्चत्याच् अविरुद्धा “थस्य महतो भूत्तस्य निःश्वसितम्‌ पतद्‌ यदू ऋग्वद यज्चवद्‌ः सामवेदरा्थरवाद्धिरसः", ( श्र॒° आ० ४1७1० ) इति बाजस्लनेयकश्रुत्यनुखारेण जयाणाम्‌ उत्परन्ति- श्रुत्तिः उप्रलश्चणदया व्याख्यया?

“वेदे रशल्यचिभिरेति सूयः उति श्रुतिः “ग्धिः पूर्वा” ( त° त्रा० २।१२।६।१ ) दति प्रृत्तकःलचखाभिग्रायेख वेदानां चतुण्रस्य सर्वच श्रुतत्वादू तथा चात्र तापनीयोपनिपद्विं यन्नायते “ऋभ्यः सामाथर्वाणच्यत्वासे वदाः ( चर० प्रू वा० १) इति। मुख्डके च~ “तचारा च्रम्वेदो यद्ु्वेद्‌ः सामवेदोऽथवेवेद्‌ः"' ( मु० ९। ९) इति

“यम्‌ ऋपयस्रयिविद्‌ा विदुः ऋचः साभ्रानि यजृंपिः?( तेन गा १।२।१।२द्‌ ) इति चैविध्यं त॒ वद्‌गतमन्नाभिप्रायम्‌ ` तदू उन्तं जेमि- निना--'“"तच्चोद्‌केषु मन्वाख्या? (ज० २।१।द२ ) प्तेपाम्‌ च्छ्रम्‌ यच्ाथेचश्रन पादभ्यवस्था (जं० २।१।३५ ) “गीतिपु सामाख्या? ( २।१।३द ) “यमे यज्छःशब्द्‌ः ( २।९।२७ ) इति 1 तद घर्मि- नपि वेदे विद्यत द्रति चतुष्रन्यत्कोपः।

उच््चैघ्रादिध्र्मनियमोऽपरि अनग्नेक्छरग्वेदो चायो्य॑ज्॒वंद्‌ यादित्यात्‌ साम- चद्‌ इट्य षक्रमवाकयगतवद्‌जयापेक्त इति विरोधः

नञ अरिमन्‌ वेदे मन््ाणाम्‌ ऋमाद्यक्तलक्चणयागात्‌ तदन्यतमन्यपदेश- भावत्वं युक्तम्‌ चेव दोपः} वथवाख्यन ब्रह्मणा द्र्रत्वात्‌ चननाम्ना अद्य

१२२ सायणाचायेरूता

वेदो व्यपदिश्यते तथा हि पुरा खलु खष्ट्य्थं स्वयंु ब्रह्म तपस्तेपे तस्मात्‌ तम्यमानात्‌ स्वेभ्यो रोमक्रपेभ्यः स्वेदधासा अज्ायभ्त तासु स्वेदजातास्ु अप्छु स्वां हायां पश्यतो रेतश्चस्कन्द तद्रेतः खदिता आपो द्विरूपा अभवन्‌ तत्रैकतः स्थितं रेतो भृज्ज्यमानं सत्‌ भगुर्नाप महषिर्मवत्‌ एव भृगुः स्वोत्पाद्कस्य तिरोहितस्य ब्रह्मणो : दृश्तेनाय अथर्वांग्‌ एनम्‌ एतास्वेवाप्स्वन्विच्छुः? ( गो० ब्रा० १।४ ) इति अशरीरया वाचोक्तत्वात्‌ अथववाल्योऽप्यमवत्‌ अवशिष्टरेतोयुक्ताभिरद्धि- रातस्य वरूणशब्द वाच्यस्य ब्रह्मणस्तस्य सरवभ्योऽङ्गभ्यो रसोऽत्तरत्‌ 1 सोऽङ्गरसभूतत्वात्‌ अङ्खिसा नाम महपिर्भवत्‌ ततस्तत्कारणं ब्रह्म तम्‌ अथ- वापर अङ्गिरसं चाभ्यतपत्‌ ततः एकच॑दुश्चादिमन्त्द्र्ासे विशति- खंस्याका अथर्बाणोऽङ्किरसश्चोत्पच्चाः 1 तेभ्यस्तेभ्य ऋषिभ्यः सकाशात्‌ स्वयंभु ब्रह्म यन्‌ मन्वान अद्रात्तीत्‌ सोऽथनाद्धिरःशाब्दवाच्यो वेदोऽमवत्‌ अत एकर्चादीनाम्‌ षीणां विशतिसंस्याकत्वाद्‌ वेदोऽपि विशत्िकारडा- समकः सम्पन्नः अत एव सवंसारत्वादू अयं वेद्‌ः घ्रष्ठः 1 श्रूयते हि-- “श्रेष्ठो हिःवेदस्तपसोऽधिजातो बहयज्ञानां हदये संवभूव (गोण््ा;०६।६)

“पतद्‌ वै भूविष्ठं बह्म यह्‌ भृग्वज्गिरखः येऽङ्गिरसः रसः येऽथरवांर्‌- स्तद्‌ भेषजम्‌ यदू भेषजं तद्‌ अगतम्‌ यद्‌ अष्टृतं तदू बह्म" =. ( गो० ब्रा०३।४ ) एवं सारभूतब्रह्ात्मकत्वा हू ब्रह्मकतेऽ्यश्रतिपाद्नाच अयं वरह्मवेद्‌ इत्यप्याख्यायते तथा श्रुतिः “भचत्वाये चा इमे वेदा ऋग्वेदो यज्चुवेद्‌ः सामवेदो बह्यवेद्‌ः" [ गो० ्रा० २।१६ ] इति 1 अत एव सारवत्वात्‌ सिद्धमन्तत समस्नाएयते--

तिथिनं नश्चचंन ग्रहो चन्द्रमाः।

अथर्वमन््रसम्प्रात्या स्वसिद्धिभविष्यति ( २।५ )

तथा स्कान्दे कमखालयखरडे आथचंणमन््ाणां जपमत्रेणाभिमतफल-

साधनत्वमुक्तम्‌-

यस्तजाथ्व॑णान्‌ मन्बान्‌ जयेच्छुद्धासमन्वितः 1

तेषाम्‌ अर्थोद्धवं कृत्स्नं फलं -पप्नोति धुवम्‌

अयेदोपत्रेदनिरूपणं अस्य वेदस्य सणवेदादयः पञ्चोपवेदा अङ्गत्वेन सम- , -पुराणादिषु तत्मशला- न्तरं ब्रह्मणा खाः तथा ब्राह्मणम्‌ 1 “स दिशो. वचनं ऽन्वक्षत प्राचीं दश्िणां पत्तीचीम्‌ उदीचीं धुवाम्‌ " ऊर्ध्वाम्‌" इति प्क्रभ्य दक्षिणा “पञ्च वदन्‌ निरमिमीत सपेवेदम्‌ पिशष्च- वेदम्‌ अखुरवेदम्‌ इतिहासवेदम्‌ पुराणएवेदम्‌ः' ( गो० ब्रा९ १।१० ) इति तदेवम्‌ आमुष्मिकफलेषु दशपूरमासादिपु अयनान्तेषु चयीचिहितकर्मसु अप्षिववं त्ह्त्वम्‌ अनन्यलभ्यत्वाद्‌ अथर्ववेदेकसमधिगम्यम्‌ इति स्थितम्‌

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१२४ .खायणाचार्यङ़ता

विविधमतोपन्यासपुरःसरं न॒ श्राव्वथांतिरेकिशीं भावनामेव नोपलभामहे भावनायाः सामान्य कस्या ध्ात्वथैः करणं स्यात्‌ ? कथंवा तस्या रश्षणनिख्पणम्‌ विभागः भाव्यनिष्ठो$भए्वकन्यापारो मावनेति चेत्‌? पचचियजिगमिप्रभतिषु धातुषु अधिश्रयणसंकल्पचलनाद्यो श्रात्वथां पवेति अतिरिक्तस्य अविकञ्यापारस्य असावात्‌ भ्रयलो भावकव्यापार इति चेत्‌ ? वृ्षश्चलति, काष्ठानि पचन्ति, नोति, इत्येवमादिषु अचेतनकर्ठैकव्यापारेषु तदभावात्‌ स्पन्दः इति चेतत्‌? 1 आत्मकर्तैक- व्यापारेषु यजतिदद्‌ातिखद्यो तीत्यादिषुः तद्भावात्‌ तहि उभयायुगतम्‌ ओदासीन्यप्रच्युतिसामान्यमेच भावकन्यापारो भविष्यतीति चेत्‌ ? न। अचेतने शब्दे स्पन्दप्रयल्लयोरभावेन तदुभयसामान्यरूपस्य तस्य अभावात्‌ सत्यम्‌ ध्रात्व्थाहू अत्थन्तातिरेकिणी भावना नास्तीति धात्वर्था नामेव पाको यागः प्रयलः संकटपः अधिश्रयणम्‌ विक्लेद्नम्‌. अमिधानम्‌ चोदनम्‌ इति पातिस्िकं धत्वसिधेयम्‌ अक्रियात्मकं क्िद्धस्वमावम्‌ एकः. रूपम्‌ सर्व॑धरात्वर्थानुगतं कयोतिप्रत्ययवे्यं क्रियाव्मकं साध्यस्वमावम्‌ अन्योत्पादनायुकूलात्मकम्‌ आ्यातप्रत्ययवेद्यम्‌ अपरं रूपम्‌ तथा हि यः स्पन्दते यो यजते यश्चरति यो विदधाति ते खवँ करोतिग्रत्ययमनु- मवन्ति स्पन्दते स्पन्दनं करोति, यजते यागं कसोति, श्येवं सवज कसरोव्यर्थस्यानुगतिः। तद्‌ उक्तम्‌ आचर्यैः-- सिद्धकर्वक्रियावाचिन्याख्यातप्रत्यये सति सामानाधिकरएयेन कयेत्यर्थोऽवगस्यते [ मी० भा० वि० २1११ ] श्वक्ेु वित्विययत्वरथषु उर्यपखवस्त्वस्तरत्कमेकम्‌ पतदेबःपर रूपं मवितुः प्रयोजकम्यापारत्वाद्‌ भावनेवयुच्यते तच यजेत दधात्‌ जडुयात्‌ इत्याख्यातप्रयोगेष्वेव अवगमात्‌ पाकः त्यागः सगः इव्यादिघु अनव्रगमाच अन्वयन्यतिरेकाभ्याम्‌ आल्यातम्त्ययासिधेयम्‌ अङ्गीक्रियते यथाहः-- असिधाभावनामाहरन्यामेव लिङादयः 1 अर्थत्मिमावना त्वन्या सर्वाख्यातेपु यम्यते [मीण्मा०वि० २।१।१] ये प्रयत्नं वा स्पन्दं वा उभयं वा भावनाम्‌ शङ्गीक्कवेते, तैरपि तेषां सर्वत्रानुगमाभावात्‌ खवध्ात्वथांठुगतम्‌ न्योत्पादनावुद्रलरूपमेव भावने- त्यङ्गीकतेन्यम्‌ पतदप्युक्तम्‌-- सिद्धसाध्यस्वभावाभ्यां धात्वर्थो द्विविधो मतः क) त्मा भावना खाध्यरूपिण तस्मात्‌ ध्वात्वर्थातिेकिणी भावनेति सिद्धम्‌

श्वाध्यायोऽ्चेतन्यः इत्यत्र सथा अध्ययनविधाचपि क्व्यप्रत्ययाचगताया विश्वजिन्न्यायेन स्वर्गं एव॒ भावनायाः अंग्ाच्रयेण भवितन्यम्‌ + - तत्र धात्वर्थः

त्रथ्वेद्रधाभ्यभूमिक्रा 1 ४.

अच्यवनवियनव्वः करणत्वच श्रन्वति 1 चाच्यायेन्तायाम्र्‌ धच तस्मा द्रति पूर्वः पक्ष चपातच्तन्वात्‌ “श्व स्वर्गः स्यात्‌ खवा. पत्यविदि- परत्वाच" [ ‰1६।१४ ¦ इति विण्वजिन््यावम स्वर्ग . र्व भात्यतया अन्वतीति पर्वः पश्वः ननु कथं स्वर्ग्य भाघ्यता ? खमनन्तरपदूपाच्चस्य स्वाभ्यायरस्यैच भाव्यत्वाद्र इति चतत्‌ ? न] तस्य धपुच्पार्थत्वन भान्यत्वा- म्भवात्‌ तदि थर्थकानमेव दरप्रयोजननयत्वाद् भाल्यं भवत्विति चच्‌ ? 1 विधिमन्तरेणायि पदपदा्थ॑घ्युत्पचिम्रवाम्‌ धध्रीतेन स्याध्यायन अर्थ च्ानस्य जायमानत्वात्‌ 1 नदि थध्ीननेव स्वाघ्यायन यथ जानीयाद्‌ इतिं थवप्रात्ताद्विवद्रु नियमार्था विधिभत्रन्विति चच न। अनारभ्याध्यीतस्य स्वाध्यायवियः यक्रन्वर्थत्वेन नियभार्यत्वदिपपक्तेः अवघ्रातदयोऽपि क्दाचय नियम्यन्त अयवघ्राच्निप्पच्नैगव वाग्ुत्तैः पुखटाम्तादिनिप्पाद्न- द्रा दर्प्र्ममास्ाप्रवं चम्पादयदिर्नि, तरड्नादिस्वस्ये अ्रमायान्तर- विरोधात्‌ मा भरत्‌ स्वाघ्यायस्य अन्यना। माच भद्र अयथयन्नाचस्य] नथापि व्यद आचाऽर्थीति पयसः क्रस्या थस्य वितरम्‌ स्वघ्रा अभिवहन्ति यद्र यकवि ध्रत्स्यक्रल्या यत्‌ सलामानि खाम्र पथ्यः पवन्ते] यद्‌ यथवा द्धिस्वा मधोः कस्याः 1 यद्रू चाद्यणानीतिद्ास्ान्‌ पगाकानि क्रन्प्राच्‌ गाश्ा नागागंलछीमद्र्वः करस्य धस्य पितुर्‌ स्वधा धञिवदन्तिःः (ने०भा०२।१०] इर्यव्यय्चं यक्रल्य पठिताथवादोाक्तयनक्न्यादिकमेव मान्यं भवत्विति चत ? ने ] चत्यापि व्र्ययदस्वाघ्यायमधिक्रन्य पटिचन्वन ग्रहणाध्ययनफलसखमप्क- त्वाचपपरचेः 1 तथापि यतिदयनः आत्तः अस्यापि प्तं भविन्यतीति चव? 1 अर्थवादस्य अनतिदेय्यत्वात्‌ तस्माद चरिश््रचिन्न्यायन।स्वगं ष्व प्ययनर्वि्वाच्यः | य्यद्टुः विनापि विधिना दरला्ाच्च हदि तदयवा कस्यस्तु विधिखामर्ध्याति. स्वर्गा विप्वज्जिद्‌ादिवच.॥

दष्ररयोजनेोरव्यावत्रौव अच्रोच्यते अर्थाववोधाशथव्रेव अध्ययनं विधीयते|

एवाध्यवनविद्र- नयु चद पदा्थव्युत्पचिमतां परंखां विधिम्‌ अन्वरेण्ापिं मन्यः दति प्ाचवाध्रा जायन इत्रि विष्यानयक्यम्‌ उ्युक्तम्‌ उत्तरः पश्च श््ति चन्‌ 1 चल्ययनसंस्छननेत्र स्वाध्यायन अथं

लानीयात पस्वक्ादिपयितेनदि नियमात्वाद् विधः | थक्रस्वर्थप्र निय- प्ायपपचिरितिं उक्तम इति चन्‌ 2 न] प्राङ्‌ मखोध्नानि अर्धतः दूल्यवमादिषु अक्रत्वशस्वधिं निव्रमद्रशनात.। व्रीहीन्‌ आश्नत्तिः इव्यादि- विधित्रन्‌. चंस््नरविध्रानमाचपयव्रसायित्वादर यवं विधिनं स्वाघ्यायस्य

{ १) अस्य युत्रस्य वावरमास्यं १०८ प्ट दव्यम्‌ 1

शरद खायणाचार्यरूता

` अर्थ॑ज्ञानार्थतां बोधयतीति चेत्‌ ? “चसम्‌ उपदधाति [ तै० सं० ५।६। २।५ ¡ इति चरोरूपधानविधिः संस्कारं विदधद्‌ यथा तत्संस्कृतस्य चरो स्थलनिष्पत्तिरेषतां विधत्ते, तद्धह्‌ अध्ययनविधिरपि स्वाध्यायस्य अध्ययन- सूस्करं विदधत्‌ तत्संस्छृतस्य तस्य अथांववोधाथंत्वं विधत्ते संस्कार- धिधेः संस्कारविनियोगपयन्तत्वेऽपि फलत्वाविशेषात्‌ स्वर्गता कुतो विधत्ते इति चेत्‌ ? अथांववोधस्य दषटप्रयोजनस्य संभवे अद्र्ठा- थेतरवकटपनाया अन्याय्यत्वात्‌ 1 तद्‌ उक्तम्‌-

छभ्यमाने फले द्रष्ट नाद्रष्रफलकल्पना } चिधेस्तु नियमाथत्वान्नानथक्यं भविष्यति

स्वाध्यायाध्ययनविधिविचारे पामाकारस्त॒- प्राभाकरमतं सविस्तरयुपन्यल्य उपनीय तु यः शिष्यं वेदमध्यापयेद्‌ द्विजः तत्य सप्रमाणं खण्डनम्‌ सकर्पं सरहस्यं तमचायं प्रचक्चते [ म० स्मु° २।१७० | इति स्खुत्यडुमितेन “उपनीयाध्यापनेनाचायेकं संपाद्येहू” इत्यनेन विधिना लभ्धावुष्ठानस्य “स्वाध्यायोऽध्येतन्यःः इत्यस्याभ्ययनविधेः अधिः कारपरत्वजञिन्ञासायां प्रथमपरतीतेन आचायेकाधिकारकत्वशाङ्कथ अन्तरद्ध- त्वाहू अ्ज्ञानाधिकारपरत्वमेव वयन्ति तट्‌ अयुक्तम्‌ आचायंकरणविधेरेव अभोवात्‌ ननूक्तम्‌ “उपनीय यः शिष्यम्‌? इत्यनया सस्खत्या उपनीयाध्यायनेन आचायंकं* भावये, दव्येवंरूप आचायंकरणविधिर मीयते इति तन्न एवंरूपायाः श्र तेः अनेवं- रूपया स्प्रत्या अनुमातुम्‌ अशक्यत्वात्‌ ! तथ( हि इयं स्मरतिः उपनीया- ध्यापयिता आचाये इति ववति पुनरध्यापनं विदधाति तद्विधाने योऽध्यापयिता "तम्‌ आचारय प्रचक्षते' इत्यंशेन एकवाक्यतावि रोधात्‌ नलु 'उपनीयाध्यापयेद्‌ः इति अध्यापनं विधाय विधिसिद्धमर्थं यस्तु, इति अनूध तस्याचा्त्वं प्रतिपादयतीति चेत्‌ ? 1 स्वारस्येन विधभ्यभ्रतीतो तदश्रयरेन वाक्यसेदकल्पनायां प्रमाखामावात्‌ तद्‌ उक्तम्‌-- : संभवत्येकवाक्यत्वे वाक्यभेदश्च नेष्यते कि ¦ शयोऽध्यापयेत्‌ः इति;यच्छब्दयोगोऽपि विधिशक्तिम्‌ अपहन्ति तदि “यदाग्नेयोऽएाकपालः [ ते० सं० २।६।३।२ } इत्यादावपि यच्छब्द योगात्‌ विधिशक्तिरपष्न्यते इति चेत्‌ सत्यम्‌ 1 तत्रापि यच्ुन्ददुत्तस्थ विधित्वभङ्गेन “यद्‌ च्रेयोऽष्टाकपालोऽमावास्यायां पोणेमास्यां चाच्युतो भृति सुव्स्य लोकस्याभिजित्यै” [ तेऽ सं० २।६।३।३] इत्यर्थवादेन “यत्‌ स्तयते तद्‌ चिध्ीयते इति न्यायेन परिकल्पितस्य अन्यस्यैव विधित्व- स्वीकारात्‌ तस्माद्‌ “उपनीय तु यः शिष्यम्‌" इत्यादि स्ृत्यमिता श्चति नाचार्यकरणविधौ पमाणम

अ्थवेदभाष्यभूमिका १२७

नु “अश्व ब्राह्मणस्‌ उपनयीत, तमध्यापयीत इत्यत्र नयतेः “संमा- लनोव्सक्चनाचार्यकरणज्ञानभ्रूतिविगणनश्ययेषु निय” [पा० अषटा० १।३।३६] इति आचायकरणे आत्मनेपदविधानाहू उपनयने साचायंकरणएविधिरपेक्षित ` एव इति चेत्‌ ? तद्‌ अयुक्तम्‌ पण्णा तु कर्मणामस्य जीणि कर्माणि जीविका याजनाध्यापने चेव विशिष्टा प्रतिग्रहः [ स० स्म० १०।७६ | इतिं उन्याजंनादर्थतयेच. प्रा्तस्य अध्यापनस्य विभ्यनदेत्वात्‌ ननु तथापि अलोकिकाचा्यकसाधनत्वेन अप्ाक्तस्याभ्यापनस्य विध्यनरैतेति चेत्‌? आचार्यकस्य लोकप्रसि्त्वाद्‌ अलोकिकत्वानपपत्तेः स्याद्‌ पतत्‌ “उपनयीत दत्यात्मनेपद्‌ात्‌ सनियमको पनयनशेषित्वप्रतीते आचायेकम्‌ अलोकिकमिति आचार्य॑कस्णे वर्तमानस्य नयते अकरत्रभिप्राये आत्मनेपद विधानादू उपनयनाचायेकयोः परस्परम्‌ अद्काङ्गि भावानुपपत्तेः अन्यथा “स्वरितजितः कत्रेभिप्राये क्रियाकले [ पा० अष्ा० १।३।७२्‌ ] इति जिचदेव आत्मनेपदे सिद्धे सम्माननादिसू्म्‌ अनथकं स्यात्‌)

- नयु क्रियाफलस्य करचंसिप्रायत्वं नाम॒ क्चैमिपितत्वं कितु क्त- गतत्वमेव अतः उपनयनक्रियाफलस्य माणवकनिष्टत्वेन अक्ब॑भिप्रा- यत्वाद्‌ अचार्यकरण, एव नयतेः आत्मनेपदं सिभ्यतीति चेत एवं सति “वसन्ता ब्राह्मणोऽग्निमादध्ीत"” [ तै० व्रा० ११1२६ ] इन्याधानफलस्य अग्निसंस्कारस्य अ्चिगतत्वेन अकचंभिप्रायत्वाहू “स्वरितनितः? इत्यात्मने- पदं स्यात्‌ उपनयनक्रियाफलस्य संस्कारस्य माणवकाभिलपि- तत्वाह्‌ जकरभिध्रायत्वम्‌ इति आचार्थस्यापि अभिलषितम्‌ आचार्यान भिल्लपितत्वे तस्य क्रियाफलत्वाचुपपत्तेः। हि क्रिथाजन्यं यस्य कस्यचिद्‌ अभिलपितं वा क्रियाफलं, कि त॒ कचमिलपितं सत्‌ क्रियाजन्यं क्रियाफलम्‌ अन्यथा श्र्नादिकमपि क्रियाजन्यम्‌ अहितस्य यस्य कस्यचिद्‌ अभिलषितं चेति (स्वर्गकामो यजेत इत्यादौ क्रियाफलस्य अकर्चमिप्रायत्वेन आत्मनेपदं स्यात्‌ अस्मत्पल्ञ इव भराणवकसमीदितसखाधनत्वेनैव उपनेतु उपनयनक्रियाफलम्‌ अभिलषितम्‌ इति भवतां मतं येन करियाफलम अकजभिध्रायं स्यात्‌ आचायेककामस्य अतत्साधने साणवकाधिकार समीदाुपपन्तेः 1 उपपत्तौ वा माणवकाधिकारस्यैव अभिलपितस्य प्रयो कत्वाट्‌ आचायंकाधिकारस्य प्रयोजकत्वं स्यात्‌ तस्माद्‌ आत्मनेषद्‌ा- देव क्रियाफलस्य अकयभिप्रायत्वावगतेमांणवकसमीहितसाधनत्वेनेव उप- नयनस्य प्रतीतिः

१७

१२८; | सायसाचायेकृता

नच “उपनीय तु यः शिष्यं वेदमध्यापयेद्‌ इति ऋत्वाभ्रत्ययेन आचायंकशेषत्वम्‌ उपनयनस्येति भन्तम्यम्‌ स्परतिगतो हि क्त्वाप्रत्ययः “समानकठृकयोः पृवेकाले" [ पा० अष्टा० ३।४।२१ ] इत्यचुशासनाद्‌ उप- नयनाध्यापनयोः समानकवृकत्वसेव आचष्टे ! तच्च अङ्ाङ्गिभावेनेव उपपद्यत इति उपनयनस्य अध्यापनाङ्गत्वप्रतीतिविलम्बेन भवति “वसन्ते बाह्यम्‌ उपनयीत” [ आप० ध० १।९।१।१६ ] इति द्वितीयाश्रुतिः पत्य्लश्चुति- गता तया द्वितीयाश्रुत्या इटिति उपनयनस्य उपनेयशेषत्वं प्रतीयते “श्ुतिस्ट्त्योविरोधे श्रततिरेव वलीयसी” इव्युपनयनस्य उपनेयशेपत्वमेव अङ्गीकठव्यम्‌ नु उपनयनम्‌ उपनेयशेषोऽस्तु तथापि उपनेयस्य आचा्य॑कशेष- त्वात्‌ तटूद्धाय उपनयनस्यापि तदङ्गत्वम्‌ इति चेत्‌? ! उपनेयसंस्कारस्य आचायकशेषत्वे उपनेयशेषत्वं च॒ सभ्रयोजनत्वाविशेषेऽपि पुरषान्तरगत- त्वेन आचायेकस्य बहिरङ्गत्वात्‌ पकयपुरुषनिष्ठत्वेन अभ्ययनस्यान्तरङ्गत्वात्‌ “अन्तरङ्गवहिर्ङ्योरन्तरङ्गं बलीयः” इति तस्य अभ्ययनाङ्गत्वमेव अङ्गी. कर्तभ्यम्‌ 1 यदि समानककैकेति विहितस्मातेकत्वाप्रत्ययवलादेव अन्तरङ्वं ष्यत तहिं भवल्पत्ते अध्यापनविधिपरतयुकतस्य अध्ययनविधेः किमधिका- रपरत्वम्‌ इति जिक्ासायापर्‌ “अधीत्य स्नायाद्‌” इति स्मा्तक्त्वाप्रत्यया- सुयेधेन भन्तरङ्गत्वयुक्तेरवाधात्‌ अन्तरङ्गाथ॑ज्ञानपरत्वं परित्यज्य आचायां धिकारत्वमेव स्यात्‌ तस्माहू अक्॑भिध्रायविदितात्मनेपदवला्‌ अन्तर्ग- युक्ते उपनयनम्‌ अध्ययनाङ्गम्‌ इृत्याचायंकस्य सनियमको पनयनशेषि त्वाभावाद्‌ नास्य अलोकरिकत्वसिद्धिः तदक्िद्धौ अन्यतः प्रास्य अध्यापनस्य आचार्यकशेषत्येन विध्यसिद्धिः कथं तरि “अध्यापयीतः इति विधिः ? “प्तयान्नायकामं याजयेत्‌” इतिवत्‌ भरयोजकध्यापारान्तगेतोऽपि विधिः प्रयोज्यव्यापारपरः इति ब्रुमः नद तत्र कामश्चुतिवलात्‌ कामिन एव विध्यपेश्चायां प्रथोज्यव्यापारपस्त्वम्‌ अस्तु 1 अत्र तु तद्भावात्‌ तत्परत्वं नेति चेत्‌ ? “निषादस्थपति याज्येत्‌ इत्यच कामश्चुतेरथावेऽपि द्रव्याजेनाथत्वेन अन्यतः प्राप्तं याजनं परित्यस्य प्रयोज्यभ्यापारस्येव अप्राप्तस्य विधेयत्वस्वीकायत्‌ एतेन उपनीय गुरुः शिष्यं महाव्याहतिपूचेकम्‌ वेदमश्यापयेहू पनं शो चाचारश्च शक्तयेत्‌ [ या० स्पर° १।१५ ] इत्येतदपि नाध्यापनविधिपरम्‌ इत्यवगन्तव्यम्‌ उपनीय ददद्‌ वेदम्‌ आचायः उदातः [ या० स्पृ° १।३४ ] इव्येतद्पिक्रियायोगमेव आचायशब्दाभिधेयम्‌ इति व्युक्तमुपदशंयति। तस्माद्‌ अध्यापनस्य विधिरेव नास्तीति प्रसिद्धम्‌ तदभावेन स्वचिं धिग्रयुक्ततेव अध्ययनस्य अभ्ययनसंस्छृतेनेव स्वाध्यायेन भरथं

#

अथववेद मान्यभूमिका ९२६ जानीयाद्‌ ईति विधच्चे इति कछत्स्नस्यापि वेद्‌ सयेधिवध्ितार्थत्वेन स्वतः- ध्रामारयाच्‌ तदन्तर्गतस्य च्याख्यानं कलं शुक्तमेवेति सिद्धम्‌

पदस्य स्वतः प्नासाण्यमित्ति वेदस्य स्वतः भरामाएयं चोव्‌नाघुत्रे आाचार्येरेव सिद्धान्तविपवरेऽभियुक्तानौ उपपादितम्‌ तत्र वहुधा विवदन्ते वादिनः विविधा विप्रतिपत्तयः! प्रामाण्यम्‌ अप्रामाण्यं उभयं स्वत इति सख्योः 1 उभयं परत इति ताकिकाः श्रामाख्यं स्वतः अप्रामारयं परत इति मीमांसकाः ! धघ्रामारयं स्वतः धामार्यं परतः इति सौगताः -

प्रामाण्यमप्रामाण्यं चोभयं॑ प्रामाण्यस्य स्वतस्त्वं नाम का्य॑कारणादेव कार्येण स्वत इति सांख्यानां सह उत्पत्तिः अच्र सांख्या एवं प्रतिपादयन्ति मतम्‌ स्वतः अखताम्‌ असाध्यत्वाद्‌ उभयं स्वत इति 1 तच

मारं यदू खद्‌ तन्न क्रियते, य्था शश्शविपाणस्‌ | कारकव्यपाराव्‌ पूवं कार्यम्‌ असच्चैत्‌ तरि [ क्रियेत ] क्रियते अतः खदेव पूर्वमपि यपि कार्यं कारणेन भराक्‌ खम्वद्धम्‌ थसखम्बद्धं चा 1 सम्वदुध्ं चेद अखतः खम्वन्धाञुपपनचचेः प्रागपि सदेव कार्यम्‌ असम्बद्धं चेत्‌ ? इदमेवास्य कारणम्‌ दृद्मेचास्य कार्यम्‌ इति नियमने स्यात्‌ असनत्ताऽसम्वन्धयोर- विशेषात्‌ यथाटुः-

असखान्ारित सम्बन्धः कारकैः सससङ्धिथिः। असम्बद्धस्य चोत्प्तिमिनच्डतो व्यचस्थितिः॥

किच क्रारणादहू्‌ अभिच्त्यात्‌ कार्यस्य पागसच्ं नोपपद्यते तथा हि तन्तुभ्यः पटो न_ भिद्यते तत्कार्यत्वात्‌ यद्रू यतो भिद्यते नत्त तस्य कार्यम्‌ यशा गोरश्वस्य तन्तुका्यं पटः 1 तस्मात्‌ तन्तोनै सिद्यते यद्‌ यतो धियते तस्य वेन खद संयोगः अप्राद्धिवां स्यात्‌ यथा कुर्डवदस्थो- मंर्विन्ध्ययोवां हि परस्य तन्तुभिः खह तद्‌ उभयम्‌ गसिति तस्माद्‌ तन्तुभ्यो भिद्यते पट इत्यभेद्‌ सिद्धेः काय प्रागपि सदेव इति सिद्धम्‌

१) तथाहि श्छोकवातिके अट्कमारिट्पादैः प्रतिपादितम्‌--

स्वत्तः सत्र ग्रमाणानां प्रामाण्यमिति गम्यताम्‌ 1

नहि स्वतोऽखती शक्तिः करठैमन्येन शक्यते :{ छो. वा. १।२।४७ ) ` (२) ग्रामाण्याग्रामाण्यसिद्धा्तविषये अयमत्र विचिधविधमतर्यभपः प्रदर्शितो ञेमिनि-

दर्गाननिरूपणप्रसद्धं 'सर्व॑दर्नसंग्रहकारिणः--

प्रमाण्त्वाप्रमाण्त्वे स्वतः सांख्याः समाभ्निताः।

नैयायिकास्ते परतः सौगताश्वरमं स्वतः

प्रथमं परतः प्राहुः प्रामाण्यैः रेद्वादिनः !

प्रमाणत्वं स्वतः प्राहुः परतश्चाप्रमाणताम्‌

१३० सायणाचार्य॑ङता

पूर्वोक्तस्य साख्यमवस्य अत्र वरम; क्रियमाणत्वं सस्वसाधनम्‌ 1. समीक्षा भस्वेऽपि तस्योपपत्तेहंतोर्विपक्षाद्‌ व्याचर्तेः खन्दिग्धत्वात्‌। त्था हि। नहि खतो घगदेः क्रियमाणत्वं द्रष्टम्‌ इतकरणएव्यापाराुपपन्तेः नाप्यलतः क्रियमाणत्वम्‌ अयुपपन्नम्‌ इति प्रागसतोऽपि घटादेः सामप्रयां सत्याम्‌ उत्पत्तिदर्थनात्‌ यदप्युक्तम्‌ कारणेन असम्बद्धस्य कार्यस्योत्पत्तौ इदमेवास्य कार्यम्‌ इदमे

वास्य कारणम्‌ इति नियमायुपपत्तिरिति तदप्यपेशलम्‌ किंचिदेव कारणं कस्मिथिदेव कायं शक्तम्‌ इति शक्तितो नियमेन सिद्धेः राक्यव्यति- रेकेण शक्तिरेव नास्तीति वक्तव्यम्‌ अथम्‌ अिः अद्धिष्टावीन्धियाश्चयः करणत्वाद्‌ गुशूत्वाश्रयवदिति तत्सिद्धेः

नापि शक्तिरपि शक्येन असस्चद्धा कायंकारणभावस्य नियामिकेति वाच्यम्‌ शक्ताश्रयायाः शक्तश्च प्रतिनियतशक्यायुकटस्वभावत्वात्‌ अन्यथा सत्कायवादपत्तेऽपि प्रधानो पाद्‌ानच्वस्वीकासत्‌ स्वस्य जगतः सर्वं सर्वस्वरूपेण सर्वत्र खचंदा सदिति विवेकटदेतोरभावात्‌ इदमेवास्य कार्यम्‌ इदमेवास्य कारणम्‌ इति नियमो स्यात्‌ 1 नज सर्व॑ सर्वदा कार्यस्य सच्वाविशेषेऽपि तत्तदभिव्यज्जकसामथ्यंनियमात्‌ तत्तदसिव्यक्ति- नियमो भविष्यतीति चेच्‌ ? धवं तहि अस्मत्पत्ेऽपि तत्तदुत्पादककारण- सामर्थ्य नियमात्‌ तत्तदसत्कार्योत्प्तिनियमसिद्धिः

यत्‌ पुनः कायस्य कारणाद्‌ अभेद्खाधकम्‌ अनुमानम्‌ , तदपि तन्तु- परयोः प्रत्यन्ते मेदोपलम्भात्‌ पत्यक्षविसद्धकालात्ययापदिष्टम्‌ अपिच कारकव्यापारात्‌ प्रागपि कारणे कायं सत्‌ स्यात्‌ , तहिं कारणे कार्यम्‌ उपलभ्येत चोपलभ्यते तस्माद्‌ असदेव प्रागपि सदेव कायैम्‌ अभि- व्यक्तेरमावाद्‌ नोपलभ्यत इति चेत्‌ ? किम्‌ इयम्‌ अभिव्यक्तिः प्रागपि सती उत असती 1 सती चेत्‌? भाभपि केवरुतन्तुष्वपि तया पटस्योपलच्धिः स्यात्‌ असती चेद्‌ ? असत्या पव तस्याः पश्चादुत्पत्तिस्वीकारात्‌ तद्वत्‌ सर्व॑स्याप्यसतः कार्यस्योपपत्तिः कि नाङ्गीक्रियते क्रियेत इत्यलमति- प्रसङ्घेन तस्मात्‌ सत्कार्यनिषेधात्‌ श्रामाण्यप्रामाण्ययोरुभयोरपि स्वतस्त्वे किंचिदेव प्रमाणं प्रमाणमिति व्यवस्थापपत्तेश्च नोभयं स्वतः

५अप्रामाण्यं सतः, प्रामाण्यं अपितु अप्रामाण्यं स्वतः, प्रामर्यं परत इति परतः इति सौगत. अपरे मन्यन्ते तथा हि 1 यदि प्रामाण्यं स्वतो- सतोपन्यासः ऽवसीयेत, तहि एकतरकोटि निारणात्‌ इदं परमा- णम्‌ अप्रमाणं वेति संदिद्येत 1 अन्यथा सवत्र संदेहस्योपरमो स्थात्‌।

अतः कारणगुणक्ञानाह्‌ अथक्रियासंवाद्‌ाद्‌ वा प्रामाण्यनिश्चयः नतु आद्रावेव अ्थंतथात्वानिश्चये उत्तरकालीना प्रवृत्तिः कथं

अथर्ववेदभाभ्यभुमिका १६१ |

जाघटीति तदुत्तरकालीनस्तननिश्चयो वा कथम्‌ तद्भावे कथं प्रासारयनिश्चयः इति चेत्‌ ? ! छष्यादाविव अ्थ॑संदेहादपि भवृत्युपपत्तेः ! पचृत्तस्य अथक्रियोपलब्धो पूर्वावगतस्य अथक्रियाकारित्वं सत्यं निश्पीयते इति तद्धि षयस्य पूर्वज्ञानस्यापि तदथंसम्बन्धित्वेन पश्चात्‌ प्रामाण्यं निश्चीयते यथोक्तम्‌- तस्मिन. सदपि मानत्वं विनिश्चेतं शक्यते ! उत्तरार्थक्रियाज्ञानात्‌ केवटं तत्‌ प्रतीयते नैवम्‌ अथक्रियाज्ञानस्यापि स्वविषयाथक्रियापरिनिश्चये परपेश्चा येनः अनवस्थः मवेत्‌ ! तस्य फलरूपत्वात्‌ 1 फलाथं चा सवं करिष्यते फलम्‌ अन्याथेसिति अतः स्फुटाविकल्परूपत्वाच अथक्रियालज्ञानं स्वत एव स्वविषयतथात्वावधारकं प्रयाणं चेवं प्रासाण्यावगसस्य पचृच्यज्गत्वात्‌ पचरुत्युत्तरकालम्‌ , अथक्रियानिणंयो निष्फल इति वाच्यम्‌ क्ञानान्तरेषु निःशङ्कप्रचुत्यथं विसंवादिज्ञानव्यावृत्तप्रमारप्रतिवन्धरूपवि- शेषाकलनाय श्रवृच्युत्तरकालमपि निख्यस्योपयोगात. 1 भच्त्तावभ्यास- वत्याम्‌ आशद्यज्ञाने फलस्यःप्रतीत्तावपि अथेक्रियारूपं फलमिति विषयी- ङुवैतो विज्ञानान्तयाद्‌ विसम्वादिभ्यो व्याड्त्तं॒वैलत्तरयं भ्रतीयते \ यथोक्तम्‌- बुत्तावभ्यासवत्यां तु वैलक्षण्यं प्रतीयतते 1 अतद्धिवय विज्ञानाद्‌ आेऽप्राप्तेऽपि तत्फले तस्मात्‌ सरिति निःलङ्कपर्चचिरयि तञ विखम्बादिव्याचरत्तप्रमाणप्रति चन्धरूपविश्रेषलिङ्काद्‌ अयुमानादेचेति स्वतः प्रामारयावगसः

अनुरूपोपपत्तिभिः पूर्वोक्तस्य अच्ासिधीयते इन्तेः प्रामार्यम्‌ अ्थयाथाथ्यं-

सौगरतसतल्य निरासः निश्चयाद्‌ मवतु ! तन्निश्ययस्तु गुणज्ञानात्‌ संबा- दादू चा इति यद्‌ उक्तं तच्च सष्यामहे परमितिसाधकतसत्वं हि पामा- रायम्‌ 1 परमिलिश्च अनलधिगततथासूताथावधारणम्‌ 1 नन्वेवम्‌ इन्दियदे- रेच प्रामाण्यम्‌ , ज्ञानस्य तस्यावधारणरूपत्वेन अवधारणन्तरसाधक- तमत्वाञुपपचेरिति चेत्‌ ? 1 द्विविधं हि अवधारणम्‌ ज्ञानरूपं पाकस्यरूपं चेति ! तज अनधिगततथाभूतार्थगोचसरत्वेन ज्ञानस्य प्रासारएयम्‌ तथा अनधिगततथामूतष्थीवधारणं पमितिः 1 तत्साधनं ज्ञानं प्रमाणम्‌ तद्भाचः प्रामाख्यमित्ति नाशब्दार्थैत्वम्‌ अतः प्रमित्तिलक्तणवाक्यगताचधारण- शाब्देन ज्ञानधाक्य्ययोः कार्यकारणमवेन अदुरविषरछृष्टयोरेकरूपपासारय- स्युत्पस्यशं तन्तरेणो पाद्नम्‌ 1 शक्ती प्रमाणाग्रमाणगोचरे प्रामारयाणा- माख्ये ते तथाभूलेऽयम्‌ अथैः इत्येवं रूपात्‌ तथात्वावधारणाहू अतथा- भूतोऽयमथै इत्येवंरूपाद्‌ अतथात्वावधःरणाच्च चकास्तः तच तथा-.

१२२ , खायणाचार्यरता

भूताथाचधारणम्‌ अर्थक्रिया क्ञानादिलक्षणपरानपेश्चत्वेन . ज्ानस्वरूपमातरा- ध्रीनम्‌ तद्वसेयं प्रामारयं स्वतोऽदसखीयत इत्युच्यते ! तथाभूतावधारणं तु ज्ञानस्वरूपमात्राधीनत्वेऽपि कारणदोषावगमादिलक्षणएपरपेक्षम्‌ इति तद्वसेयम्‌ अप्रामाण्यं परतोऽवसीयत इत्युच्यते अतथाभूतावधार- णमपि ज्ञानस्वभावाधीनम्‌ प्रमवाधयोरसंभवभ्रखङ्ात्‌ हि शुक्तौ रजतम्‌ अतथाभूतमिति गोचरयतो ज्ञानस्य भ्रमत्वं वाधसम्भवो वा तस्मात्‌ क्ञानस्वभावाधरीनभरपि अतथाभूतत्वं कारणदोषावगमादू वाधक पत्ययाह्‌ वा परत एव निश्चीयते इति अध्रामाएयं परत एवेति सिद्धम्‌

अप्रामाण्यं प्रामाण्यं चोभय- अपरे पुनः पतदण्यसहमाना अप्रामारयवत्त्‌ मपि परत एवेति वदतां प्रामाण्यमपि कार्णगतगुरक्ञानात्‌ सम्बाद्‌ाट्‌ ना तारकाणां मत- परत एव ज्ञायत इति बणंयन्ति साधयन्ति प्रतिपादनम्‌ तथा हि ! प्रामाण्यं परतो ज्ञायते अनभ्यास्त-

दशायां सांशयिकत्वात्‌ अप्रामाण्यवदिति नैतत्‌ साधनम्‌ 1 अस्मन्मतेऽपि तथाभूतोऽयम्‌ अथं इत्येवंरूपावधारणात्‌ परत एव प्रामारएयं निश्चीयत इति सिद्धसाधनत्वात्‌ ! ननु क्ञक्षावनयपेक्षत्वेऽपि उत्पत्तौ परपेक्तास्ति तथा हि)

यदि ज्ञानहेतुमाचधीनं प्रामाण्यं भवेत्‌ तहि भरभाणपरिज्ञानम्‌ अप्रमरं भवेत्‌ प्रामाण्ये कारणाभावात्‌ 1 तथा सति क्ञानमेव स्याट्‌ घटादि.

चत्‌ ननु दोषाभावस्य भरामाणयकारणत्वात्‌ सति दोषे तदभावाद्‌ ना-

तिभ्रसङ्ग इति चेत्‌ तहि दोपाभावम्‌ अधिकम्‌ आसाद्य भामारयमपि

जायते इति कथं ज्ञानहेतुमाजजन्यत्वं तस्य नयु दोषाभावस्य प्रानारय-

हेतुत्वेऽपि शणस्य प्रामाण्यं परति अहेतुत्वात्‌ तदभावेन वेदानां स्वतः-

भ्ामाण्यं सिध्यतीति चेत्त तहि गुणस्य प्रामारयदेतुरवेन दोषाभावस्य तव्‌-

देतत्वात्‌ तद्धावेऽपि गुणामाचाद्‌ अध्रामाण्यमपिं वेदानां प्रखज्येत ! दि

गुणदोषयोः परामारयाप्रामारये प्रति अन्वयन्यतिरेकयोविशेषम्‌ उपलमा-

मरे \ तस्माद्‌ उभयमपि परत इति सिद्धम्‌

ताक्षिकमतनिरसन्पुरःसर अ्रभिधीयते का्यशक्तेः असति वाधके कायंका- प्रमाण्यं स्वतोऽप्रामाण्यं रणादेव कायंण . सह उत्पत्तिरज्ीक्तव्या अन्यथा परतः इत्ति बहिगताया दाहकत्वशक्तेरपि कारणास्तयादैव - मीमांसकमूरधैन्यानां उत्पत्तिः स्यात्‌ तथा उत्पत्तिश्च तस्य दाहकत्वं

सिद्धान्तनिणैयः स्यात्‌ वहश्च स्वाश्रयं दहश्नेव जायते 1 तत्‌ सिद्धम्‌ प्तत्‌ स्वत पव प्रामारायामिति अपरामाख्यमपि स्वत प्वास्त्विति मन्तव्यम्‌ तस्य दोपान्वय्यतिरेकाजुविधायित्वेन ज्ानरेतु- मात्रजन्यत्वाभावात्‌ स्याद्‌ पतत्‌ यदि -छानदेतुमाचाधीनं भ्रामारयं

अथ्रवेदभाष्यभूमिका १३३

भवेत्‌ , तदि स्तेरपि भ्रामारयं स्यात्‌ तद्‌ प्रामारएयशब्देन तथाभूता- थाविश्रारकशक्तेरेव विवचनितत्वात्‌ तस्या एव॒ ज्ञानहेत॒माचरशव्दाधीन- त्वसमर्थ॑नात्‌ 1 अन्यथा नेयाचिकमतेऽपि अप्रामाख्यस्य दोपाधीनत्वाच्‌ तद्भावे स्यताचपि 'प्रामारयखम्भवधसङ्गात्‌

यत्‌ पुनः पमान्ञानदेत्वतिरिक्तदेत्वधीना कायेत्वे खति तद्विशेधत्वात्‌ यप्रमावत्‌ इत्यजमानम्‌ 1 तद्‌ असाधकम्‌ 1 प्रमा युणदोपयोरम्यतराधीना भवति ज्ञानत्वात्‌ अधमावत्‌ , इत्यनेन अदुमानेन निर्विश्ेपरहे त॒जत्वेन शीघ्रभ्रनरृचेन विम्तेपविपयत्वेन प्रबलेन बाधितविपयत्वात्‌ नस्य सविगरेधरादे व॒जव्येन!विलस्वितपन्रत्तत्वादू दावेल्यम्‌ तस्माद्‌ उत्पत्ता- वपि न्षानहेत॒माचाधीनत्वेन भ्रामाएयं स्वत एव अप्रामाण्यं तु दोषाधीन- त्वात्‌ परत उति सिद्धम्‌

ततश्च वेदानामपि अपोख्पेयत्वेन शब्दगतरुणद्रौपाणां शङ्ुमपि अदराक्यत्वेन छतां स्यत एव प्रामारायमिति निरवद्यम्‌

वनिल्पगाष्रसरे स्याद पवं यदि वेद्रानान्‌ अपौस्पेयत्वं भवेत्‌ तदेव शौरये प्रदाः असिद्धम्‌ तथा हि वेदवाक्यानि पां खुयेयाणि वाच्यत्वात्‌ इति पूः पञ्लः यदू उक्तसाध्रनं तद उक्तखाभ्यम्‌ यथा भारतादिवाक्यम्‌।

उक्तखाधनानिं वरेदर्ाक्यानि तस्मात्‌ पार्येयाणि वेदवाक्यानि पोस- पेचत्वं नाम्‌ स्वतन्त्रपुरुपपृदेकस्वम्‌ जमिमतम्‌ अतः करमवन्ता वणाः पदम्‌ करेमबन्दि पदानि वाक्यम्‌! क्रमश्च नित्यवणेषु स्वत एवासम्मवात्‌ उच्वारण- क्मनिवन्धन पव ! उच्चारणक्रमश्च पुरपप्रयलंसाभ्य पवेति वेद्चाक्यान्यपि कमवच्ेन पुरुपप्रयलनिष्पादयान्येवेति सिद्धसाभ्यत्वं वदताम्‌ अनवकाश एव| नलु किमच् साश्ात्स्वतन्युल्पपृवैकत्वं विवक्षितम्‌ खाहोस्वित्‌ परस्पर या ? नाऽ्चः ! इदानीम्‌ उच्चायंमारेषु चाधितविपयत्वात्‌ अयुचक्वपरणीता- स्मदादिवाक्येषु अनैकान्तिकत्वाच नापि द्वितीयः साक्चात्स्वतन्तरपुरपभ्री वेयु अस्मद्‌दिंवाक्येपु अनेकान्तिकत्वादिति चत्‌ ? मवम्‌ 1 खा्चत्परम्परा- त्वयोः परस्परन्ययिचाटेऽपि साश्चत्पस्म्परात्वयोरन्यतरस्येवात्र विवश्चित- त्वात्‌। थन्यथा भारतादिवच््यान्यपि यानि छष्णद्धेपायनादिना सानलात्‌ प्रणीतानि तानि प्ररम्पस्या, यानि परम्परया तानि साक्षाच्‌ इति उभयासु- गतपांस्पेयत्वामावेन अन्यतरस्य अपौख्पेयत्वप्रसङ्ात्‌ तस्मादु यदू वास्यं तत्‌ साक्षात्‌ परम्पस्या वा स्वतन्त्पुखपपूवकम्‌ इति साधयतां कचिद्‌ वोधो व्यमिचारथचेति सिद्धं वेदाः पाँर्येया इति

१३४ -सायणाचार्य॑ङृता

- पूवैमतनिरसनधूवक तद्‌ ` इदम्‌ श्रसम्सम्‌ तथा हि सक्षत वाक्येषु 'अपोस्पेया वेदाः इति वबृद्धव्यवहारावगतपद्‌ पद्‌एथंसम्बन्धस्य चक्षुरादि मीमांसकानां प्रवरतर- जन्यतत्तत्पद्‌एथंविशेषविषयपरस्परविलप्तणकत्षशिक- युक्तिभिरपोदूबर्तिः ज्ञानवतः हारीरिण पव स्वतन्नकठैत्वं द्रष्टमिति उत्तरः पक्ष वाक्यत्वं तादरशकरैत्वेन न्यां सत्‌ स्वव्यापकं पत्ते साधयत्‌ स्वाभिमतप्‌ अशरीरिकवतैकत्वं विरुणद्धीति विशेषविरुद्धत्वात्‌ हेतोः चास्योत्तरस्य उत्क्षसमायाम्‌ अन्तर्भावः सवज वाक्यत्वस्य हेतोः शरीरिकटठैकत्वेन व्याप्ततया द्ष्टत्वात्‌ स्थाद्‌ एतत्‌ भर्तु तदहि अत्रापि अनित्यज्ञानेच्छादिमतः शसीरिणि पव कतेत्वमर्‌ योग्याजुपलव्धिवाधः चिस्तृत्ते कतरि उपरन्धि- योग्यस्वस्येव अभावात्‌। एतदपि चतुस्वेतसां चेतसि चमत्कारं पाश्चति। अपसिद्धान्तापातात्‌ ! किं यदि वेदवाक्यानां शरीरो कत स्यात्‌ तस्य चिरचरत्तत्वेन उपलबन्भ्यभावेऽपि असो स्मृतिपथमवतसेत स्मर्यते ! तस्मान्नास्त्येव कतंति निश्चीयते स्याट्‌ एतत्‌ केनचिह्‌ अस्मरणं वा हेतुः आहोस्वित्‌ सर्वेरस्मरणम्‌ नाऽऽ; देवदत्तेन अस्तस्यापि धरस्य विष्ण॒मित्रगृहे विद्यमानत्वात्‌ 1 नापि दितीयः जेमिनीयैरस्मरणेऽपि कणादाश्चचरणपश्चिलमुनिपक्चपातिमि स्मथमाणत्वाह्‌ इति 1 तदीयेरपि बृद्धव्यवहारावगतपद पदार्थ॑सम्ब- न्धस्य तद्रथेविषयविरत्षणक्षणिकचक्षुरादिंजन्यवेदनस्य मातापितृसम्बन्ध- प्रसूतपाथिवशसीरस्य कलठरसमरणात्‌ तदेवं वेदवाक्येषु यार शस्य स्वतन्ञ- पुरुषस्य ते स्मरन्ति ताद्रशस्य वाक्यत्वम्‌ अस्मत्परिपन्थित्वेन व्रिरोध- कम्‌ जेमिनीयेस्त्‌ सवैः स्मरत सोग्यस्यापि अस्मरणादू योग्यस्पृत्युद्य पव चाघ्क इति वाक्यत्वं हेतुः विरुद्धसमर्तसविशेषत्वेन स्वतन्तयुरूष- पूर्वकत्वमपि साधयितुम्‌ असंमथं इति सिद्धो विशेषविरोधस्तस्य स्याट्‌ एतत्‌ "अनन्तरं वक्त्रेभ्यो वेदास्तस्य विनिःखृताः ।” ५“क्रृश्वेद्‌ एवाग्नेरजायत, यलुवंदो वायोः, सामवेद आदित्यात्‌ [ एे० ब्रा० ५।३२ ] ! तस्माद्‌ यज्ञात्‌ सवंत ऋच सामानि-जक्लिरे छन्दांसि जक्निरे तस्माद्‌ यज्स्तस्मादजायत्‌,, [ऋ० १०।६०।६] इत्यादयो वेद्‌कारणवाद्‌। वेदस्य पोर्येयत्वे भमाणमिति तद्‌ अयु- क्तम्‌ ! तेषां परस्परविरुद्धाथैतया प्रमाणान्तरपतिहततया “प्रजापति- गरेमनो चपाम्‌ उदखिदत्‌ः' ( त° सं।२।१।१।४ ) इत्यादिवत्‌ अर्थवादत्वे नापि उपपत्तेः स्वाथे तात्पर्याभावात्‌ } काठकादिंसमाख्यापि प्रवचन निवन्धतेव भविष्यति इति सिद्धं वेदानाम्‌ यपरोरषेयत्वम्‌

अर्थंवयेदभाष्यभूमिका १३५

गव्दस्यानित्यत्वविपयकं अत एव नित्यत्वम्‌ तच्नित्यत्वम्‌ असहमानाः ताकिकमतयुपक्षिप्य शुप्कतारिका वैदिकान भ्रति विवदन्ते परयुञ्चते

तस्य मीमांससक- शब्द्ानित्यत्वेऽमानम्‌ शब्दोऽनित्यः इतकत्वात्‌ , | मतेन नित्यत्व- यत्‌ तकं तद्‌ अनित्यं द्धम्‌ , यथा घटः तथा सिद्धिः चायं छतः तस्माद अनित्य ॒प्वेति पतह

अधोरम्‌ 1 पतव्च पर्वतादौ धर्मिणि प्रस्यत्ते यथा वहयायजुमानं ताद्रशं ताकिकैरङ्गीकरणीयम्‌ ततश्च पतदनुमानवलादेव शब्दस्य नित्यत्व- सिद्धिः तथा हि ! अणबोऽनित्याः मूरवत्वात्‌ घ्ररवत्‌ इत्ययमने यथा धर्भि- ग्राहकम्रमाणवाध्चो दोपः वथा शब्दकृतकल्वाजुमानेऽपि तथा हि शब्द्‌ कथं प्रत्यन्तो देवानां भयस्य यो ध्वी कृतस्य अनित्यत्वान्नित्यत्व शल्य ` इति चेत्‌ ? तहि वक्तव्यं कि ध्र्मद्यस्य अभमाचवान्‌ उत उद्धाववान्‌ उम- यथापि वाधः अन्यथा प्रत्यक्षम्‌ अर्थम्‌ अन्यथा साधयतः 1 नु बादिठदि विशेपाहू धमंदयम्‌ श्रापतति लु वस्तुविशेषात्‌ चस्त॒नि देरूप्या- योगात्‌ ! ततश्च यस्मिन्‌ घादिविपरतिपत्तौ सत्यां धर्म॑द्ययम्‌. आपतति शब्दः पश्च इत्यज्ञीकारे कथं वाधः 1 एवम्‌ अनङ्गीकारे सवायमानोच्लेद प्रसङ्गः

अस्त्वेवम्‌ अन्यत्र शब्दे तु वैषम्यम्‌ अस्ति। शब्दः किं धर्मित्वेन परतीतः पत्यक्षव्याद्धिपक्षधर्मतयोराध्रयः उत्पत्तितः उत्तरक्चणेषु स॒ एव तिष्टति बा, वा यदि तिष्टति, आश्रयसिद्धयादिदोषः यदि तिष्ठति, तर्हिं अनेकक्षणएावस्थायित्वात्‌ श्चणिकि्वभङ्गः अथ शब्द्त्वजातिमान्‌ शब्द्रिवष्टतीति चेत्‌ ? तत्रापि विनचास्यत्वायुष्मान्‌ 1 करि जातिरिति्ठति ? उत भ्यक्तिरपि ? यदि जातिस्तिष्टति व्यधिकरणासिद्यादिदोपः नहि राग्दत्वजाविः पत्त इति भवद्धिरेवोक्तम्‌ अनित्यन्यक्तश्यावस्थाने पूर्वोक्त- दोपावकाश्चः अथ काचन न्यक्तिस्तिषठति तदापि - शब्द्भ्यक्तीनां धमित्वाङ्गीकासाहू भागासिद्धो हेतः हि भविष्यच्ृब्दः इदानीं वत॑मानस्य कृतकत्वस्य हेतोयश्रयो भवति ! ईतकत्वं नाम करणव्यापार- विपयत्वम्‌ तच्छ कालचयासंस्प्र्रं सर्वशब्देषु वर्तते इति हंतोनं भागा- सिद्धिरिति चेत्‌ श्ररो पाण्डित्यं ताकिकस्य यच काल्यसंस्पृषटशब्द- बुद्धिः स्वयं कालत्रयातीतं प्रत्यत्तीकृतवान्‌ इति ! ततः प्रत्यक्चाभावेभ्चु- मानमपि दृयापास्तम्‌ ततः अस्मिन्नचुमाने पवंतादिवत्‌ स्थायी वततंमानः शब्दः पक्षत्वेनाङ्गीकरणीयः तस्य धर्मिणः अनित्यत्वसिद्धो अपरेषां भवि- ष्यद्‌ादिशब्दानामपि शब्दस्येन देवुना अनित्यत्वं साधनीयम्‌ एवं महीमहीधरादिकृतकत्वानुमानवत्‌ चाव्द्कृतकत्वाचुमानमपि परस्तं वेदि- तन्यम्‌ दाब्छश्राहि प्रमाणं तं इतकत्वशुन्यमेव गृहातीति मही- महीधरवत्‌ इति धर्मिप्राहकरमाणवाधस्त्वदुक्तो देवः अन्यतरासिद्धश्च तस्मान्नित्यः शब्दः

सोऽपि स्फोर इति शाग्दिकाः शाब्दायन्ते ! तत्रेमां श्चुतिं प्रमाणयन्ति

१३६ ` सायणाचार्थद्ृता `

शब्द्‌न्ह्य यदेकं यचेतस्यं सर्वभूतानाम्‌ 1 यत्परिणामखिभुवनम्‌ अखिलम्‌ इदं जयति सा वाणी

फोर एव नित्यः शब्द, अस्य अयम्‌ अर्थः 1 शब्द्‌ एव ब्रह्म तदू एकम्‌ 1 दति शाब्दिकानां एकं र्फोरटव्यतिरिक्तम्‌ अन्यन्न संभवति मतोषन्यासः वर्णानाम्‌ अनेकः्वात्‌ अत एव ध्वनयोऽपि ,. पदवाक्ययोरेकस्व शङ्कापि नास्त्येव वर्शौयिरचितत्वात्‌ तेषाम्‌ 1 ध्वनि- , वरणंपदवाक्येभ्यो वा नान्यः शब्दः प्रसिद्धोऽस्ति लोकवेदयोः ।. शब्द्‌ ह्येति पठन्ति लकिका वैदिकाश्च पदज्ञा अपि एवम्‌ माडः 1 “यकम्‌ अन्तरम्‌ पकं पद्म्‌ एकं वाक्यम्‌ इति उत्पन्नापवगिष्वनेकेषु वणेषु पएकयुद्धे- विषयः स्फोटः बृहतर्वाह्‌ ब्रह्मशब्द मिधेयः स्फुर्यते अर्थैः प्रकाश्यते { अनेन ] इति रफोटः ननु अर्थाभिग्यक्जकश्चेच्छुच्द स्तहिं वर्णात्मक एव सः ज्ञ तेषु वर्षु अर्थो ज्ञायत दति प्रसिद्धिः नैतत्‌ वर्णाल्मकशब्द्‌; अर्थ प्रत्यायक इति कोऽर्थः एकैको वशैः अथैप्रत्यायकः, उत॒ अनेक इति तावठ्‌ एकैकः अकारा- दीनां वणानां श्रस्येकं वर्णोचारणे अर्थप्रतीतेरभावात्‌ अनव्ययानां तिर- स्काराघयथं प्रत्यायकत्वं दृष्टमिति मन्तव्यम्‌ “अन्ययाद्ाप्छुपःः, [पा० . २1४८२] इति विमक्तौ लुप्तायां तेषम्‌ र्थपरत्यायकत्वात्‌ तु भ्रातिपदिकाव- स्थायाम्‌ ततश्च इति वणानां तिरस्कारश्चयाद स्थानां तेषां पदा- त्मकत्वेन अनेकवर्णात्मकत्वात्‌ 1 [ अ्थप्रत्यायकत्वम्‌ } हि अद्‌शेन- सात्रेण विभक्तिविणनाम्‌ अससवम्‌ 1 तथात्वे संबुद्धिभातिपदिकाथयोरे कत्वप्रसङ्गात््‌ अनिष्टं तच्छाष्दिकानाम्‌ तथा अव्ययानामेव अर्थपरत्यायकत्वम्‌ वर्णानाम्‌ पकेकशः } अव्ययानि पदविशेषा इत्यु क्तम्‌ 1 पतेन उपसगोदीनि स्वांणि व्याख्यातानि ` ततः-अनेके वणां अर्थ्रत्यायक इत्ति वक्तभ्यम्‌ ! अयमपि पक्षो कक्षीकरणीयः अपद्‌ा- त्मकस्य कचटतेत्यादिरूपस्य अथप्रत्यायकत्वादशेनात्‌ पद्‌ान्मकोऽनेको वरणैः अर्थप्रत्यायक इति सार स्थितम्‌ पदं खुवन्तं तिङन्तं वां तच्च प्रातिपदिकङृत्तद्धितधातुसमासप्रृतिकप्‌ तत्‌ सवं वणेस्वरूपमेच तु ततोऽतिरिक्तं पदमस्ति चरणभ्योऽतिरिक्तस्य पदस्य अदशंनात्‌ नु बणंगतो धर्मः कश्चन पदमिति तथा व्यक्तिगतो जातिविशेषो गोत्वमिति एवं चेत्‌ एकगोष्यक्तिदशेने गोत्वभरतीतिवत्‌ एकैकवणे द्षने पद्ध्रतीतिः स्यात्‌ ¦ ततो वर्णानां खमुदायविशरेषः पदमिति वक्तव्यम्‌ 1 तच्च अथेप्रत्यायकमिति चणेनीयम्‌ तेन पदसमुदाय- विश्रेपो बचाक्यम्‌ इत्युपपादितं भवति 1 चरृन्यायस्य पदे संचरणात्‌ नयु अस्त्वेवम्‌ तावता वण एव शब्द इति भवताप्युक्तम्‌ पद्‌- वाक्यत्मकानां वनाम्‌ अथग्रत्यायकत्वकथनेन भावानवयोधाव्‌ { भाव-

अथचंचद्‌ माध्य॑मूमिका -१३७

श्रायम्‌ यदि वर्णा निलया चदि वा अनित्या उथयथापि तेषां समुदायो नोपपचः नित्यानां ठु गुणत्वे खर्बगतद्रन्यत्वे बा पश्चाात्संल्याकानां वेषां मयनं केन कतुं शक्यम्‌ ? चेवं वर्णानां स्थानप्रयत्नवंयथ्येप्रख दुः नित्यानामेच तेषां स्थानप्रयल्नाभ्यामेव अभिन्यल्यमानत्यात्‌ अभिन्यकतेरपि खमुद्‌ायः कठं शक्यः वर्णाभिन्यक्तेलानड्पत्वात्‌ ज्ञानानां ऋमेण जायमानत्वात्‌ ! शयुरपञ्क्तचातुर्पचिग्मनसो लिङ्गम्‌ [सा० 1 १1 १६] इति न्यायात्‌ 1 क्रमेण जायमानानां क्षणिकानां तेयाम्‌ एकस्मिन्‌ देशौ काल वा मेलनस्य कलुम्‌ अश्रच््यस्रत्‌ ! मेलन अन्यः खमुद्रायोऽस्ति तस्माद्‌ चवणनिव्यत्वेऽपि स्पष्ः खमुदायामवः 1 थं वरुसयुद्रायः पदं पद्समुद्राया वाक्यम्‌. अ्थप्रत्यायकरं स्याद्‌] अस्ति सथघत्ययः गच्दात्‌ 1 तततः शब्दत्वम्‌ अन्यदेव नलु पताट्रश्वं शव्यवच्चं कुवः प्रतीयते 1 अनिच्यभ्यो वणभ्य इति व्रमः। तज उक्ताचुपपचिः पृचंप्रववणंखयिवन्त्यवरंत्ुद्धेरिति चरमः चेवम्‌ अथंप्रव्यत्योप्प्येवमस्त्विति चक्तव्यम्‌ तथात्वे तस्य अशाच्दरत्वं स्यात्‌ ! अनिष्ं तत्‌ 1 ततच्च उक्तवुद्धेः प्रतीयमानं शब्दत्वम्‌ एव वुद्धेविपयोऽर्थमरत्यायक इति स्थितम्‌ यच्ार्थप्रत्यायकं स्फोट इत्युक्तम्‌ यत्‌ श्द्‌ब्ह्म एकम्‌ प्ग्रत्ययविपयः सर्वभूतानाम्‌ स्थावय्जद्भमानां शरीरिणां चंतस्यम्‌ तद्र उक्तम्‌ “श्ब्दब्रद्यणं व्यतिरिक्तं चेतन्यम्‌ धरित इति 1 नयु चंतस्यविवर्ता इमे नानाविधा भावाः सव सश्चब्द्‌ाः। ततत. चाव्दतच्रं स्यात्‌ 1 अध्िष्ानम्‌ अध्यस्तं घवति इव्यतत माह-ध्यत्प- रिणामच्िशुवनम्‌ अखिलम इदमितिः परिणिपमोऽत्र विवर्तोऽभिहितः ननु परिणमविवचर्तयोः को भेदः। थयम्‌ ! पृचेरूपापरित्यानेन असत्यनानाकार- प्रतिभासा विवर्तः यथा शुक्तिकायां रजतस्य, खपेरञ्ज्वां वा खपंस्य प्रतीतिः। पूर्जरूपपरित्यागे खति नानाक्रारयरतिभासखः परिणामः यथा क्षीरस्य दधि- परतिभाखः चिश्वुवनं यत्परिसाम इव्युक्ते भौतिका भावाः शच्दव्राह्यणः परिणामाः स्युः 1 तद्धयुद्रासाय उक्तम्‌ धिम्‌ इदम्‌ इति 1 इदम्‌. जाडय- पत्ययविपयः 1 चंतन्यादू न्यतिस्िं सवंमित्यथैः सखा स्फोरद्धपा चारीं जयति | तेन पतद्‌ उन्तं अचति शब्दव्माद्यसि चेतने खक्॑रपञ्चचिचर्ताधिारे स्फोरे शब्दे श॒ब्दासिधचस्यम्‌, तु वर्णानाम्‌ 1 तेषामपि स्फोटे जघ्यस्तत्वात्‌ 1 -तस्माव्‌ रुफोट एच खाव्द्‌ः नाच्चिक्मत- इति ये मन्यते तेषां डरन्तं व्यसनम्‌ सापतितम्‌ 1 अप्रतीत निरासः द्यार्थस्य पतीतिः ! पत्तीतश्यार्थंस्य परित्यागः 1 तथा हि। चरन्मकरब्दरेभ्यो यथा स्फोटः चाव्द्‌ः प्रतीयत तथाः प्रतीयताम्‌ को द्रापः { क्ानव्यवध्राने अचण्दव्यं तस्यार्थस्य स्फोरोऽपि शब्द पव 1 द्राच्छश्च ल्ानक्स्णम्‌ प्रत्यक्षन्यधिरिक्छार्नं करणानां ज्ञानकरणत्वा-

१९२ सायणाचायंदतां

ज्गीकारात्‌ सर्यवादिभिः ततश्च यः स्फोटपन्ते परिहारः सं पव व्णपक्ते भविष्यति } तथा हि 1 पूर्वंपूवेव्णैसंस्कारसखचिवोऽन्त्यो वर्णो ज्ञातः सन्‌ अर्थ प्रत्याययिष्यति 1 करिम्‌ अन्तगंडुना स्फोटेन

तस्माद्‌ अपौरुषेयत्वाद्‌ नित्यत्वाद्‌ _ विवक्षितत्वाच्च छत्स्नस्यापि वेद रारेस्तदन्तमंतस्य व्रह्मवेदस्यएपि विवश्चिताथैत्वेन भ्याख्येयतासिद्धिः

, अथर्रेदन्याल्यानल्य तथापि कथमस्य अन्ते भ्याख्येयता वेद्‌ानां कमेण ज्रयीव्याख्याना- = अभिव्यक्तिप्रतिपादकश्चुतिवशात्‌ इति बमः खा नन्तयोप्पादनम्‌। अथववेदस्य पूवेत्राह्मणे प्रणवप्रशंसावसरे श्रुयते

“रह्म ह्‌ वै ब्रह्माणं पुष्करे सखजे खलु बह्मा सृष्टश्िन्ताम्‌ आपेदे फेनाहम्‌ एकेनाक्चरेण सर्वश्च कामान्‌ सर्वश्च लोकान्‌ खर्वश्च देवान्‌ स- बश्च वेदान्‌ सर्वश्च यज्ञान्‌ सर्वाश्च शब्दान्‌ स्वाश्च वृष्टीः सर्वांशि भूतानि स्थावरजङमान्यनुभवेयम्‌ इति ॒ब्रह्मचयेम्‌ अचरत्‌ सख ओम्‌ इत्येतदू अक्षरम्‌ अपश्यत्‌ निवर्णं चतुर्मा्नं सर्व॑व्यापि? इत्यादि [ गो° ब्रा १।१६ ] धतस्य प्रथमया स्वरमाचया पृथिवीम्‌ अश्चिम्‌ ओषधिवन- स्पतीन्‌ छभ्वेदं भूरिति व्याहति गायनं छन्दः चिचत स्तोमं भाचीं दिशं वसन्तम्‌ तुम्‌? [ गो० ब्रा० १।१७ ] इत्यादिना आदयाभिर्तिखृभिः प्रएव- माजाभिसत्तम्याच्‌ ऋगादीय्‌ प्रतिपाद्य अन्ते खमान्नाततम्‌ “तस्य मकार सात्रयापश्चन्द्रमसम्‌ अर्थववेद नत्तचाण्योरेसिति स्वम्‌ आत्मानम्‌ आनु- प्रभं छन्दः रकविशं स्तोमम्‌ इत्यादि [ गो० जा० १।२० ] तथा तैत्तिरी- यक्रेऽपिं ब्रह्मयज्ञभ्रकरणे श्रूयते--“य ह्‌ ऋचोऽधीते पयसः कस्या अस्य पितृन्‌ स्वधा अभिवहन्ति यद्‌ यजूंषि धृतस्य कूल्या यत सामानि सोम एभ्यः पचते यदू अथवाङ्गिरसो मध्योः.कूल्याः» [ठे८ पा०२।१०] इति। तद्‌ एवम्‌ उदीरितरीत्या सवेत्राथवेवेदस्य चरमभावित्वाद्‌ तद्वयास्यान- स्य जयी्याल्यानानन्तर्यम्‌ उपपन्नम्‌

अथववेदस्य शाखा तस्य पेहिकामुष्मिकसकलयपुरपाथपरिज्ञानोपायभूतस्य विपयको विचारः अथर्ववेदस्य नव भेद्‌ा भवन्ति तदू यथा पैप्पलाद तोद्‌ा मोदाः शोनकीया जाजला जलदा बह्मवदा वेददुरशाश्रणवेचा- श्चेति तत्र शोनकीयादिषु चतखष्ठु शाखाखु अनुवाकसूक्तऋगादीनां गोपथन्राह्मणाटसारेण पञ्चभिः सत्रेविनियोगोऽभिहितः तानि सूत्राणि कोरिकम्‌ वैतानमू्‌ नक्षत्रकर्पः अङ्गिरसकल्पः दाम्तिकट्पश्चेति 1 तद्‌ - उक्तम्‌ उपवर्पाचा्यैः कल्पलुत्राधिकरशे-- नक्षचरकल्पो वैतानस्तृतीयः संहिताविधिः |

नुयं आङ्गिरसः कटपः शान्तिकस्पस्तु पञ्चमः ।।

तन्न साक्टयेन संहितामन््ाणं शान्तिकपोष्िकादिषु कर्म॑सु विनियोग

(२ [र > विधानात्‌ संहिताविधिर्नाम कौशिकं सूत्रम्‌ तदेव इतरैः सूैरुपजीन्यत्वाव्‌

अथववेद माष्यभुमिका १३६

प्रधानं ! प्तेघु ` वहुषु सजेषु अथ्वंवेदश्रतिपाद्यानि कर्माणि विप्रकीरे त्वाद्‌ दर्बोधानीति सखुखाववोधाय तानीह खंग्र्यन्ते 1 तावत्‌ कोडिक- सूचक्रमेख ध्रतिपाद्यावच्येतानि क्मांसि

कौरिकसूव्रोदिताना- आदौ स्थालीपाकविधानेन दर्यपर्णभाखविधिः \ ततो मथर्ववेदप्रतिपाचानां मेधाजननानि बह्यचारिखांपदानि सामनगस्दुगे- कर्मणां कमेण प्मदिलामाथोनि पुच्रपशुधनश्ास्यश्रजाख्रीकरितुरग- नामोल्ठेखः र्थान्दोल्िकादिखर्वसंपत्साधकानि जनानाम्‌ प्क- मत्यसम्पादकानि सांमनस्यानि ततो राजकमांणि तानि शच्रुहस्तिजा- सनानि संग्रामजयखाधनानि इषुनिवारणार्थानि खडगादिंसवंशखनिवार- णानि परसेनामोदनोदधेजनस्तम्भनोच्चाटनादीनि स्वसेनोत्खाहपरिरक्षणा- भयार्थानि संग्रामे जयपसजयपरीश्चार्थानि सेनाप्यादिग्र्रानपुखपजयकर्माणि परसेनासंचरणथ्देशेषु अभिमन्ितपाशासिकशापत्तेपणादीनि जयकाम- स्य राज्ञो रथस्यारोहदणएम्‌ अभिमन्बितभेरी परादि खवंवादिचताडनम्‌ सपल- क्षयकर्माणि शच्रत्सादितस्य राज्ञः पुनः स्वराष्रपवेशकानि राजाभिषेकः पापक्चयार्थानि निक्रौतिकर्मासि चिच्ाकमांदीनि पौषठिकालि गोसम्घ- द्विकर्मांणि लचमीकससि पुण्ट्यथेमणिवन्धनानि कपिपुणिकसणि अनडुव्लभ॒द्धिकराणि ग्रदसंपत्कयणि नवशालाकर्मादीनि बृपोत्सजेनम्‌। आत्रहायणीकर्म जन्मान्तरङृतपापनिमित्ताचि कित्स्यविविधरोगतरैप- ज्यानि तच्च प्रथमं सवेव्याधिभैषल्यं उ्वसयतिसारवदट्ुमुचादिभेपस्यानि शखष्यभिघ्रातजरुधिरप्रवह्‌नियोधकानि सृतपरेतपिशष्चापस्मारव्रह्य- यन्तसवालग्रहादीनि चारणानि वातपित्त श्लेष्मयेषञ्यानि हृद्रोगकामिला- रिविच्रनिवारणानि सखंततज्वरेकाहिकाहिकादिलिषमज्वरयजयच्मजलो- द्रनिवारणानि गवाश्वादीनां क्रिमिहसणि कन्दभ्रलसर्पचुश्चिकल्थावरजज्ग- मविपनिवारणानि सिरोख्चिनासिकाकणे जिहा्रीवदिरोगसेपल्यानि बाह्य- णादाक्रोदानिवार्णानि गरडमालादि विविध्रोगमेपज्यानि पुत्रादिकाम- सखरीकर्मांसि खुखधसखवकर्माणि 1 गभाधानग्भदरंहणपुंलवचनादीनि सोभाग्य- करणानि सजादिमन्युनिवारणानि अभीषटखिद्धयसिद्धिविक्ञानानि। दुर्दिनाश्न्यतिचरष्टिनिवार्णानि 1 खभाजयविवाद्जयकलदशभमनानि स्वेच्छातो नदौ श्रवाहकरणानि वष्रिकर्मांसि 1 अर्थोत्थापनकर्मं दय तज्ञयकरम। गोवत्सवियेधनिवारणम्‌ अश्वशान्तिः 1 वाणिज्यलाभकर्म लिया; पाप. ल्तणएनिचारणम्‌ चास्तुसखंस्कारकमं गरहप्रवेशकमे कपोतव्यसादयुपहत- ग्रह्चान्तिविधिः ुष्प्रतित्राहायाज्ययाजनादिदोपनिवार्णम्‌ दुःस्वप्न- निवारणम्‌ कुमारस्य पापनक्त्रजननरान्तिः। ऋखापनोदनम्‌ दुःशकुन- शान्तिः आभिचारिकाणि परङृताभिचारनिवारणानि स्वस्त्यय- नानि आयुप्यालि 1 जातकमेनामकरणन्चूडाकरणोपनयनादीनि 1 एका- शिसाध्याः काम्या यागाः ब्रह्मोदनस्वर्मोदनाद्या दार्चिशतिः सचयज्ञाः |

९४० क्ाथसाचा्॑ङता

क्रव्याच्छुमनम्‌। भावसखथ्याधानम्‌ विवाहः पैतमेधिकानि पिण्ड- पितृयज्ञः मघुपकंः 1 रपारुधिरादिव्पणयक्चयाक्षसादिदशेनमूकस्पधूम- केतुचन्द्रार्कोपक्षवादिवडुविधोत्पातश्ान्तयः आज्यतन््रविधिः अष्टकाकमे ¦ इन्द्रमहः ! ततोऽघ्ययनविधिरिति।

वैतानसुत्रविहितानि ब्रह्मादि- तथा वैतानसू्े दशं पूरौमासादिघु अथनान्तेषु चतु्रत्विजां चयीविहितकर्मसु ब्रह्मा बाह्यणान्छंसी आग्नीध्रः कर्माणि पोतेति चतुर्णाम्‌ ऋत्विजां कठभ्यं प्रतिपाद्यते तत्र अनुक्ञानुमन््रणादीनि ब्रह्मणः शख्राद्यीनि बाद्यणनच्दुंसिनः ! . आश्ची- धरस्य अन्वाहायश्रपणप्रस्थितयान्यादीनि } पोवुः प्रस्थितयाज्यादीनि ! इति विभागः तत्र अयं कर्मक्रमः। पथमं दशपूणेमासौ ! ततोऽग्न्याधानम्‌ अच्निहोचम्‌ माच्रयशेष्टिः चातुर्मास्यानि 1 वैभ्वदेववरूण॒प्रघासस्राकमेध- श॒नासीरीयाणि पशुयागः ! अ्चिष्टोमोक्यषोडश्यतिराघ्ात्मकः परङूति- भूतश्चतुःसंस्थः सोमयागः वाजपेयः - अघोर्यांमः अिचयनम्‌ 1 सोत्रमणी मै्रावरूणयामिन्तष्टिः ! गवामयनम्‌ ! राजसूयः अश्वमेधः पुरुषमेधः सवेमेधः; चृहस्पतिसवगोसवाद्‌य एकाहाः सोमयागाः। व्यष्टिद्धिखच्ग्ररूतयोऽहीनः! राञ्रिसन्राणि सांवत्सरिकारययनानि देशैपूरैमासरायनानीति &-

नक्षत्रकलपोक्तानि नक्तजकर्पेऽपि. परथमं कत्तिकादिनक्चत्रपूजाहोमादि ततो-

कर्माणि ऽदूभुतमहाशान्तिः नैश्तकमं अख्ताद्या अभयान्ता- स्िशन्महाशान्तयो निमित्तभेदेन प्रतिपादिताः तत्र दिव्यान्तरिश्चभोमेषु उत्पातेषु असृताख्या महाशान्तिः गतायुषां पुनर्जीवनाय वैश्वदेवी अचि- भयनिवरत्तये स्व॑कामावाघ्ये चाग्नेयी नक्चच्रहोपखष्टभयातेरोगग्रहीतानां तच्छान्तये मामव 1 बह्मवच॑सकामस्य वशर शयनाक्चिज्वलने ब्राह्मि राज्यश्रीव्रह्मवचलकामस्य वाहरपत्या परजापश्वन्नलाभाय प्रजाक्षयनिचुत्तये प्राजापत्या शुद्धिकामस्य सावि्री ! चन्दोचह्यवचंसक(मस्य गायनी संपत्कामस्य अभिचरतोऽभिचर्थमाणस्य आद्धिरसी . विजयवल- पुष्टिकामस्य पर्वक्रोदधेजनकामस्य रेन्द्री अदूसुतचिक कामस्य राज्यकामस्य माहेन्द्री धनकामस्य धनक्षयनिचरदिगादौशय कोवेरी ! विद्यातेजोधनापयुष्कामस्य आदित्या अन्नकामस्य भूतिकामवास्तुखंस्कारकर्मंणोर्वास्तोष्पत्या रोगातंस्य आपत). स्तस्य रौद्री विज्यकामस्य अपराजिता यमभये यास्या जलभये) वारुणी चत्याभये चाय्या कलक्तयनिवृत्तये संतत्याख्या } वसततः त्वाष्टी वालस्य भ्याधिनिच्रत्तये कोमास चिच्छरतिग्ररीलरनय मैक्रेती वलकामस्य मारद्धणी 1 अश्वक्षयनिन्रत्तये गान्धवीं : शान्तये पास.

चती भूमिकामस्य पार्थिवी भयातंस्य अभयाख्या महाचदैन्तिः भालं -_ तन््रभता महाशान्तिश्चेति, #

यश्वेवेद्‌भास्यभूमिका 1 ९४१

आद्धिरस्सकल्य गदिवानां तथा .आा्किरसकस्पे वाभिचार्कर्माद क्वंकारयित्‌- कमणा समाख्यानम्र्‌ सदस्यानां स्वत्मरश्राकर्णम्‌ 1 अयिचारोपयुक्त- देशक्ाखम्ररडपकरठकारपिद्दीच्तादिधमसमिदान्यादिखंभारनिरूपणादि कम्‌ ततः आभिचारिककर्माणि परछताभिचरनिवारणादीन्यन्यान्यपि कर्माणि वरान्तिकल्पोदरितानि श्रान्दकल्येऽपि पथमं वैनायकम्रदमदयीवलक्षणानि कर्माणि तच्छान्तये संभाखहस्णम्‌ असियेकवैनायकः होमाः! तत्प्रूजाविध्रानम्‌ भादित्यादिनवग्रदयक्षादिकभिति

अथरवैपरिविष्टपरविपादिता प्तषु कव्येप्वचु्ानि यानि राजाभिपेकोपयुक्त-

राज्यामियकापयुक्ता = द्रव्यथ्तिद्रव्यपरिग्रहपुरोहितवर्णादीनि परि-

अयुष्टाचविथयः थिग्मक्तानि ` तान्यपि अनुक्रम्यन्ते प्रथमं यजा-

भिपेकः; रातः प्रातर्बद्यगन्धालद्भारसिद्ासनाभ्वगजान्दोलिकाखन्ञध्वज- चामदीनां चचन्मन्त्राभिमन्वितानां राके पद्ानादीनि पुयेदित- कर्मालि शवर्लधेयतिलभूमिदानादीनि राकः अरतिदिवखकतैन्यानि। पूजितपिष्टमय्या सद्ीपया सचिघ्रतिमया राज्ञो नीराजनम्‌ सत्ताकरणं

दव्येवमादीनि पुरोदितस्य सचिक्र्माणि राज्ञः पुष्पाभिधेकः। राजो ग्पच्रां आसाचिक्रविष्रानम्‌ प्रातः श्रातघ्रंतावेकश्चसम्‌। कपिलाद्‌ानम्‌ 1 तिल- ध्रनुदानम्‌ र्नादिशेनवः 1 करष्णाजिनद्ानम्‌) भूमिद्‌ानम्‌ 1 ठतला- पुरपविधिः अआदित्यमण्डलाक्रारापूृ्रद्‌ानम्‌ ददिरण्यगर्भविधिः दर्विय्यद््‌ानम 1 कलक्राण्वादिदश महादानानि) अश्वरश्रदानम्‌ | गोखद्ख्रविधिः चरबोत्सगः कोरिद्योमः। लक्तदोमः अयुवद्ोमः 1 घरृत- कम््रख्विधिः 1 तयाक्घ्रतिषा पञथ्युपतनतम्‌ 1 इव्येवमादीनि अन्या- न्यपि द्‌ानव्रतादौनि 1

इति सपरिधिषटपञ्चकत्पघ्रतिपाद्यानां कर्मणां दिङ्मात्रेण .ययम्‌. थयु- क्रमः | चिन्तेपस्तु तच्चत्युक्तविनियोगावसरे वच्यते

नित्यनेमित्तिक्रकाम्चमदेन तानि चिचिधानिं नित्यनैमित्तिककाम्य- कर्मणा तविध्चम्‌ गमेदेन 1 वच जातकर्मादीनि नित्यानि उदिन- निनिवाग्याश्वशान्त्यदटूयतकर्माणि नेभिचिकानि। मेध्ाजननयाम- सापदार्दीनि काम्यानि 1 अचर नित्यानां नेमिचिक्रानां अवद्रयाुष्ेयता 1 क्ररणे प्रत्यवायस्मरणाच्‌ 1 तथाहि. नित्यनैमिचिकरे कुर्यात्‌ प्रत्यवायजिघ्रासया } काम्यानां त॒ उच्ातः प्रच्रच्िः॥ प्पतेषां रामाद्‌ वहिः घ्रागुद्ग्देशे महानदी तराकाद्युचरूलेऽयुएानम्‌ ““पुरस्तादुत्तरतोऽस्य्ये कमणां अयोग उत्तरत उदकान्ते इति कोक सूजात्‌ ( को० 21७ ) } पुंलवनादीनां ठु नित्यानां ग्रह पेवेति रद्रभाप्य- कारमतम्‌ कालस्तु पद्रयं पुर्यनकद्चयुक्ं तिध्यन्तरं चा अदसु तकर्मणां

१४२ सायणाचा्य॑ृता 1

त॒ तत्तचिमित्तानन्तरमेव तथा-- समाबास्या पौर्णमासी पुर्यनक्षनयु्‌ तिथिः। एत एवं अयः कालाः सवषां कर्मणां स्पृताः अद्भुतानां सद्‌ा कालम्‌ आारम्मः सवं कर्मणाम्‌ साभिचारिकाणं तु ्रामाहू दक्षिरदिदि कप्णपत्ते छत्तिकानक्षत्र प्रयोग इति विपः तथा कोटिकसूच्म्‌ } “अआमिचयेपु दक्षिएतः संभारम्‌ महत्य भाङ्गिरसम्‌? ( को० ६।१ ) इत्यादि अत्र आङ्गिरसमितति आद्धिस्सकस्पोक्तमित्यर्थः एतेषां कर्मणां भाच्योदीच्याङ्गानि देर्थपृं- मासवत्‌ कार्याणि 1 “मो दृश॑पूरंमासो व्याख्यातो दरशंपूरंमासा्यां पाक- यज्ञाः” इति सूच्रकारवचनात्‌ ( को० १।६ ) अच्र पाकयन्नशव्देन सर्वम्‌ आथवंरं कर्मोच्यते | आाय्बण्कर्मेणामान्यतन्त्र. तश्च द्विविधम्‌ भाज्यतन्बं पाकतन्वं चेति य्न पाकतत््ेतिभेदाच्‌दरैविष्य धानं हविः; आन्यं तदू आस्यतन्तम्‌ यत्र चस. ` प्रतिपादनम्‌ पुयोडाशादिकं तत्‌ पांकतन्नम्‌ आज्यतन्त्रे मयम्‌ चुठानक्रमः धथमम्‌ “अन्यस” [१६।६५] इति कठुजेपः वदिलवनं वेदिः उत्तरवेदिः अग्निग्रणयनम्‌ अग्निश्रतिष्ठापनम्‌ वतग्रहणम्‌ पवित्रकरणम्‌ पनि्ेरेध्मधो्णम्‌ इ्मोपसमाध्याचम्‌ वर्िःपोक्चपम्‌ बरह्मासनम्‌ बरह्मस्था- पनम्‌ स्तरणम्‌ स्तीणेपोक्षणम्‌ भात्मासनम्‌ उद्‌ पाचस्थापनम्‌ माज्यसंस्कारः लुवन्रह्णम्‌ ब्रहयहरम्‌ पुरस्ताद्धो माः आल्यमागो ५सविता प्रसवानाम्‌ [५२४] इति कर्मणि अभितोभ्वातानेरान्यं छडयात्‌ [को० १४।१} इति सूज कारवचनात्‌ मभ्यातानानि एतदन्तं पू्॑तन्त्रम्‌ ततो यथोपदेशं प्रधानहोमः तत उन्तरतन्म्‌ अभ्यातानानि पावंण- होमः समृद्धिदोमः संनतिद्येमः स्विष्रकृडढोमः सर्व॑भरायधित्तीयहोमः स्कन- होमः “पुन चवन्दियम्‌ [७1६8] इति होमः स्कनरस्तिहोमौ संस्थति- होमाः चलुगुंदीतदोमः वहिदँमः संस्लावदोमः विष्णुक्रमा; वतविसजे- नम्‌ दृक्षिणाद्‌नम्‌ ब्रह्ोव्थापनम्‌ इति पाकतन्ते अभ्यातानाभाव एव विशेषः अन्यत्‌ सर्वं समानम्‌ तथा गोपथन्राह्मसम्‌-- आल्यभागान्तं पाकतन्बम्‌ ऊध्वं स्विषटृता सह्‌ 1 . द्वीपि यज्ञ आवापो यथा तन्नस्य तन्तवः शदुभुतकर्मणाम्‌ माज्यतन्तरत्वेऽपि पाकतन्नवह्‌ अभ्यातानामावः। चद्‌ आह्‌ केशवः “पाकतन्तरेप्बम्यातानानि न।मवन्ति, बदूधुतेषु सवन्ति, अन्यत्र सर्वत्र भवन्ति” इति [के० १४।६] इति सायणाचायंकृता थथर्ववेदभाप्यभूमिका समाता सरसा्ताऽच चदुकरदसाल्यनूसक्यामधाना अन्थः ----=्=<भथनद----

सन्यभ्पिनी नकद

परिशिष्ट (१

ग्रन्थस्थविषयाणासक्षरकमेणानुकषणी ,

` विषय श्तरविकारस्य सामनिष्पाद्कत्वम्‌ श्नन्निष्टोमलक्षणम्‌ अम्नष्ठोमसामलक्एम्‌ प्रथववेदस्य-- उपवेदाः

६.६ परिशिष्टोक्तानि कमीणि प्रशंसा पुराणादिषु ` ज्याल्यानयोग्यता व्याख्यानस्य त्रयान्यास्यानानन्तयम्‌ शाखा च्ध्वय्वोदिकतव्यम्‌ अलु वाकगता विषया ्न्यशबच्दस्य सवे विषयत्वकथनम्‌ चअथवाद्मागस्य प्रामाण्यम्‌

माङ्गिरसकस्पोक्तानि कमणि श्रा्यतन्त्रस्य लक्तणम्‌ श्ाज्यस्वोत्रारं लक्तणम्‌ धाने वामदेन्यादीनामुपांश्च गेयत्रनिणयः ्आवापलन्तणम्‌

श्रावपोद्रापविचारः

इरापद्स्य गानविधानम्‌

उत्तरयोगोसविधानम्‌

, निषमच्छन्दस्कयोगौलभ्रकार स्ताभातिदेश

उद्र{पलक्तणम्‌

पृष्ठ

८५ ९५

` १२्‌ १४१

१३३ १२३०-१३६ १३८

१३९

६४

>६-३२

१४१ १४२

८३

८५७

८८

६९

७९

७४

७९ €&

( २)

विपय प्रष् 9 , उहपरन्यलक्षणम्‌ ७१ उहयन्धस्वह्यविचारः ७१ # ऋगृलक्तणम्‌ ६७ चेदस्य प्राथम्यविचारः :११ ¢ एकृत्रिकक्रतुल्तणम्‌ ९३ एकर््रिशस्तोमविचारः ८७ - = कर्वर्थन्तरसाभ्नः- अ. योनिगतो विचारः ८९ सरूपम्‌ ` ` ` ९३ करमां चातुधिभ्यम्‌ ~: ेविष्यम्‌ १४१ क्म॑कारडस्य प्राथम्यम्‌ ` ११० कंर्पस्योपयोगः ५०५१ कएवसंदिताशब्दाथंः | ९०५ कास्यकसणो लण्‌ कालेयसामस्वरूपम्‌ ८३ कौःससाम्नः--प्ा्ृतवाधकत्वम्‌ ९१ ` ` विरोषन्यवस्थां ९१ कोशिकसुोक्तानि कमणि १३९ क्रममुक्तिः , गं ` गानविचारः ६९ गीतिलक्तणम्‌ ६८ चित्राया नामघेयखम्‌ ८१ =) छन्दसः प्रयाजनम्‌ ५६-५७ ` छन्दीविरोपत श्रावापकथनम्‌ = ९९

जगत्तीनां तिखणं सम्पादनम्‌ | ५७-५८

, {> 0 0 ॥६५* [४ + 1) ११ | ~ + + ५५ निव कसु ति "मष ' 9 = 44“ ^ क“ अ~ 5” कण 69 ।द` क~ + + ॥। ५) \ ५१ £ ८७ 2 ^^ (4१ 5 (= ५, ~ 4 भः 6 $ [11 ¢ 9 , ५१ + ! ौः वि, ६. -6 पि 4४४ 1 # ५५ + प्न री (४ 4 ॥६ (४ 4 षट 8 | (ग क" [3 = ८, | [3 ०५ {ग [ ५: 8 7 [क [* 09 (= जः (7 (६, नि ।) +~ ( ८6 | , ५४ ¢ = ,,,¢ ।* ५५५ $ "८ “र 3* >" (ष $ , ९४ ^~ {र -* [3११0 [उ ४१५. ।ए८ {- + |, (अ [२४ तृप्तः 4. रि (# [2 [* [> २५ |स [ग [७ 4 (न ध, "+~ (= = [> $ ६1) (-- # | 8 [= [= [~ २. ~“ ।॥ {> (= [> < {+ | ५4 ५८, [*/ 2 प्र [र ~, * |“ (~ {* [1 कि >) < {र {~+ ~ {तिः (क # £} 81 2 ¢ (44५८६ ॥.६॥ £ ५॥ वि 8) ५५. (9 १2 ‡- ५" #, {> ,^ = "~, | (३ (प ग्‌ [द [३ 1४ ~~ | |*> ; # | "~, | (८ | > |? [६ पण | 2 (द 7. {> 1 ($ (~ ,[~ (८ (= ५२, 4 {६ 1 त्‌ [५। # (1५ क्ष (शि ि 1 "^ ^ | 1९ [५ १९ 4 19१ ॥) 1 | ` = | |> (५ > ~त ( ("५ (२ [५ (६ {> [= +, > = ¢ ६। ~ 3 (४ 1५९ भि ९) 8४) ॥१९ (२ वष षि छ, {९ ¢ ५८ ५५ भक 9 [5 ६५ (३८ (5५ {# (>

(५) विषय -प्रामाएयवदि-ताकिकमतम्‌ = मीमांसकमतम्‌

सख्यमतम्‌ सास्यमतसमीदा

सौगतम्‌

++ सौगतमतनिरासः

वदिष्पनमानस्य-तरेनिध्यम्‌ १) लण्‌ , रर छच च्ामः दतृ षमसाङ्कयचिन्तनम्‌ ह्‌ स्थन्तरयोः धमंसमुच्चयः . प्रयोगप्रमेदः हत्याः सम्पादनम्‌ ह्यवादीतां नियतत्वम्‌ वृशनाह्यणोपक्रमः बह्यसाम्नः--उत्कषविधानम्‌ , विकरिपितत्वम्‌ ब्राह्मणस्य लक्तणम्‌

1

भवनलच्चणम्‌

|

मन््र--तरेविध्यम्‌ भागस्य प्रामाण्यम्‌ ` लदणम्‌ सुकतदरविध्यम्‌ यजुलंचणम्‌ ययुरवेदस्य--अध्यायगता विषयाः श्रादौ व्या्यानयोमग्यतां शाखाः ( शुक्लस्य ) यज्ञायज्ञीयसामस्वरुपम्‌

रथन्तर--निस्पणम्‌ . सामखरूपम्‌

वरसापाकरणस्य प्राथम्ये हेतुः

` प्रष्टि १३३ १३२. १२९ १३० १३० १३१.

८८ ८१ ९५ ८9 ९६. ५५-७६ ' ९८. ,१०८४ ९९

९८.

३७,६५ १२४

३७-३८३१२ १७.२४ `

1

२४.३६ 9 ६४-६ ५) १११ 4 ६.

६७

११० `

१३.

१०४ ८५

६७

)

८३

`

विषय वल्सापाकरणस्य लदोणम्‌ वणंलोपस्य गीतिदेतुत्वम्‌ वामदेन्यसामस्वरूपम्‌ वारवन्तीयसामगानध्रकार विधिभागस्य भामार्यम्‌ वेद्स्य--श्ह्भानां सश्रुदुदेश श्मधिकारिण श्मध्ययनफलप अच्ययनाधिकारः अयुबन्धचतुष्रयम्‌ प्मपौरुषेयलम्‌

प्रज्ञस्य प्रशंसा प्रहणे विशेषाधिकारिण नि॑चनम्‌ प्रयोजनम्‌ प्रामारयम मन्त्राणासं अनधिगवाथंबोधकत्वमे अज्ञाने छषिदेवताछन्दोक्ञनम्‌ » श्थोनुस्मरणत्वम्‌ लक्षणम्‌ ठछनच्तणप्रमाणनिणय विषय विषयविभागः वदत्वम्‌ सम्बन्धविचार वैतानसूत्रोक्तानि कमणि वैरूपसामस्वरूपम्‌ व्याकरणस्य. प्रयोजनम्‌ लच्तणम्‌

शब्दस्य नित्यत्वम्‌ शुरलेशविचारः शिन्तायाः ग्रयीजनस्‌

लक्षणम्‌ श्लोष्ादिसाम्ताऽऽग्यपृषटादिस्तोत्रस्य समुच्चयः सघोमुक्त्लि्षाणम्‌

` <

६९; ८३ ८५५ २४-२६ ४९ ढ्‌ २३९-४३ ` ३८.३९ ४८.४९

| ३३३ 1] १३३ | १२४

४३.४७ ५८.५६ ४५ ४८ ३.५.

“१७: ११३८ १००,११३; २; १५; १७ ४८ १०९. ५४ ४९: १४९; ` ९७.

५१.५५५

१३५

७२ ४९५०;

९५१

( ) विपेय _ सप्ठदशस्तोमस्य स्वकूपम्‌ सं पुष्टस्य अतिदेश विधानम सरसंवादेः प्ृष्टत्वम्‌ साम्नः--अनुषएठानकतव्यतानिकूपणय ऋचः प्रति संस्कारकतवम्‌ ` ; यानवाचित्वस

9 ` * गाने उच्चैरूवनोचैखखधमविचार

गाल -छचार्दनम्‌

9, ` द्वे गेवत्वस्‌

3 .. . देववा्तुतिदेतुतवम्‌

9} लक्तणस्‌

+ ज्याख्यानयोग्यता

सोमरसामखर्पस्‌

स्तातलक्षणस्‌

स्तोत्रियसान्नो निष्पत्ति

स्वोभलदणम्‌ (

स्तोम~-वरद्धयव्ट्ध्योः प्रारतवाधकृत्वस्‌

, वधनप्रकार

स्फोटस्य नित्यशव्द्सम्‌

„+` नित्यशब्दतनियसः

स्बरसाम्नो विकारचिन्तनस्‌

शस्वटक्‌' शब्दस्या

स्वाध्यायोऽध्येतव्यः इत्यधि

~ प्रभाकरसतम म्रभाकरमतखरडनम्‌ ~~ . भावनायाः स्वर्पम्‌ + भाव्यं फलम्‌

खाव्यायस्य प्रयोजनं शांकरदशनान गतस्‌

गुरुमवाञ्गतम्‌

1 1

` 79 भटमतादुगतस्‌

+ खगंफलकत्वम्‌

८४ ८9 ९६ ९७ ८८ ५७०७१

६७.६८

३६-१३५७ १३७

९०

९५

१०५; १९६ १०६; १२७.१२८ १२३. १२५-१२६. १०७

पारिभाविकव्राच्दानामक्राराद्िक्रमण

शच्च #-1

च्ग्तिचियन च्मगिनिषटोमः व्यन्तिष्रोम साम छ्मग्निद्रीच्र न्नयुपस्यान्‌ च्यध्वयु श्रख्प परविद्या ्मभिवतं चाम प्भ्यास ्र्थवाद्‌ द्र्थमूावना छ्ड्वमेय

श्माल्यतन्त श्माञ्यस्वोत्र ध्वयंवम्‌ श्ान्यीयवं साम श्मामदीयवं साम दमार्भव्ः पमानः

इतिकतन्यता इतिहा षि

न्तर च्टनोाच्र ख्द्गाय विया

परिशिष्ट (२)

[1

+ 99 १० ८५, १११ ११५ ५२३-१५

५७, ७८

१२

एकविकः क्रः

एकर्िश्नः स्तोमः

कारवरथन्वर करप

कातरं चामं काम्यकं

कालंयं साम

काचं सान इलायिनी विद्ुतिः कत्सं साम व््ममु्छि

कष्ट गाचत्रम्‌

गायत्रं छाम

गीिः

श्य

0

५, १६) नि `:

५५ ₹`

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९३ ७८ ८७८८.

८०१९३; "५०.

~ ९१.

१२०, १५१

१)

शण्ड

चित्रा 'दोद्ना

छन्दम्‌

इ्योिष ष्योतिशेम

त्निणवस्तोम निषत्‌ स्वोम ्रशोक साम

दशे भूगोनम्‌ -

निगम निघण्टु

नित्य कर्मं निधन

त्रिपाव . निरक्त निरूढपशुषन्धं निषिद्धं कमं निष्केवस्यं शखम्‌ नेमित्तिकं कमं नौषसं साम ,

,ॐ,११०

११०१४ |

११०,१४१

शब्दे पाकं ग्ज्ञ) पयस पुराकस्पः पुराणम्‌ पुरुषमेधः पूणंमास. पृष्ठस्तोच्र पौष्कलं साम | प्रं शस्त्रम्‌ प्रकषं

भ्रकृति प्रगाथः

प्रमाणम्‌ प्रयत्न प्रयाज

प्रेष

८१,८ब्‌ २४

१४

६४ २,३१२४

८७,८८ ८१, ८३ ७द्‌

९४

५६

५६

बल वहि्वमानस्तो्र वहत्‌ पढ

चदती

नह्य साम

मह्ना रह्मिण॒

मत्रा , महेन्द्र स्तोत्रम्‌ युक्ति

यतु यज्ञायज्ञीय सा यानिग्रनधु योधाजयं साम

८९ ५६ ५६ 4६ ११०

५७६१८३३

१२६ ६५१६६ ८३ 4५ १४२

पृ

१४५

८८

६६ .

२७

१११.

११० ४५,८ १०८३ -- ७५. ८३ ९६,७५,१११ ` ६$ १११ ७५ `

१५.

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६५ .

४९, ८२ ५७४ "७ ४१९९. ` " १३१६५ ` २७१६५

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८९

9 # ५६ 9.

1. [9

९९ १७८ ७५ -

( ९)

र्‌ शब्द्‌ शब्द्‌ ॥ि पृष्ठ | शस्त्रम रथन्तरं साम ६५, ७५, ७६, ८३ | शाक्वरं साम रथन्तरं प्रष्ठम्‌ ५" ८० | शिक्त ` ` राजसूयः ११० | श्यावाश्वं साम रात्रिसत्रन्यायः , ३९ रेवत साम ` ९० | षष्टि रौरवं साम ` ७५, सथोमुक्तिः वरत्सापाक्ररणम्‌ | सष्दशस्तोमः वृणः ` ४९ | सन्तानः वाजपेयः ११० | सफ साम वामदेग्यं साम ७६, ८३ | स्वपष्ठम्‌ वारवन्तीयं साम ` ८५ | साम विकपंणम्‌ ६८ | सोमः विषत्िः ६, १११ | सौत्रामणी विधि १४ ¦ सौभरं साम विरामः ६२, ५९ | संस्कारः विश्लेषः ६८ स्तोत्रम्‌ विश्वजिन्न्यायः ३९ | स्तोत्रियं साम विपुवत्‌ ९० | स्तोत्रियः वि्टारपंक्तिः ५७५ | स्तोभः विष्टुक्तिः ८३ | स्तोमः वेदः २, ६४ | स्थानम्‌ व्याकरणम्‌ ५१ | स्फोटः चा स्वरः शक्वरी १३ शब्दभावना १२३ | होता शरलेशः ७२ ' हौम्‌ 2

पुष

८४

४९ ७७; ७६ | ^ 16 (

ˆ „८४

^

८९, ९६

३८, ६६, ६७; ६८ १११

११०

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७२. ७४, <८. ६९. १६.

४९

_ १३६ ४९, ७९

+ 9 ^ (

„१ # [|

( १२)

नामि पृष्ठ वाद्रयणः ३१ १७) १०७ देददारण्यक उपनिषदू--९, १२, ४६, ४८, ९०, ११०, १२९१ बोधायत

११४ त्यसूत्र २५, २६, नह्यपुराण ५८ (इमारत) ४१, १०८ भदटराचायं १२३ भागवत भारत ३२ भत्स्यपुरण , ` १३६ मसुस्छति ३९, ५८, ५९, १०६, १२६, १२७ महाभारत ५७ माक्ेरुडेय पुराण १२३ मीमांसामाष्यविवरण ३, ३८, ६६, १२१, १२४

मुण्डक उपतिषदू १२, ४८) ४९,१२१

मैत्रायणी संहिता २३, २०, २९,३०

यज्ञपरिभाषा १५

याक्ञवस्क्य स्मृति ६, १४, ५७, १०६, ११०, १२८

याश्क १७, ४६ र्‌

रघुवंश ३९

रामायण ३२

पृष

` ७८

नाम लाट्यायन सूत्र

वाजसनेयी संहिता, १२, ,५) २०,

२१, २५, ३५.३६१,

५१, ६४, ९५, ९९

११२,११६ विनियोग संग्रह ७, €, ५८, विवरण भ्रन्थ १०६ विष्णु पुतण ५८

वेदान्त सूत्र ३, ६, १७, १८, २६, ३४, १०७, ११४

वैजयन्ती -५६ वेतान सूत्र १४० | शतपथ ब्राह्मण १९, २४, २५, ३६;

३८, ४५७, ६५ शवर स्वामी ६८ शाङ्करदशंन ४, १०८ शान्तिकर - १४१ शावर भाष्य १५ श्वेताश्वतर उपनिषद्‌ १०४ श्लोक वातिक १२९ सख सप्याषाढ सूत्र ११९ सवानुक्रमणी ११४ संहिता ब्राह्मण्‌ ४४ सामवेद्‌ संहित ६९, ८३, ११९ स्कन्द्‌ पुराण १२९ हलायुध ५६

~व <) 99

( )

र्‌ शब्द्‌ , .. पष्ठ रथन्तरं साम ६७, ७५, ७६१ ८३ रथन्तरं प्र्ठम्‌ ८० राजसूयः ११० रान्निसन्नन्यायः ३९ रेवत साम इक सोरघं साम ७५,

(1 वत्सापाकरणम्‌ वणः - ४९ वाजपेयः ११० वामदेव्यं साम ७६, ८३ वारवन्तीयं साम ८५, विकषेणम्‌ ६८ विशतिः ६, १११ बिधि" २४ विरामः ६२, ७९ विक्लेष ¢ | विश्वजिन्न्यायः ३९ विषुवत्‌ ९० विश्रारप॑क्तिः ७१५ विष्टुक्तिः ८३ वेदः २१६४ ठ्याकरणम्‌ ५१

चा शक्वरी १३ शब्दभावना १२३ शरलेशः ७२

शब्द्‌

शस््म्‌ शाक्वरं साम शिता श्यावाश्चं साम

षष्टिः

सघ्ोमुक्तिः सष्टद्शस्तोमः सन्तानः

सफ साम सवंपृष्ठम्‌ सास

सोमः सौत्रामणी सौभरं साम संस्कारः स्तोत्रम्‌ स्तोतरियं साम स्तोत्रियः स्ताभः स्तोमः स्थानम्‌ स्फोटः

स्वरः

होता दौत्रम

८४ `

२९० 8,

७७, ७८

स.

८४

५७५१

८९, ९६

३८, ६६, ६७, ६८ ` १११

११०

८६

4०

- दर

७२, ७४, ८८ ६९ ४९ १३६ ५९, ७९

8४

१२०

( १९ )

नाम . वाद्रायणः इहदारण्थक उपनिषद्‌ -- ६, १२, ४६, ४८, ९८, ११०, १२१ बोधायम्‌

११ जह्यसूत्न २५, २६, ब्रह्मपुराण ५८ भट्ट (कमारिल) ४१; १०८ भटूाचार्थं १२३ भागवत. भारत ३२ मस्स्यपुराण १३६ मनुस्मृति ३९, ५८, ५९, १०६) १२६, १२७ महनमिारत ५७ माकर्डेय पुराण १२३ मीमांसाभाष्यव्रिवरण ३, ३८, ६६, १२१, १२४

युण्डक उपनिषद्‌ १२) ४८) ४९,१९ १| श्वेताश्वतर उपनिषद्‌ मेत्रायसी संहिता २३, २७५ २९,३० | श्लोक वातिक

यज्ञपरिभाषा १५ याज्ञवर्क्य स्मरति = ६, १४, ५७) १०६, ११०, १२८ यास्क १७, ४६ र्‌ रघुवंश ३२ रामायण ३२

ष्ट | नाम 3 १५, १५७ लाट्यायन सूत्र

षठ ४७८

वाजसनेयी संहिता, १२, १९, २०, २१, २५) ३५.३६ ५१, ६४, ६५, ६६,

११२,११६ विनियोग संग्रह ७, €, ५८, विवरण ग्रन्थ १०६ विष्णु पुराण ` ५८

वेदान्त सूत्र ३, ६, १७, १८, २६, ३४, १०७, ११४ वैजयन्ती

५६ वैतान सूत्र १४० | शतपथ ब्राह्मण १९, २४, २५, ३६१ ३८, ४७, ६५ शवर स्वामी - ६८ शा्क्दशंन ४, १०८ रान्तिकस्प १४१ शाबर भाष्य - १५ १५०४ १२९ सव्याषाढ सूत्र ११९ स्वीनुक्रमणी ११४ संहिता ब्राह्मण सामवेद संहिता ६९, ८३, ११२ न्द्‌ पुराण १२१ हलायुध ५६

0 90 0 -

>

परिशिष्ट ४)

भाष्यसूनिकास्थितोद्धरणानां बणेक्रमेण

प्रतीक अक्तिवमसि अन्नितमस्य० अभ्र ्रायादहि छग्ल्यादिदेव अग्निमीडे अग्निर्ज्योतिपि अभिगृद्धा अग्निहोत्रं जुहुयात्‌ अग्नीदेग्नीन्‌ अग्ने नय अन्नेर्वायो श्रचेवनेऽथं० अचोऽस्परठाः अन्ययुतमसि अजक्तीरेण अरत्तएव नित्यत्वम्‌ व्रतिजगत्तीु अत्तिदेश्यानि अविदेश्यं विरात्रे षोडशिनम्‌ अतो नित्यः शअकथकलत्वात्‌ अथ चेद्‌ अथवार्‌ एनम्‌ अदितिर्योः

अर्ष्राथौ

सुची

चे. सं. १६१८१ छा. उष्‌. ३।१०।६ सा. सं. १।१

ऋ, १।१।१ ए, चा. ५।५।६ च्छ. ८1४४।१६

तै. सं, ६।३११.२ ऋ, १।१८९।१

ते. आ. २।१५

जे. १,२।३५

पा. शि. ३८

ते. सं. १।६।५।१ ते. सं. ५।४।३।२ वे. सू. १३।२९

ता च. १२१० जै. न्या. वि. ७।३।३

9 ५७

पुरपाथाबुशासनम्‌ मी. ९।२।२९ गो. जा. २।२४ गमो. जा. १४

च, १।८९।१० पुरषाः

1:

६१७

२७, ११२ ८३; ११२, ६९ ` ५५

३५, ६५, ११३ २०

१८, ३६४ ५६ १८, ३५, ६५ २३

टं

१८

८९

६७

२५

३, ३४

७३

८९

६५

9;

४६

६८

१२१

१२२

१८, २२

३९

भ्रतीक अञ्यग्हे्मसंनाहा साञ्यभागान्तं अज्यै: स्तुवते अत्मा वा इद्मेक आदित्यः प्रायणीयः अआदित्यानेव स्वेन आयं नघरटुकं आदयोनो आधानस्यात्र भनोमित्रा

राप उन्दन्तु अप्राप्ता चानुपपत्तिः अभिचारेषु आन्नायस्य क्रियार्थत्वात्‌ आयाहि

आस्य प्रजायां आहितान्निरपशब्दं

इच्छाम्येवार्थ° इभ्येते स्वग॑लोकाय इति चिन्ता इति मात्रा इतिहासपुराणाभ्याम्‌ इत्याददा इत्यय° इदंवाश्परे इन्दनो वायुशन्ति दन्द्रमच्, न्द्रशनरुवधताम्‌ इन्द्रं मित्रं वरुणमग्नि * इन्द्राम्री इ्रपरी ्रागतम्‌

हमासग्रम्णन्‌

( १६ )

विनियागसंभहं -

ठे. उ, १।१ त. सं. ६।१।५।१ त. सं, ३।१.१।१ अनुक्रमणिका भाष्य जै. न्या०्ति १०।४१३। ओै.न्या.वि ३।३।२ उ. आ. १।५

* सं १।२।१।१

. १।२।९

६।१ जे. १।२।१ उ, अआ, १।६ तात्रा,

ओ. न्या. वि. ५२. ते. चा. १।३२।२ स. भा १।१।२६७ श. च्० १३।१।५।६ ते. ता. २।२।९।१ ऋ, १।२।४

उ. श्रा. १।१७

त. सं, २।४।१२।१ च्छ, १।१।४६

उ. श्रा १।७

ता. सं, २२।३

21

१४२ ७१ १४, २५ २९ ( ५५ ९९ ८७ ८३

. १६ २९ १४९ २६ ८२ २५३१ ५५

३६, ६६

2

परिशिष्ट ॐ)

जाष्यमूमिकास्यि्तोद्धरणानां वणैक्रमेण

ध्रतीक श्रकितमसि श्मत्तितिमस्य० श्रन्न च्रायाहि छग्न्यादिदेवण अग्निमीडे छअग्नि्योतिपि अभिमूद्धा श्मग्निदोत्रं जुहुयात्‌ अग्नीदग्नीन्‌ ण्ते नय प्रम्नेबौयो चेतनेऽ्थ॑० ` ्रचोऽस्प्रषठाः छ्न्युतमसि अजक्तीरेण तएव निस्यत्वम्‌ प्रतिजगतीषु श्रतिदेश्यानि ्रतिदेश्यं च्मतिरात्रे षोडशिनम्‌ अतो नित्यः ्मकथकत्वात् चेद्‌ अथवागर एतम्‌ ्रदितिर्योः अदृ्टायो

सुची अं

त. सं. १।६।५१ छा. उप. ३।१०।६ सा. सं. ९१

ऋ. १।१।१ ए. रा. ५।५६ ज्र, ८1८८1१६

च, सं. ६।३।१,२ छ. १।१८९११ तै. मा. २।१५ ज. १।२।३५ पा. शि. ३८ तै. सं, १।६।५।१ ते. सं. ५।८।३।२ वे, सू. १।३।२९ ता. व्रा, १२९१० जै, न्या. वि, ७।३।२ 99

पुरुषा्थीदुशासनम्‌ मी. ९।२।२९

गो. त्रा. रर गो. जा. १।४

ऋ, १।८९।१० पुरुषार्था

पृष | ३७, ११२

८३, ११२,.६९.

५५ ३५ ६५, 9 १२. ३०,

१८, ३६ ६६,

१८ ३५, ६५.

41

१८

४९ ६४७.

"ब ३; ३४.

७३

८५

६५

२२४

६८

१२१

१२२.

१८, २२

३०

भ्रतीक त्राज्यद्रहष्मर्नाहा ` अअञ्यभागान्तं अज्यै; स्तुवते आत्मा वा इदमेक आदित्यः पायणीयः ादित्यानिव स्वेन यं नधरटुकं श्रायो नो द्माधानस्यात्न रानो मित्रा

च्राप उन्दन्तु श्राप्राप्ता चानुपपरत्तिः ्ाभिचारेु छाम्नायस्य क्रियाथतरात्‌ च्रायाहि

आस्य प्रजायां भमादिताग्निरपशच्द्‌

इच्छाम्येवार्थ° इभ्येते स्वग॑लोकाय इति चिन्ता इति मात्रा इतिदासपुराणभ्याम्‌ इत्याद्ढा इत्यय° इदंवाश्रप्र इन्दवो वामुशन्ति रनदमच्, इन्द्रशनुवधताम्‌ इन्द्रं मित्रं वरुणएमग्नि" इन्द्राप्री इन्द्राभी आगतम इमामगरम्णन्‌

9.3

विनियागसं्रह्‌

ठ. उ. १।१ त. सं. ६।१।५।१ ते. सं, ३।१ १।१ अनुक्रमणिका भाष्य ञे. न्यारनि, १०।४१३। जै.न्या.वि २।३।२ उ. आ. १।५

* सं १।२।१।१

. १।२।९ `

६।१ जे. १।२।१ उ, आ. १।६ ता. बा.

हं

ओ. न्या. वि. ७।२. ते. आ.. १३२२ म. भा. १।१।२६७ श. ्ा० १३।१।५।६ ते. त्रा. २।२।९।१

` ऋ. १।२।४

उ. चरा. १।१७ ठ. स. २।४।१२।१ ऋ, १।१।४६ उ. श्रा. १।७

ना, सं, ३३१

धृष

१४३ ७१ १४, २५ - २९ ४५ ५५ ९२ ८७ ८३ (0 २९ १४२ २६. ८२

"२ ५, २१.

५५

३६, ६६

\७७ ५० १३

८३

+~

श्रत्तीक द्रम दशपृण मासां दररागिराविक्रस दुरापद्‌

द्पे स्वा

द्रप स्वादि

द्रप त्वोजं

$द्रानमस्य

क्रस्ाप्रिष्टुत उक्तं तु शन्द्पूत्र उक्तश्च नतित्यस्मयोगः उच्चा ते जात टैत्चा एत छं सख्ये उत त्वः पश्यन्‌ उ्पत्तेिनियागोऽत्र उःपादकत्रद्यदात्रा उदत्तश्चाचदात्तः उदानिपुमदीरिति उददिश्य ठन्चारणम्‌ उद्देशयोगात्‌ उन्नेयो व्रद्यगानस्य उपनीय गुखः उपतीय।ध्यापनेन उपनीय तु यः उपनीय ददद्‌ उपवीता वा उपायवस्थः उपास्मं गायत उपाच दष्टं खरितम्‌ उभा कुरुता उर प्रस्थखेव्याद्या डर्‌ प्रधघ्व

छदः

% ) |

चां, १1६

. सैर न्यार तिर ५१।१८

सै° न्या चिन ९।१।१८ वा. सं. %1१ खे. न्या. वि.:२।१।१५ वा. सं. १।१

¢

- 9

ट्‌ दु, श्या. १।११।१

सै न्या वि० २।२।१९ ल. १।१।२५

चै. १।२।५०

ड, खा, १।८।१०३ सत्या. सू. १।१।१ च्छ, १०1१७१1५

चछर, १०।७१।४

चै, न्या. वि, ३।३२ म्‌. स्मर. २।१४८५

धा. कि. 3१

ष्म. 19दषय

जेर न्या वि° या. स्मर, १।१५

१०।८।६

य. स्म, २1१८० य. स्स १।३४

वा. सं. १1१ ड, आरा. १।२।१-२ प, शि. ३५

च. सं. ६।२।५३ ते, सं. १।१।८।१

[८१ अ. १।२।५३

पुष

१८४२.

६१९

६९

६५, ५,१.३५) ११२ ११६

११६

९५५

६५५

. २२ 4८ १२० ४६ ४५, ५४ ८५७ ५८ ८९ ३६, ६6 ४६ ८२ ९८ १०६; १२८ ` १२६ ११६ १२.८ ९८ २५ ८९१, ८८

६५ १७५ ३५५

>

प्रतीक

ऋक्‌ सामभ्यां ऋग्भिः पू बहे ऋग्यजुः ` - ऋग्वेदं एवाग्ने अद्रवद्‌ भगवाऽध्येमि ऋग्वेदेन होता ऋछभ्ेदो यजुवेदः जवः सामानि ज्वां त्वः पोषमास्ते ऋषयोऽपि पदाथौनां

एक एव स्द्रो एकविंशेन एकस्तोमे

एकं साम , एका्टकायां

एकं साम तृचे एतदभ्नो दधित्वम्‌ एतत्‌ वै भूमिं एतत्‌ ्राह्णान्येव एतत्‌ साम

एतत्‌ साम गायन्नास्ते एष एव यज्ञः

एषा वे प्रतिष्ठिता

च्रोषये ्ायस्वेनम्‌

त्प ततिकच्छु उरौ: खामक्तु

रुरवरयन्तरं कपिखलानां

क्या नर्चि क्या नरिखन्न

(^ < )

न्ट , न्या. वि. ९२१८ त. जा. २1१२।९।१ त-प. ता ११२ ए. त्रा. +भंज छा. ७१।२्‌

^ 4]#

सुण्ड, उप, ११।५

ऋ. १०।९०।९

छ. १०।१७१११

जे. न्या. मा. २।१८ प्‌

1 त. १।८।६।१

जै. न्या. वि, ५३।१५

ते. सं. २।५।३।३ गो. बा. ३।४

ते. सं. २।७।१११ ते. अ. ९।१०।५ ते. सं. १,६।५।१ छा, उ, ४।१६११-२

नु ( | त, स. १।२।१।१ = अजा जं, ११।५ जै.न्या. वि. ९१२१३ क्र ता. ५८१६ चा. सं. २५२० उ. आ. ११२।१ त्‌. न्रा. १५११९

पृष

१९१ १२, १२१ पृ १२ १२० १२ ३, ११९ १२१ ६४ ३५१ ९५,

७१, ५९, ८३, ८९

ध्रतीक

करठव्यसुच्चैः

कच

कंश्ट्वा सत्यो मदाना

काण्वं भवति

कारणेन

कात्छ््योत्‌

किं ते करृएवन्ति

किं वहिष्पवमान

किं योल्कषां

किं सवप्रठ

कुःघुरुविन्द्‌

कत्तिका

कृते चाविनियोग

करलप्रा्तिजंयारथो

को श्रद्धा बेद्‌

कोहि तद्‌ वेद्‌ गीच्सं भवति

करौ चानि

व्वापि स्तात्र

गवामयनिके गानस्य नियमा गायत्रीभि गीतिरूपा सन्ताः गीतिषु सामाख्या गीती शीघ्री गुणवादस्तु शुणादविप्रतिषेषः गुणाय पुन श्रतिः गुरसल्याः क्रिया गोरष्या पार गरावाणः प्लवन्ते

धृतकूस्याय ति

चतुः शतमन्द्र

1:49 जै. न्यावि. ३३१ ड. श्रा. ११२.९ ब्र, सू १।४।१४

च, ३१५३११४

सै, न्या. वि, ११।२।११

सै. सं ५२२११ सै, प्रा. १।१।२।१ ले. १।१।३२ पुरपाथो°

च्छु, ३।५४।५

तैं, सं. ६११११ ता. त्रा, १३।९ तू. त्रा. १९१३

ग्‌

न्या. मा, वि, ८।२ त, त्म १।१।९।६

मी, २।१।३९ पू. शि. ३२ जै. १।२।१० ले. १।२।४७ लै. १।२।४१

21 पुराथ न्ख लाया, सू. १०३

पृष ८६

, ६७ ७१३ ७९ , ९१ >

, ८७ ,

, %९ ९६ ३३

३३

१५७ २७, ३० . “६१ ˆ ६१

, ९६

५७

६७

३७) ६६४. १२१

4८

प्रतीक

चटुः शते

चतुर्विंशति

चत्वारि वाक्‌ परिमिता चत्वारि शङ्खा

चत्वारो वां वरधरुपदयाति

चित्रया यजेत चोदकस्या°

चोदनां हि भूवं

छन्दः पादौ ठु छम्द्ःस्थयो छदने माने

जरद्गवो गायति ज्िलसवाग्वा जायेव पत्ये व्योतिष्टेमेन

पचोदकेषु मन््ाख्या तच्छर्योरूप

ततत्‌ समन्वयात्‌ तस्रमाणं

तत्रापरा

तत्‌ सवंबाधकं

तथा फलसावात्‌ तदृथशास्रात्‌ तदाहुतीनां

तदिदं विद्यास्थानं तटुह वा एते तहध्नो धित्वम्‌ तद्द्‌ इदमाहुः

तये केचन

तद्‌ व्यचिक्रित्सयन्‌ तमिदन्द्रं

मेतं वेदालुवचेन

( ¦ जे, न्था. वि. ९।२।६

त" १।१६२४४५्‌

क. ४।५८।३

गो. ता. २।१६

तै, सं. ५।६।२।५

जे. न्या. चि. १०७२४ शा, भा.१।२ पा. शि° ४१ जै. न्या. वि ९।२।५ ञे. न्या. चि, २।१।१५

तै, सं, ५।२।३।२

जे. २।१।३२ व्रहु. उ, १।४।१४ न. सु. १५३ मी. १।१।५ मु. १।१ जै? न्या० बि १०।४।११ जे. १।२।३ जे, १।२।३१ ए. ्ा, १।१।२ नि. १।१५ ३१, आ. २।२।३ ते.सं. २।५।३।३ चू १।४।६ श्माश्व. ९।१३ सं, ६।५।९।१ एतत, आ, २।४३ वृहू. ३, डटरर्‌

पृषं

७८

५१४७

-

१८, २१, ५३ १३२

१२६

९२

१५

५५७ ५७र ११६

दद ३४ ४५ ४, २३४

३४ २६ १२१ ५१ २५४ ९५७ ५६ ५६ ५८ ३६ १२० ३६, ६५ ५६ || 9 1

प्र्ताक यर्म तरति वद्यदत्यां वरति ब्रु तरति शाकं तथिव

वन्यः कर्मगाद्धवाची तस्मादु धूम एव तस्माद्‌ यत्त्र तस्मात्‌ सजा तस्मात्‌ सप्र तद्मान्मलवद्‌ू चस्माटदिते दोचन्यम्‌ तस्ाच्च्यध्यु्ं वस्मिन्‌ सदपि मनत तस्य प्रथमया

चस्य मकास्माच्रया तस्य विकारः

तस्य हृष्य

तां चर्तर्विरथिमाद वासय तान्‌ पयग्ति तावतोऽश्वान्‌ वियभ्योदिं तिखभ्यो दि तिद्धष्चृष्ठ

तल्यं

तृफरोत्‌ दन्ताय तृचाघ्ाघु

तृचे स्यादचि

तेन दन्तं

तनोभौ छर्ते तेषामृग यत्रां

तं बाद

तं चि्याक्मसि चराणां सप्त

च्रय्या विदा

२१९ )

ॐ८ न्या० वि< ९।२।१६

ते. सं. ५३।१२।२ छा, ड. ७१६

&. श्रा, 9१ पुरधाथी°

ते. त्रा. २।१।२ च, १०।९०।९ च्म. प्‌. ५६

त्‌. घ्रा. १५१२१

द, ३, १६

गो. त्रा, १११७ गो. त्रा. १।२०

` पा, शदा१३४

श. अ. ६१३१}

ता. ६२ ता. २1११३

सं. १।२।८ नि. १३१५

श्ल. आ. २।५।२।२३

द्धा. उ. १।११० सु. २।१।६५ श्रा. ११३

, व्रा. १४७२८१३

ड. ८1४1

देव. त्रा. ५१३३

4 & «~

2३८ ६६; १५०१ १२१

८९ ५७ - ९०

ˆ १२०. १२१.

प्रतीक

चर्यां

त्रयो वेदा

त्रयो वेदा त्रिघ्रुदम्नि° तरिबुदग्निष्ठोम० त्निबदूवहिष्पवमानं

तरिषष्टि्चतु त्रीणिहवैं ब्रष्ट्मन ला तरेशोके

त्वा सिद्धि

पि सधु दशं पणंमासाभ्यां दशप मासौ तु दविधतत्या दिच्वतीकाशान्‌ दिवो वा दिशो प्रजानन्‌ दुमदासो दुष्टः शब्दः दुःखेन यन्न दू रंभूयस्वात्‌ च्छे तु नार्षटम्‌ दष भाप्ति" देवाः पितरः देवा वै देवयजन ° देवादयः संयुक्ताः देवो वः सविता द्रन्यसंकारकमंु हन्द्रगम° द्वयो्विंधो द्विसामके द्यो द्विः संवत्सरस्य

( २९ )

नीति शाख एत. व्र. ५।३२ चा, ४।१९

ता. १५७ ता. २० ता. २।१४ पा. शि.३ ता. ७1३

जै.न्या. वि. ९।२।५

पू. चा. ३।१।५।२ द्‌

ता. २६

आश्व. सु. १।१।३ उ. आ. १६२१ ते. सं,ˆ६।१।११

नि. १।४ पा, शि. ५२

जे, १।२।१२ पुरषाथो०

3१ „, त. स॒० ६।५९।५

त, स. १।१।५१ जं, ६।३।१

° न्या वि० १।४।३ ञे० न्या० विण ९।२।१७

पष्ठ १२३ ११९

९५७

८५

८२

८१

४९ ८८) ९२ १९

७३

९२

८१

८५० ८८ ३० ११३ ३९ ५६ ५२ १०८

३७ ३७ ६६, ११३ ३१ ९६ ८१ ८१

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दन्न

पय्यक््रः दि

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एव्रुददिध्य

वमानस दे

4

प्रतीक पवस्व मधुमत्तम" पञुवन्धयाजी पाकतन्त्रपु पाद्वन्धेन पवा सोममिन्द्र पुतमरविन्दरियम्‌ पुनानः सोम पुरस्तादुत्तरतो पुराणन्यायमीमांसा पुरा बाह्मण अनैषुः पुरो जितीवो पुरोडाशं प्रथयति पुरोहितं तथाथव° पूणोहुसया सव्वान्‌ पृणोति जुहुयात्‌ पृच्छामि खा पौरुषेयं वा वेद प्रं शंशतीस्यादौ प्रलापतियज्ञानसजत्‌ प्रजापति प्रजापतियज्ञम्‌ प्रतिशब्देनावधिदि' प्रति द्रव प्र्यक्मनिमित्त ्र्यक्तेणानुमित्या वा प्रथमं परतः प्राहुः प्रमरन्दाय

प्रयाजा; खविभक्तिकाः

प्रवरे प्रिथमाणे प्रवो चाजा प्राणश्चंसितमसि प्रा्तजुदयेति प्राप््याथवोधः परपरि कमणि प्रस्तु गवादिवत्‌ प्रोतणीयसाद्य

( २४ \ उ. आरा १।१६ के. ९४।१ | १. ५।१।८

8, ओ. ३।९।१)३ कौ. १।७ यास्म, १।३

त्‌. स. १।५।५।५ आ. १।१८

ते. चा° ३।२।४।८ माक. पु

त्‌. वा, ३।५।१०।५

वा. सं. २३।६१

जै, न्या, मा, १।२८ जे न्या० वि २।१।५ <, +

त्‌. स. २।१।१।४

जै° न्या वि° १०।६।२ ड. दा, ११।१०।१.-३ जै, १।१।४

ऋ. २।५३।१४

मै. सं, १।४५११

सै. सं. १।६।५।१ तै. त्रा. २।१।२

वा. सं, १।२५

पुष ७७ २७ ५० ६७ ६८ १४१ ५३, ९३ १४१ ५७. ३६) ६६ ५७७ १५ १६३ ५४, ३१ ३१ ३५, ६५ २३४

१२ १२० ९५ ९६ ४५, २, १०९ १२९ २२. ५३ ३०५ ५१ ६४७

+

८र्‌ र्‌

२१

वतां

फलवद्‌ बोधान्तते ° . फलस्य क्म॑निष्पत्ते; फलान्तरं हि पालान्तरं चतुर्यो्तं फल्गुनीपूरेमासे

बबरः प्रबाहणिः बाध्यं शोकादिना रहत्‌ प्रस्तूयमाने बषट्‌ यवः घहद्रथन्तरेकीय° षृहटुरथन्तरथंमः ब्रह्मवे ब्रह्मविचार त्रह्मविदप्नोति व्रह्म वेद्‌ बहव परह्य सार्न्यार प्राह्यणेन निष्कारणो ब्ाह्यणेनापि

मतो दुः मन्वब्राह्यणयोः मन्त्रश्च ब्राह्मणं चेति मन्त्रा इर प्रथस्वेति मन्त्रा मननात्‌ मन्त्रो दीनः स्वरतो माघुयमक्तर° मायां तु प्रकृति माषानेव मद्य

मासि मासि सोघमभ्नं विन्दते

अमादृणत्यवितथेन यचित्रया

( २५

` च्छ पुर्षाशौ ° खे. १।२।१७ जै. न्या. वि. २।२।१३ 9१ 83 ता. प्र, ५।९।१७ त्‌. स. ५।१।१०।९ जै.न्या. वि, १०।४।९ ताग ७।७ जै. न्या. वि, १०।७११६ जे. न्या. बि. १०।४।२४ (२. जे, न्या. बि. ९।२।१५ गो. जा. १।१६

ते, श्रा. ५१ मुरुड, २।२।९

जै. न्या. वि. १।२।४ .॥

ष्ठा" ५।२।५९

जे. न्या. वि, १।२।४

जे. न्या. वि. २१८

जे, न्या, वि, १।३।४

नि. ७१२

पा. शि. ५२

पा.शि, ३३

श्वे. उ. ४।१०

ते. सं. ७।५।१५ च्छ, १०१११५६ यृ

= [9 जे, न्या. वि. १।४।३

९२५ २५, ३२३३,

युष

ट्‌ ३१, ४७ ८६ ८६ ५४

९१

८१०

९८

९२

[2.1

` १३८ ४२

४८

1;

९९

४, ११५ १००२ ११३

७०

१५) ४§ १९० ३९, ६५

२४, १०० ११३ १४

५०

५०

पण

३६) ६५

३६० ६६

५८ ६१

ध्रतीक

यजमानेन सम्मितौ यजुरवेदस्थमाधानं यक्ञकालाथं

यज्ञस्य हैष

यज्ञा यज्ञा यन्ञायज्नो षो यज्ञायज्ञीयेन

यज्ञेन यज्ञमयजन्त यज्ञं व्याल्यास्यामः यस्तिव्याज सचिविदं यत्‌ वतीयं

यतृपरः शब्दः शब्दाथैः

यत्‌ पूणोनन्देकबोधः यत्‌. वै यज्ञस्य सास्रा यथा श्रततोपपत्त यथाह वा अचि यथेकपात्‌ यदधीतमविज्ञातं यदनुदिते सूं यद््रथयद्‌ तत्‌ यद्‌ नयात्‌ यदाग्नेयो यदाजिमीयुस्तदा यदाभिवजमङाकत्‌ यदि यज्ञ यदुक्तं गीतिषु यद्‌ ऋचोऽधीते यदेव विद्ययां करोति यद्‌ गृहीतमविज्ञातं यदू बह्यसखान्‌ यद्‌ वे यज्ञ्य यमगाथाभिः यं षयः

यं कामयेत वसीयाम

यं यं क्रतुमघीषे

)

सं. ६1२११०1३ वि

त्‌ | न्या. ३।३।२

इ. शमा. १।१० उ. आ. १।२०१३ ता, बा. <६ छ. १०।९०।१६ सत्या. सू. १9 च्छ, ९०।७१।६

परमहंसोषनिषद्‌ वे, सं ६।५।१०।३

ते. त्रा. ३।१।४।१ गो. ना. ३।२ नि, १।६

रे, त्रा, ५।५।४ तै, ब्रा, १।१।३।७

ते. सं, २।६।३।३ ता. ७२ कौ, २३।२

ते. आ. २।१०

संहि. चा.

. श्रा. २९

ते. सं. ६।५।१०३ तं. स" ५।१।८।२ ते. न्ना, १।२।१।२६ सै. सं. २।२।३।१ , मा, २।१५

21

(~

(4

21“

पु २३६९१ ६५

1 ६४ ५५८ ८७ ६९ ३९५ ६६ ११९ ९० ५,३४ ४६

` १९ ४७ १२१ द, ५६ २४ ५५६ २५ १२३६ ८३३ १३ ६४ ६७ १०७, १३८

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गयान्‌

रपाल श्राचन

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भ्रतीक्त .

. रवतत

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रेत्यादिगुंर रौरवयोधाजये

लभ्यमाने फले लिङ्गपदेशृ् लोकबन्नैजो लौकिको वाक्यो

वप्त विश्वनञित्येते वत्सापाकरणं बरहि° वसस्पतयः

वर्हिषि रजतं

वथिषटश्य

वसन्ताय कपिजल्लाना" वंसन्ता बरह्मणा

वसन्त ब्रह्मणम्‌

~+ `~ `दक्यतियसात्‌

वाग्ते दराच्याव्या्ती° वाचा विरूप नित्यया वाचः स्तोमे पारिप्लवं वायस्थोपायचघस्थेति वायवायाहि

बोयव्यं तेतमालभेव

` बयुमेव स्वेन

वायुव, इत्येवसादे वौयुव क्ेपिष्ठा वाय्वादयो भगन्दाः; बाजी जायते वियाप्रशंसा

विद्या बाद्यएमेवादह्‌ विद्यावचनमसंयोगात्‌ विद्या ह्‌ बै ब्राह्मणं चिधिना सेकषवाक्यत्वात्‌ चिधिशच्दाद

( स्ट)

-पुष उ. अआ. ४।१४ ८५ जे. न्यो. चि. ९।९।१२ ८५, ता. जा, ७३ ५५ [र १२६ जै, १।२।५१ २३ पुरुषाथौ ° य्‌ ज, न्या, वि, १।३।५ ८१ = 1, जे. न्या, वि, १०६८ ९७ वि.सं, , ३३ तै. सं, १।५।१-२ २९ ता. १४११ ९१ षा. सं. २४२० ३५, ३६, ६४, ११६ तै. त्रा. १।१।२।६ ५७, १२७ प्रा. ध. १।१।१।१९ १२८ तै. १।२।३२ १८ ते. सं. ६।४।७३ ५१ ऋ, ८५५}६ ३, ३४ ५० ते. सं. १।१।१ २५ ५० ते, सं, २।१।१।१ ९५८ ४. जे. न्या. वि. १।२।१ ३२ ते, सं. २।१।१।१ २८, ३९ ६५ नु. था, , 1 ३१ जै, १।२।१५ ३० स. रम्‌, २।११४ ५८ लै. १२.४८ २२ ५८ = ११२१७ २८ जे, १।२।५३ २३

धर्वाक विध्यनन्वयवो विष्वर्थवादौ साकाङ्नवौ विव्य्यवादशतब्दानां विच्युदेे

विनापि विधिना विमुक्तादिभ्यो विरोधे गुणवादः स्यात्‌ विश्वजित्‌

विग्ना प्रतता विदितस्याननुछनात्‌ विदहिवार्याभिघा बुदरशचाखात्‌ चुचगीति वत्ताचभ्यास बुद्धग्च्छः वृष्टवन्नस्र्मकामानां वेवसश्राखया

वेद्‌ एव द्विजातीनां वरदान्धीत्य वेदी वा वदाभ्चैके

वेद्विमाहुः परमन्तं वंधमथं°

त्रीदीन्‌ जवदहन्वि

श्वं हिमाः श्वं पारि श॒ब्दव्रह्मणो

शव्द्‌ तह्य शाखादियाजमाततं शान्तियुष्टयमिचासार्था शाख्च्रविसोधाच शाञ्चयोनिलात शिक्त त्राणं तु वेदस्य शिखा तं वते

युभिके शिर श्रारोद्‌ श्तं व्याल्यास्यामः

६९ )

जै. न्या. वि. १०८1६ लै. न्या. मा, १।२॥१ न, 9 लै. न्या. मा. १।२।१ ज, न्या, वि. ३।३।१

चषा. ५२1६१ वा. ९३1३ या. चख. ३1२१९

जै. १।२।३३

द्रष्टा, ८,२।१०४ =. न्या. वि. २।२।१३ तै. सं. ५४८४६

या" स्त्र, १।४०

ले. १।१।२७

वा, सं, २३।६२ ते. चा. ३११२1९1१ पुर्पाथा°

11 ना. ता, २।३।४२१

त. १।२।९ व. १।१।३ पा.शि. ५२

श्रा, म. षा, २९८९ ते. आ. जर

१३१ 81

८६

१४. ,.

३८

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३५, ६५ ९२०, १२१

४१

हि

प्रतीकं

श्टणोत भावाणः शेषे ्ाद्यणएशष्द्‌ः शेषे यजुः शब्दः शोभतेऽस्य मुखं एवावाश्वम्‌ श्यावाश्वान्धीगवे° श्रुतिस्म्रत्योः

श्रेष्ठो हि वेदः शोकेन पुरस्तात्‌

पण्णा तु कर्मणां

आत्मनो सक्टेभिव तितडनां सक्तून्‌ जुहोति सतः परमविन्ञानम्‌ सत्रिभिः

~... ' सन्देहनिणयौ

सप्तदश प्राना" समानकठेकयोः समासस्य समासु गानम्‌ समुच्चयो वा

<स मुच्चीयेत्‌

सुच्चेया विकस्प्या सम्बत्सेरमेतत्‌ सम्बुत्सरसुल्यं सगश्च प्रतिसगेश्वे सपः सत्रमासत सवंत्वमाधिकारिकम्‌ सर्वं पाप्मानं तरति सवः एष

विचारम्‌

सविता प्रसवानां

सोमलोके चिभूिं

( ३० ते. १।३।१३।१

, २।१।३२ २।१।३७

ता.म. त्रा, २०।१६।६.

उ. गा, १।११ मे जे. म्या. वि. ९,९।६

गो. ्ा, १।९ ता. चं

म. स्रु. १०।५७६

तै. सं. २।११ न, १०।७१।२

जै, १।२।४९ जै. न्या. वि. १०।२९५

पा, अ. ३।४।२१ पा. अ. ६।१।२२३

जै. न्या. वि.५७।३।३

जै. न्या. वि, ९।२।७ ते, घा. १।५।३४

वि. पु. ३।६।२५

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ज. १।२।१६

गो. ना. ३।२ पुरुपाथा क्रो ५।२४

पष्ठ

१६

३७

३८, ६६, १२१ २७, २०

\७\५

-७७. ११८

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९१

१०६, १२७

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१२ १२१ ९३ ९९ १२८

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प्रतीकं खाध्यायोऽव्येवव्यः सथाणु बच्छंति खीशदरद्विजषन्धूनां सयपराधात्‌ कुश्च सतुस्यथेन विधोनां स्युः स्तैसं मनो° स्तोनियायुरूपो स्तोभध्य लक्तणं स्तोमानोच प्रदिश्यन्ते स्तोमवृद्धिः स्तोमस्थयोः

हानौ तूपायनं हिरण्यं निधाय हिरण्यं हस्ते भवति देतुनिवंचनं निन्दा

` हैत्वादीनाम्‌

१९

( ३२९ )

सै. या. २।१५ का. १।१

मा. १४५२५ जे. १।२।१३

ता. ११६ जे न्या, वि, ९।९।११

जै.न्या, बि, २।१०

जै.न्या, वि, १०।५।६

ज, न्या, वि. १०।४।१२ दे

वे. सु. ३।९६

तै.सं. ५।२।७।१

मै. सं. ५८।२।३

, प्रष्ठ

७१ ३८१०५) १९३ ५.७

३०

२८; ३२

२९१ २७५ २८ २५ ८६

६८

७९

८७)

९१

१०५५७ ३९ २९ ३५, ६५ ६६